Published on Apr 07, 2018 Updated 0 Hours ago

उल्लेख — citation — करने में जो भेदभाव है उसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना महिलाओं का विश्विद्यालयों में प्रवेश का इतिहास।

लैंगिक भेदभाव के क्षेत्र में क्यूँ सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय मूल्यांकन

अंतर्राष्ट्रीय संबंध और सुरक्षा के मामलों में लैंगिक संतुलन और लिंग के आधार पर काम का बंटवारा नई बातें नहीं हैं। एक दशक पहले डैनिएल मलिनिअक, एमी ओक्स, सूज़न पीटरसन और माइकल टिएरनी ने कुछ आंकड़े पेश किये थे जो इस क्षेत्र की सच्चाई है। उनके लेख “वीमेन इन इंटरनेशनल रिलेशंस” में उन्होंने ने इस बात को उजागर किया था कि राजनीती विज्ञानं में डिग्री लेने वाली महिलाओं की संख्या बड़ी है लेकिन इस विभाग में उनका प्रतिनिधित्व शिक्षकों के तौर पर बाक़ी विषयों के मुकाबले कम है। अमेरिका में १३,००० पोलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं जिन में सिर्फ २६ फीसदी महिलाएं हैं। २००६ में इंटरनेशनल रिलेशंस पर रिसर्च करने और पढ़ाने वालों पर एक और सर्वे किया गया था जिस से पता चला की पोलिटिकल साइंस की तुलना में इंटरनेशनल रिलेशंस में महिला शोधकर्ताओं की संख्या और भी कम है। जो हैं भी वो वरिष्ठ नहीं हैं या ज़िम्मेदारी के पदों पर नहीं हैं।

मलिनिअक और उनकी टीम ने ये भी पाया कि राजनीति विज्ञानं के कुल प्रोफेसर में महिलाओं की संख्या सिर्फ १७ फीसदी है, और अगर प्रोफेसरों की संख्या में महिलाओं का अनुपात देखें तो महिलाएं सिर्फ १४ प्रतिशत हैं। साल २०१० तक ये संख्या कुछ ऊपर गयी थी। राजनीति विज्ञानं में 40 फीसदी सहायक अध्यापक, 30 फीसदी एसोसिएट प्रोफेसर और सिर्फ १९ फीसदी प्रोफेसर महिला हैं। ये आंकड़े अमेरिका के हैं, जो एक विकसित देश है। प्रगतिशील देशों की हालत तो और बुरी होगी। लेकिन ये भी ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षा का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ जहाँ कोई भी समस्या इस से जुड़े लोगों पर असर डालती है। मुल्कों की सरहद मायने नहीं रखती, इस में होने वाले बदलाव या कोई भी समस्या इस से जुड़े सभी लोगों पर असर डालती है वो किसी भी देश में हों। इसलिए IR और सिक्यूरिटी स्टडीज के क्षेत्र की ये समस्याएं सभी महिलाओं पर असर डालती हैं चाहे वो कहीं भी बसी हों।

इन आंकड़ों के पीछे की कहानी क्या है। हालाँकि इंटरनेशनल रिलेशंस और सिक्यूरिटी स्टडीज में औरतों की कम मौजूदगी की कई वजहें हैं, कई चीज़ें इस पर असर डालती हैं।

पहचान बनाने का एक मापदंड ये है की आपके काम का कितनी बार किसी ने हवाला दिया। दूसरों ने कितनी बार आपके काम का उल्लेख किया। उल्लेख करने में जो भेदभाव है उसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना महिलाओं का विश्विद्यालयों में प्रवेश का इतिहास। जो पाठ्यक्रम बनता हैं भेदभाव वहीँ से शुरू हो जाता है। अगर आप 1990 या 2000 के दशकों में यूनिवर्सिटी में रहे हों तो भी आपको पता होगा कि पाठ्यक्रम में शामिल अधिकतम पाठ्य पर पुरुषों का वर्चस्व है। यानी ज़्यादातर चीज़ें पुरुषों की लिखी हुई हैं। अध्यापक भी पुरुषों के ही काम को पढने का सुझाव देते हैं, क्या आपको याद है की कितनी बार किसी प्रोफेसर ने किसी महिला स्कॉलर के काम का उल्लेख किया हो, जब तक वो ख़ास तौर पर नारीवाद पर न हो। यही पक्षपात पीएचडी के दौरान भी नज़र आता है, उन जर्नल और पत्रिकाओं में भी जिसकी समीक्षा सहकर्मी करते हैं। ये साफ़ दिखता है की पुरुष दुसरे पुरुषों के ही काम का उल्लेख करते हैं ना कि महिलाओं का। क्या ये इसलिए की महिलाएं कम लेख लिख रही हैं। नहीं। डेनियल मैलिनीएक, रयान एम। पावर्स और बारबरा वॉल्टेरस ने काम के उल्लेख में होने वाली लिंग के आधार पर पक्षपात पर काम किया है। वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि महिलाओं के लिखे लेख के मुकाबले किसी पुरुष के लिखे लेख का ज्यादा लोग उल्लेख करते हैं।

अगर आप 1990 या 2000 के दशकों में भी यूनिवर्सिटी में रहे हों तो भी आपपको पता होगा की पाठ्यक्रम में ज़्यादातर चीज़ें पुरुषों की लिखी हुई हैं, पुरुषों के ही काम को पढने के सुझाव भी अध्यापक देते हैं, आपको याद है की कितनी बार किसी प्रोफेसर ने किसी महिला स्कॉलर के काम का उल्लेख किया हो, जब तक की वो ख़ास तौर पर नारीवाद पर न हो।

इसका गहरा असर होता है। किसी के काम का उल्लेख एक बड़ा हथियार बन गया है जिस के ज़रिये काम को आँका जाता है। अगर आपके काम का उल्लेख कम जगहों पर हुआ यानी आपके काम का प्रभाव कम है, जिसका सीधा असर नौकरी या तरक्की के मौकों पर पड़ता है। एक स्टडी के मुतबिक पुरुषों के लेख का औसत उल्लेख २५ फीसदी है और जो काम महिलाओं का है उसका २० फीसदी। पहली नज़र में ऐसा लगता है की ये बड़ा फर्क नहीं है लेकिन सामाजिक विज्ञानं जैसे विषयों में में किसी काम का उल्लेख शायद साल में एक बार होता है इसलिए इस छोटे अंतर का भी बड़ा असर होता है। इस अध्यन के मुताबिक ये स्थिति तब है जब इन तमाम बातों का ध्यान रखा गया है की प्रकाशन की उम्र क्या है, क्या लेखक टॉप अनुसंधान स्कूल से आये हैं, अध्यन का विषय क्या है, प्रकाशन की जगह का स्तर क्या है, रिसर्च में क्या तरीका अपनाया गया और लेखक का स्थाई पोस्ट।

२०१३ में मंकी केज जेंडर गैप सिम्पोजियम में इंटरनेशनल स्टडीज एसोसिएशन के प्रेसिडेंट, जाने माने विद्वान डॉ डेविड लेक को जेंडर गैप पर बोलने को आमंत्रित किया गया। टॉपिक था जेंडर गैप सिम्पोजियम। उन्होंने इस अभिवादन की शुरुआत अपने तजुर्बे से की। जब उन्हें अपना साइटेशन बदलने को कहा गया था क्यूंकि उन्हों ने जिन किताबों का रेफरेंस इस्तेमाल किया था उसमें बड़ा जेंडर गैप था। उन्हों ने जिस साहित्य का हवाला दिया था उसका दायरा और बढाया और उसके बाद उनके शोध का स्तर और बेहतर हुआ, क्युंकी इसमें और समुदाय जुड़े और तर्क मज़बूत हुए। सवाल है कि ऐसा क्यूँ है कि शिक्षा के क्षेत्र में इतना भेद भाव है। जैसा प्रोफेसर लेक कहते हैं कि एक विषय पर जितने लेख छपते हैं, जितनी किताबें आती हैं उन सबको पढना मुश्किल है, अगर वो आपके अपने रिसर्च से जुडी हैं तो भी मुश्किल है। वो कहते हैं की ख़ास तौर पर वो ऐसे लोगों का ही काम पढ़ना पसंद करते हैं जिन्हें वो व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं या जो उनके परिचित हैं। प्रोफेसर लेक अब मानते हैं की वो खुद सालों तक काम के उल्लेख के मामले में फर्क करने के दोषी हैं। काम का उल्लेख अपने आप में मायने नहीं रखता, ज्यदा मायने ये रखता है कि उसका कब और किसने उल्लेख किया। इस से किसीके भी लोकप्रियता पर फर्क पड़ता है।

प्रोफेसर ब्लेक कहते हैं कि जिस तरह का भेद भाव आज है ख़ास तौर पर राजनीति विज्ञानं में वो शायद निजी संबंधों में लिंग के प्रभाव की वजह से हैं। ये असर इंटरनेशनल रिलेशंस जैसे विषयों में ज्यादा हैं क्यूंकि इस क्षेत्र में पुरुषों का दबदबा है। ठीक इसी तरह सुरक्षा से जुड़े अध्यन के क्षेत्र में भी पुरुषों का दबदबा है। ये फर्क ग़ैर पश्चिमी समाज में और भी ज्यादा है। जैसे एशिया में विकासशील देशों में औरतों के लिए ये और भी ऊंची चढ़ाई है.. एशिया में, जिसमें भारत भी शामिल है महिलायों से सुरक्षा के क्षेत्र में स्वास्थ, अर्थव्यवस्था, कारोबार पर फोकस करने को कहा जाता है, अन्तराष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे जैसे सेना, स्पेस या परमाणु सुरक्षा के विषय पर नहीं और ये अमेरिका में भी सच है।

भारत में अंतर्राष्ट्रीय राजनीती और सिक्यूरिटी स्टडीज में महिलाएं बहुत कम संख्या में हैं। एकेडेमिया या थिंक टैंक के स्तर पर भी सिर्फ पुरुषों का पैनल होता है.. आल मेल पैनल या Manel। सेमिनार या अन्तराष्ट्रीय मामलों पर परिचर्चा में भी ज़्यादातर सिर्फ पुरुषों का पैनल होता है। हालाँकि अब नौजवान महिलाओं के इस क्षेत्र में आने से हालत कुछ बदल तो रहे हैं लेकिन ये भी दिल्ली तक सीमित है। जैसे जैसे इंताराष्ट्रीय सिक्यूरिटी में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी, जो अभी बहुत कम है, उम्मीद की जा सकती है की ये हालात बदलेंगे।

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