Published on Oct 10, 2018 Updated 6 Days ago

आजादी के बाद, जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली नई सरकार ने मौलाना हुसैन अहमद मदनी को कई तरह के सम्मान देने का प्रयास किया जैसे राज्यसभा नामांकन, पद्म विभूषण आदि, मगर मदनी ने बहुत ही विनम्रता से इन सबको इंकार कर दिया और देवबंद मदरसे में पढ़ाना शुरू कर दिया।

मौलाना मदनी जैसे विद्वान् आज क्यों हैं जरूरी?

ऐसे समय में जब आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट इन सीरिया) के लड़ाके और नेता ईराक और सीरिया से बाहर निकल कर दक्षिण पूर्व एशिया से लेकर अफ्रीका से कैरीबियन तक पूरे संसार में फ़ैल रहे हैं, ऐसे में दुनिया में दूसरी सबसे अधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले देश भारत में कट्टर व खूंखार आईएसआईएस की उपस्थिति और प्रभाव न के बराबर है। भारतीय द्वारा आईएसआईएस के नाम पर होने वाली गतिविधियों पर नज़र रखने और अध्ययन करने के लिए बनाया गया ओआरएफ का आईएस ट्रैकर प्रोजेक्ट, इस बात को बताता है कि आईएसआईएस के नाम पर भ्रमित होने वाले भारतीय मुसलमानों की संख्या हालांकि बहुत कम है, मगर फिर भी उन मुसलमानों के सामने इस बात का खतरा बहुत है कि कहीं वे धर्म के नाम पर हिंसक और चरम विचारधारा का शिकार न हो जाएं। जबकि इसके विपरीत आईएसआईएस में अन्य विदेशी देशों से कई लड़ाके जुड़ रहे हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसियों व सीआईए की रिपोर्ट के अनुसार, आईएसआईएस के लिए इस समय 30,000 से अधिक विदेशी लड़ाके लड़ रहे हैं, जिनमें से 3400 पश्चिमी यूरोपीय देशों से हैं। जर्मनी से ही अकेले लगभग 950 से अधिक लोग आईएसआईएस के साथ जुड़ चुके हैं।

मुख्यधारा की मीडिया की चमक धमक से दूर भारत में हर रोज़ ही एक वैचारिक युद्ध पीएफआई (पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) जैसे कट्टर संगठनों के बीच लड़ा जा रहा है, जो समाज सेवा की आड़ में कट्टर मजहबी, देश विरोधी गतिविधियों के साथ जुड़े हुए हैं। पीएफआई के कट्टर विचारों और हिंसक गतिविधियों को कई मुस्लिम संगठनों जैसे जमीयत ए उलेमा (हिन्द) के विरोध का सामना करना पड़ा है, जो भारत की विविधता और एकता के लिए हमेशा आवाज़ उठाती है। इस्लाम पर भरोसा करने वाले जमायत ए उलेमा जैसे संगठनों की मजबूत और सैद्धांतिक नींव विखंडनकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ एक बाँध का काम करती हैं। राष्ट्रवाद की वकालत करने वाली और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की खिलाफत करने वाले जमायत के सार्वजनिक जीवन में सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। इसने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था और यह वर्ष 2001 से ही अपने इस्लामिक मदरसे दार-उल-उलूम देवबंद के माध्यम से आतंकवाद को गैर इस्लामिक बता रही है।

कई विद्वानों और शिक्षाविदों ने भारत में इस्लाम को उदार बनाने में जमायत के योगदान की सराहना की है। इसे भाग्य की विडंबना कह लें कि कुछ तत्व और व्यक्ति देवबंदी विचारों को चरमपंथ की नींव डालने वाला कहते हैं।

जमायत को उसका देशप्रेम और राष्ट्रवाद अपने संस्थापक मौलाना हुसैन मदनी (1878-1957) से प्राप्त हुआ है, जो खुद भी भारत के महान सपूत और ख्यातिप्राप्त विद्वान थे, जिन्होंनें देश के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था और जिन्हें आठ सालों तक देश और विदेश में जेल जाना पड़ा था। मौलाना मदनी को शेख उल अरब वल आजम (अरबों और गैर अरबों का शेख) की उपाधि दी गयी थी। आजादी से पहले की उनकी लोकप्रिय टिप्पणी है “सभी को मिलजुलकर भारत में ऐसी सरकार बनाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी आदि सभी हों। इस्लाम में इसी तरह की आज़ादी की बात की गयी है।”

मौलाना मदनी ने एक समग्र राष्ट्रवाद और अंग्रेजों के खिलाफ सभी धर्मों के संयुक्त संघर्ष की वकालत की थी और इसीके साथ उन्होंने कुरआन और हदीस (पैगम्बर मुहम्मद साहब की शिक्षाओं) के आधार पर समुदायों के बीच एकता और सहयोग को भी उचित ठहराया था। एक समय में जब धार्मिक विचार हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे दो चरम पंथों में बंटे थे तो मौलाना मदनी ने “क्षेत्रीय राष्ट्रवाद की वकालत की थी” और कहा था कि एक राष्ट्र में जरूरी नहीं है कि एक ही धर्म और संस्कृति हो।” मदनी और उस युग के मुस्लिम को पीटर हार्डी के द्वारा उस बदलाव के रूप में बताया गया जो उलेमा इस्लामिक समुदाय की एकजुटता की प्रवृत्ति के प्रदर्शित कर रहे थे।

1930 से 1940 के धार्मिक रूप से कठिन वर्षों के दौरान मौलाना मदनी ने बार बार यह लिखा, तर्क किया और इस बात के लिए अभियान चलाया कि मुस्लिम एक बहु-धर्मीय, बहु-सांस्कृतिक, बहुलतावादी समाज में एक चौकस मुस्लिम बनकर रह सकते हैं, जहां पर वे एक स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष भारत के एक पूर्ण नागरिक हो सकते हैं।

मौलाना मदनी ने पाकिस्तान के निर्माण और दो राष्ट्र सिद्धांत के तर्क का विरोध किया था। उन्होंने तर्क दिया था कि भारत में इस्लाम मानव इतिहास की शुरुआत से ही है और यह कि भारत की मिट्टी में सदियों से संतों, फकीरों का आना रहा है और भारत ही “भारतीय मुसलमानों” की इकलौती जगह है। अपने विचारों में मौलाना हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही चरमपंथियों से बराबर रूप से लड़ रहे थे।

मदनी की राजनीतिक विचारधारा का केन्द्रीय विषय तय “मुतादा कौमियत” अर्थात एक ही देश के अन्दर हिन्दू और मुसलमानों का एक साथ मिलजुलकर रहना जिसमें एक दूसरे के मामलों में किसी भी तरह की दखलंदाजी न हो और एक दूसरे की परम्पराओं और अधिकारों के प्रति समान आदर हो। टोरंटो विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन विभाग में 1995 में “मौलान हुसैन मदनी और जमायत ए उलेमा (1920 से 1957) और भारत में इस्लाम और मुस्लिमों की स्थिति में अपनी डॉक्टरेट पूरी करने वाले रिजवान मलिक का कहना है मुतादा कौमियत को एक पूर्ण राष्ट्रवाद के रूप में भी कहा जा सकता है।”

मदनी की द्वि-राष्ट्रवाद सिद्धांत की आलोचना उनकी इस धारणा पर आधारित थी कि मुस्लिमों ने गावं (राष्ट्र) का निर्माण गैर मुस्लिम भारतीयों से अलग नहीं किया। उन्होंने कहा कि कुरआन और मोहम्मद साहब की शिक्षाओं में गाँव एक गैर-धार्मिक शब्द है। भारतीय मुस्लिम पूरी दुनिया में मुस्लिम उम्माह का हिस्सा हैं और उन्हें मुस्लिम राष्ट्रीयता पर आधारित एक क्षेत्र में ही सीमित नहीं किया जा सकता।

इस प्रक्रिया में, मौलाना मदनी की बहस भी कई बार शायर अल्लामा मौलाना इकबाल के साथ इस बात पर हुई कि क्या एक देश की पहचान उसकी भूमि या धर्म पर निर्भर है या नहीं।

यही वह समय था जब पाकिस्तान के लिए जिन्ना की मांग और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत मुस्लिमों के वर्ग में बहुत ही तेजी से लोकप्रिय हो रही थी। मदनी ने दिसंबर 1937 में दिल्ली में एक राजनीतिक बैठक में कहा “इस समय कौमीन (देश) औतन (वतन का बहुवचन) (मातृभूमि) पर आधारित है, धर्म पर नहीं।” उन्होंने कहा कि जब आप देश से बाहर जाते हैं तो आपसे कोई नहीं पूछता कि आप हिन्दू है, मुस्लिम हैं, सिख हैं या पारसी। बल्कि आपको सब एक हिन्दुस्तानी के रूप में देखते हैं। उन्होंने कहा, सभी भारतीय एक औपनिवेशिक शासन के कारण एक डोर में बंधे हुए हैं। अगले ही दिन उर्दू अखबार अल-अमन और एहसान (जल्द ही कई और) ने लिखा कि मदनी के अनुसार देश नहीं बल्कि मिलत (धार्मिक समुदाय से जुड़ा एक शब्द) क्षेत्र पर आधारित है। शायर इकबाल एक दार्शनिक रूप से मिलत और कौम के बीच अंतर को खत्म करने वाले पहले इंसान थे। जब इकबाल ने अर्माघन-ए-हिजाज़ में हुसैन अहमद नामक कविता लिखी, और कहा:

हनूज़ नदंद रुमूज़ ए दीन, वारंज़ा देवबंद हुसैन अहमद! एन छे बू-अल-अजबी सरोद बार सर ए-मिंबर के मिलत अज वतन अस्त्शे बेखबर जा मकम ऐ मुहम्मद अरबी अस्त (अर्थात अजामाती (गैर अरब) हमारे मज़हब की मुख्य बातों को नहीं जानते हैं; नहीं तो देवबंद के हुसैन अहमद! यह क्या बेवकूफी है? एक मंच से एक ऐसा बेवकूफी वाला गाना! कि एक देश और मातृभूमि हो सकता है! अरब के पैगम्बर से अलग हटकर यह कैसी बात करता है!”

मदनी ने इकबाल को जबाव दिया। उन्होंने मुतादा कौमियत को धार्मिक आधार पर ही सही साबित किया अर्थात पैगम्बर मुहम्मद के मदीना वासियों के साथ के व्यवहार के साथ। पैगम्बर ने सभी मदीना वासियों को फिर चाहे वह मुस्लिम हों या गैर मुस्लिम एक ही समुदाय का ठहराया था। मदनी ने भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए हिंदूओं के साथ मिलकर मुस्लिमों की लड़ाई को जायज़ ठहराया।

इकबाल को अंत में मदनी की इस बात को स्वीकार करना ही पड़ा था कि एक कौम में न केवल उसके अनुयायी बल्कि गैर अनुयायी भी शामिल होते हैं। मदनी ने कहा कि पैगम्बर मुहम्मद साहब ने अपने प्रियजनों जैसे अबू-लाहब को भी दूसरे धर्म को अस्वीकार करने पर अस्वीकार कर दिया था। संक्षेप में पैगम्बर अरब के देशप्रेमी न होकर एक साथ रहने वाले धर्मों के नेता थे।

मदनी इस बारे में पूरी तरह से स्पष्ट थे कि इस्लामिक सिद्धांतों में यह खुलकर लिखा हुआ है कि एक बड़े दुश्मन को हराने के लिए मुस्लिमों को वतनियत (राष्ट्रवाद), नसल (जाति), रंग या जुबान के आधार पर एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए।

सामुदायिक एकता के सन्दर्भ में, मदनी कुरआन की एक सुरा –ए-इत्तेसाल भी अक्सर बताते है, जिसमें कहा गया है कि “तैयार रहें क्योंकि कई घोड़े और सेना इस्लाम के खिलाफ आ रहे हैं, जिससे आप उनमें अल्लाह और अपनी शक्ति का डर डाल सकें।” मदनी इस सुरा को और विस्तारित करते हुए कहते हैं “भारत के मुसलमानों के लिए एकता बहुत जरूरी है क्योंकि हिन्दू और मुस्लिमों के बीच एकता ही हमारे दुश्मन को हरा सकती है; हम केवल इसीके माध्यम से उनके दिल में अपना डर भर सकते हैं। यह एकता हमारी जरूरत है।”

 आज़ाद भारत में, मदनी सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरतावाद को रोकने के लिए एक केंद्रीय कानून चाहते थे। दूसरी ओर वह मुस्लिमों को सलाह देते थे कि कई और भाषाओं में साहित्य लिखें जिससे पूरी मानवता में कल्याण का संदेश जा सके। वह अक्सर यह दोहराते थे कि कैसे पैगंबर ने खुद को मानव जाति के लिए संबोधित किया था, न कि अकेले मुसलमानों के लिए। उन्होंने पाठ्यपुस्तकों में सुधार करने की आवश्यकता पर जोर दिया, जिसमें सभी संस्कृतियों और सभी धर्मों के जीवित आचरण का विवरण शामिल हो न कि मौजूदा पाठ्यपुस्तकों के जैसे केवल एक ही समुदाय का विवरण शामिल हो।

मदनी सभी चुनाव प्रक्रिया में लोकतांत्रिक भागीदारी के हिमायती थे। उन्होंने कहा: “भारत के स्वतंत्र गणराज्य में, चुनाव सरकार के गठन का निर्णायक शब्द है। मुसलमानों ने इस निर्णय के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मुस्लिमों का यह दायित्व है कि वह अपना महत्व समझें और राष्ट्रीय कल्याण के लिए प्रबुद्ध, देशभक्त और जीवित होने का प्रमाण दें।”

मौलाना हुसैन अहमद मदनी की ज़िन्दगी आज तक भारत के मुस्लिमों के जीवन को कहीं भीतर तक प्रभावित करती हुई आई है। देश के विभाजन के दौरान, मदनी और कई अन्य मुस्लिम धार्मिक नेताओं, विभिन्न संप्रदायों और क्रमों से संबंधित सूफियों ने लाखों मुस्लिमों को भारत में रहने पर रोक दिया। पंजाब के साथ सीमा से लगे कई जिलों में मुस्लिम आबादी काफी थी। मदनी और उनके सहयोगी जमुना नदी के तट पर अड़ कर बैठ गए थे जिससे मुस्लिम भारत छोड़कर न जा सकें।

आजादी के बाद, जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली नई सरकार ने मौलाना मदनी को कई तरह के सम्मान देने का प्रयास किया जैसे राज्यसभा नामांकन, पद्म विभूषण आदि, मगर मदनी ने बहुत ही विनम्रता से इन सबको इंकार कर दिया और देवबंद मदरसे में पढ़ाना शुरू कर दिया। 1957 में उनकी मृत्यु के समय, मौलाना मदनी के पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेट कर देश का सर्वोच्च सम्मान दिया गया और उनकी अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री नेहरू समेत उनके मंत्रिमंडल के कई सहयोगी भी मौजूद थे। उन्हें सर्वोच्च सम्मान के साथ सुपुर्दे ख़ाक किया गया।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.