Author : Ashok Sajjanhar

Published on Jan 13, 2017 Updated 21 Days ago
रूस-चीन-पाकिस्तान की तिकड़ी पर क्या करें?

प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रपति शी, राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री शरीफ।

Source: YouTube

रूस, चीन और पाकिस्तान के विदेश सचिवों ने 27 दिसंबर 2016 को मास्को में अपनी बैठक में तय किया कि वे अफगानिस्तान में तालिबान के साथ शांति कायम करने के लिए ‘नरम रवैया’ अपनाएंगे, जिसमें कुछ चुनिंदा तालिबान नेताओं के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को हटाने जैसे कदम भी शामिल होंगे।

अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) के बढ़ते दखल से घबराया रूस अब तालिबान के साथ सीधे संपर्क बनाने की कोशिश कर रहा है और यह फैसला इसी प्रयास के बीच आया है।

रूस के विदेश मंत्रालय की ओर से 27 दिसंबर 2016 को जारी बयान में कहा गया है, “रूस और चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के तौर पर अपने नरम रवैये को दुहराया है जिसके तहत कुछ खास व्यक्तियों को प्रतिबंधित लोगों की सूची से बाहर किए जाने की संभावना को तलाशा जाना है। यह काबुल और तालिबान आंदोलन के बीच एक शांतिपूर्ण बातचीत को बढ़ावा देने की कोशिशों के तहत किया जा रहा है।”

भारत सहित अधिकांश देश लंबे समय से मानते आ रहे हैं कि तालिबान पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी संगठन है और साथ ही ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ तालिबान की बात करना बिल्कुल नामुमकिन है और इससे क्षेत्र के स्थायित्व को खतरा पैदा हो सकता है।

तालिबान पर इस रुख का रूस ने ऐतिहासिक रूप से समर्थन किया है। तालिबान ऐसा संगठन है जो 1980 के दशक के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ संघर्ष की ताकत के रूप में सक्रिय मुजाहिदीन से पैदा हुआ है। भारत और रूस ने 1990 के दशक में उत्तरी अफगानिस्तान में तालिबान का मुकाबला करने के लिए नार्दर्न अलायंस को खड़ा करने में साथ मिल कर काम भी किया है।

पिछले महीने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी ने जिस तरह संयुक्त राष्ट्र से अनुरोध किया था कि तालिबान के नए नेता को प्रतिबंधित सूची में शामिल किया जाए, उससे पाकिस्तान की वजह से ठप पड़ गई शांति प्रक्रिया को ले कर अफगानिस्तान की झुंझलाहट साफ दिखाई पड़ती है। मास्को में तीनों देशों के बीच हुई चर्चा पर प्रतिक्रिया देते हुए अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि अगर इरादे नेक भी हों तो भी इस चर्चा से अफगानिस्तान को दूर रखना ऐसी बैठकों के इरादे और मकसद को ले कर गंभीर सवाल खड़े करता है।

कुछ तालिबानी नेताओं को प्रतिबंधित सूची से बाहर कर शांति वार्ता शुरू करने की तीन देशों की अपील को अफगानिस्तान सरकार ने 29 दिसंबर को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि तालिबान नेताओं को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची से बाहर करने के बारे में कोई भी फैसला सिर्फ अफगानिस्तान के लोग ही कर सकते हैं। इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि तीनों देशों की ओर से अफगानिस्तान को बातचीत में शामिल किए बिना तालिबान के साथ किसी तरह का सामंजस्य कायम कर लेने की कोशिशों से अफगानिस्तान नाराज है। मास्को वार्ता के बाद यह चर्चा की गई थी कि आगे की बातचीत में ईरान को शामिल किया जाएगा। रियायत के तौर पर इस तिकड़ी ने कहा कि बातचीत के भविष्य के दौर में अफगानिस्तान को भी शामिल किया जाएगा। इस पर अफगानिस्तान के गृह मंत्रालय ने कहा, अफगान लोग ही इस बारे में तय कर सकते हैं और करेंगे ‘अगर तालिबान शांति प्रस्ताव को स्वीकार कर ले और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बंद कर दे’।

चीन, रूस और पाकिस्तान के इस सुझाव को अफगानिस्तान ने नरमी से नहीं लिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस्लामी स्टेट के खिलाफ लड़ाई को मजबूती देने के लिए तालिबान के साथ सामंजस्य बनाना चाहिए। अफगानिस्तानी अधिकारियों ने कहा कि वे “दाएश के साथ लड़ते रहे हैं जो पाकिस्तानी तालिबान के ही पूर्व-सदस्य हैं; उन्होंने सिर्फ अपना नाम बदला है। वे दबाव में हैं। सबसे बड़ा खतरा तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा हैं, यही मूल मुद्दा है। और हम इनमें कोई अंतर नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि कुछ तालिबान बेहतर हैं।” इस मामले पर काबुल का रवैया भारत की लाइन पर ही है जिसके तहत यह मानता रहा है कि पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र से जुड़ा तालिबान अफगानिस्तान के लिए सबसे बड़ा खतरा है। पाकिस्तान के संयोजन में चलने वाली शांति प्रक्रिया को ले कर भारत भी चिंतित है।

यह पहला मौका है जब भारत के ‘बेहद पुराने मित्र’ रूस ने पाकिस्तान और चीन के साथ मिल कर साझा तौर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से कहा है कि वह कुछ तालिबान नेताओं के खिलाफ प्रतिबंध हटाए। इससे अफगानिस्तान के मामले पर इन तीनों देशों की बढ़ती साझेदारी का पता चलता है। भारत के नीति निर्माताओं, विश्लेषकों और टिप्पणीकारों के लिए यह फैसला एक झटके के तौर पर नहीं भी कहें तो एक चौंका देने वाली असुखद घटना के तौर पर जरूर आया है। तीनों देशों की करीबी बढ़ रही है यह तो कुछ समय से साफ दिख रहा था लेकिन रूस पाकिस्तान से पैदा होने वाले आतंकवाद और अफगानिस्तान में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका पर भारत के गहरे एतराज को अचानक से झटक कर खड़ा हो जाएगा यह बहुत गहरी चोट के रूप में सामने आया है। उधर, रूस को ले कर यह भी खबर आई है कि वह चीन-पाकिस्तान एकनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) का हिस्सा बनाने को तैयार हो गया है। यह भी भारत के रवैये के पूरी तरह खिलाफ है क्योंकि यह कॉरिडोर पाक कब्जे वाले कश्मीर से हो कर गुजरता है, जिस पर भारत का अधिकार है। रूस इस बात के लिए भी सहमत हो गया है कि यूरेशियन इकनॉमिक यूनियन (ईईयू) का सीपीईसी में विलय कर लिया जाए। जबकि इसे रूस ने ही 2010 में मध्य एशिया में चीन के बढ़ते दखल को रोकने के लिए खड़ा किया था।

पहले यह निर्विवाद तथ्य के रूप में देखा जा रहा था कि भारत जिस तरह अमेरिका के साथ अपनी करीबी बढ़ा रहा है, उससे चिढ़ कर उसके जवाब में ही रूस पाकिस्तान के नजदीक जा रहा है। हालांकि रूसी अधिकारियों की ओर से पिछले कुछ महीनों के दौरान यह बहुत स्पष्ट तौर पर वरिष्ठ कूटनीतिक और आधिकारिक स्तर पर कह दिया गया है कि भारत के अमेरिका के साथ बढ़ते रिश्तों को ले कर रूस को कोई शिकायत नहीं है। ऐसा सबसे ताजा स्पष्टीकरण रूस के अफगानिस्तानी राजदूत की ओर से चार दिसंबर, 2016 को अमृतसर में हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन के दौरान दिया गया। इसलिए भारत को भी रूस-पाकिस्तान की बढ़ती साझेदारी को ले कर शिकायत करने का कोई हक नहीं है। इस मुद्दे पर भारत की ओर से दूसरे मौके पर दूसरी जगह पर काफी विस्तार से और काफी जोर दे कर जवाब दिया जा चुका है इसलिए इस लेख में इस बारे में ज्यादा विस्तार से चर्चा करने से कोई मकसद हल नहीं होगा।

रूस की ओर से यह गंभीर और अहम कदम सिर्फ ‘भारत को झटक देने’ का मामला नहीं है जैसा कि कुछ प्रख्यात विद्वान हमें बता रहे हैं। यह रूस के रवैये में आया एक रणनीतिक बदलाव है और भारत अगर इस हकीकत को स्वीकार नहीं करता है तो यह इसका खुद से ही धोखा होगा। अब हमें यह देखना चाहिए कि हमारे अपने हितों की रक्षा के लिए हमें क्या कदम उठाने हैं। ठोस दोतरफा मामलों के लिहाज से रूस के पाकिस्तान के साथ सहयोग या हथियारों की सप्लाई अथवा साझा सैन्य अभ्यास के आयोजन से भारत की रक्षा या दीर्घकालिक हितों पर कोई गंभीर असर या प्रभाव नहीं पड़ेगा।

जहां तक पाकिस्तान-चीन सांठ-गांठ की बात है, यह तो वर्ष 1963 से ही अस्तित्व में है। हालांकि यह बात और है कि हाल के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की शुरूआत और जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की ओर से आतंकवादी का दर्जा दिए जाने को पहले ‘तकनीकी स्थगन’ और फिर 30 दिसंबर 2016 को इसके खिलाफ वीटो और भारत के न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में प्रवेश को रोकने के रूप में इसके रंग-रूप में काफी बदलाव आ गया है। इसका मतलब है कि चीन बेशर्मी के साथ पाकिस्तान की बेहद घिनौनी गतिविधियों में भी सहयोग करने पर आमादा है और ऐसा करते हुए यह भी नहीं सोच रहा कि इससे आतंकवाद को ले कर इसके दोहरे रवैये के बारे में क्या धारणा बनेगी। भारत को इस बढ़ती एकजुटता को ध्यान में रखना होगा और इन पनप रहे रिश्तों पर गहराई से नजर रखनी होगी ताकि इसके हितों पर आंच नहीं आए।

इसका असली असर होगा भारत-रूस के सामरिक रिश्तों पर और यह अपनी मजबूत बुनियाद और टिकाऊपन खो देगा। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को बेहतर करने में चीन की जरूरत को देखते हुए रूस अब चीन को इस बात की पूरी छूट दे रहा है कि वह उसे अपने हिसाब से चला सके। ऐसा करते समय वह इस बात को भी भूल रहा है कि भारत के साथ उसके लंबे और मजबूत रिश्तों पर क्या असर होगा। पहले भी यह कहा जा चुका है कि रूस का यह कदम अदूरदर्शी और नुकसानदेह होगा। यह अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया के लिहाज से पाकिस्तान को नियामक की भूमिका में नहीं भी तो केंद्रीय भूमिका में जरूर ला देगा। विडंबना यह है कि भारत और अफगानिस्तान दोनों ही साफ तौर पर कह चुके हैं कि पाकिस्तान समस्या का हिस्सा और शांतिपूर्ण समाधान की राह में रुकावट है ना कि इसका समाधान।

भारत की जोरदार चिंता के बावजूद पाकिस्तान के साथ रूस का सहयोग लगातार मजबूत और गहरा होता जा रहा है। इस लिहाज से ताजा झटका दिया है अफगानिस्तान के लिए रूस के विशेष दूत ने 27 दिसंबर को होने वाली बैठक से पहले। उन्होंने चार दिसंबर 2016 को अमृतसर में हर्ट ऑफ एशिया- इंस्ताबुल प्रोसेस बैठक में कहा कि भारत और अफगानिस्तान की ओर से लगाए जा रहे ये आरोप निराधार हैं कि पाकिस्तान आतंकवादियों को सुरक्षित ठिकाना मुहैया करवा रहा है और सहयोग कर रहा है। इस बेवजह के बयान से पहले रूस ने पाकिस्तान को सैन्य आपूर्ति की और पाकिस्तानी सेना और इसकी जासूसी एजेंसी आईएसआई के समर्थन और सहयोग से चलने वाले आतंकवादियों की ओर से किए गए ऊरी हमले के महज दस दिन बाद उसके साथ साझा सैन्य अभ्यास किया। इस सब के ऊपर से रूस ने सीपीईसी में भाग लिया है। कहा जा रहा है कि ईईयू को सीपीईसी में समाहित हो जाना है, अगर ऐसा होता है तो भारत का ईईयू के साथ सहयोग नामुमकिन हो जाएगा, जबकि इसके लिए पिछले एक साल से ज्यादा से काम चल रहा है।

भारत को अपनी नीतियां बनाते समय इन तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। रूस के साथ खास तौर पर तेल और गैस, परमाणु ऊर्जा, रक्षा आदि क्षेत्रों में साझेदारी को तो तक हो सके मजबूत करने के लिए बातचीत जारी रखनी ही चाहिए, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि रूस ने खुद को चीन और पाकिस्तान के साथ इस कदर जोड़ लेने का फैसला कर लिया है, जहां से इसका वापस आना मुश्किल होगा। ऐसा करते हुए इसने भारत की रक्षा चिंताओं और संवेदनशीलता का भी ध्यान नहीं रखा है। भारत के ‘बेहद खास सामरिक साझेदार’ रूस को खुद इस बात का आकलन करना होगा कि इसके कदमों से भारत-रूस के रिश्तों पर और खुद रूस पर भविष्य में क्या असर होगा।

रूस निश्चित तौर पर इस बात से वाकिफ है कि भारत ने रूस के अहम हितों और चिंताओं का हमेशा ध्यान रखा है और सहयोग किया है, चाहे वह युक्रेन और क्रीमिया हो या फिर सीरिया, ओसेतिया और अबकाजिया हो। भारत ने हमेशा रूस के कदमों को ले कर समझ दिखाई है और रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की कोशिशों में शामिल होने से इंकार कर दिया है। ऐसे में भारत भी यह उम्मीद करेगा कि रूस इसके अहम हित का ध्यान रखे और इसे ले कर सजग रहे। खास तौर पर पाकिस्तान से पैदा होने वाले आतंकवाद को ले कर तो यह उम्मीद रखी ही जा सकती है। हालांकि यह होता नहीं दिख रहा।

भारत को अफगानिस्तान और ईरान तथा मध्य एशिया के देशों के साथ अपने सहयोग और संबंधों को खासा मजबूत करना चाहिए। इन सभी देशों को सीपीईसी में शरीक होने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इनको चीन के साथ ही रूस की ओर से भी काफी प्रलोभन दिए जाएंगे और साथ ही आर्थिक व राजनीतिक दबाव भी काम करेंगे। भारत को मध्य एशिया के पांच देशों की प्रधानमंत्री मोदी की बेहद कामयाब यात्रा से बने माहौल का लाभ उठाना चाहिए। भारत को ईरान के सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण चाबहार पोर्ट को ले कर भी बेहद सक्रियता दिखानी होगी, जिस को ले कर भारत के प्रधानमंत्री और ईरान के राष्ट्रपति के बीच मई, 2016 में समझौते पर दस्तखत हुए हैं। इंटरनेशनल नार्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर को भी सही दिशा में ले जाना होगा ताकि इसको ले कर तेजी से प्रगति हो सके और अब तक हुई देरी की भरपाई हो सके। इन परियोजनाओं को ले कर होने वाली प्रगति की तुलना सीपीईसी और ग्वादर सीपोर्ट के बेहद तेजी से हो रहे निर्माण के साथ की जाएगी। भारत और इसके साझेदार बस इंतजार करते नहीं दिखने चाहिएं।

भारत को नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों पर खास ध्यान देना होगा जहां चीन और पाकिस्तान दोनों ही अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करेंगे ताकि भारत को रोका जा सके।

भारत को शंघाई कॉपरेशन ऑर्गनाइजेशन की सदस्यता को प्राथमिकता देनी चाहिए। 2017 के सम्मेलन में यह मुमकिन होने की उम्मीद है। यह भारतीय प्रधानमंत्री को मध्य एशियाई देशों के नेताओं के साथ मुलाकात का महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध करवाएगा जहां वे दोतरफा साझेदारी और सामरिक सहयोग को बढ़ाने की चर्चा कर सकते हैं।

भारत को अपने ढांचागत सुविधाओं और आर्थिक विकास दर को बढ़ा कर तथा गरीबी को दूर कर अपनी राष्ट्रीय शक्ति को भी बढ़ाने पर भी जोर देना होगा। भारत को रूस के साथ जहां तक मुमकिन हो अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश करते हुए जापान, अमेरिका जैसे अन्य सामरिक साझेदारों के साथ भी अपने रिश्तों को और मजबूती देने पर काम करना होगा। जापान के साथ हमारे रिश्ते धीरे-धीरे सुधर रहे हैं। आने वाले वर्षों में इस पर गंभीर और नियमित ध्यान देने की जरूरत है। डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन के दौरान अमेरिका के साथ रिश्ते और प्रगाढ़ होने की उम्मीद है। हालांकि अमेरिका के चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ बदलते रिश्तों का भारत पर काफी अहम प्रभाव पड़ सकता है। भारत को इन पर करीबी नजर रखनी होगी और उसी अनुरूप कदम उठाने होंगे।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.