Author : Sumaiya Shaikh

Published on Aug 19, 2019 Updated 0 Hours ago

चरमपंथ एक स्पेक्ट्रम ग्राफ़ है, जहां बेल कर्व के हॉरिजेंटल एक्सिस पर बड़ी संख्या में ऐसे उग्रवादी होते हैं, जो हिंसा की राह को नहीं चुनते जबकि इसके पिछले सिरे पर छोटी संख्या में हिंसक कट्टरपंथी होते हैं.

न्यूरोसाइंस और आतंकवाद के बीच है गहरा रिश्ता: आतंकियों से लड़ने में मिल सकती है मदद

काउंटरिंग वायलेंट एक्सट्रीमिज्म (सीवीई) यानी हिंसक अतिवाद को रोकने के लिए की नीति-निर्माण की ख़ातिर की जाने वाली रिसर्च में काफी हद तक आतंकवादी संगठनों और उसकी विचारधारा के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं, राजनीतिक और क्षेत्रीय इतिहास, धार्मिक और राजनीतिक सिद्धांतों, सोशल एंथ्रोपोलॉजी (सामाजिक मानवशास्त्र) और साइकोलॉजी यानी मनोविज्ञान पर ध्यान दिया गया है. आमतौर पर सीवीई रिसर्च करने वालों के पास कुछ ख़ास क्षेत्रों में विशेषज्ञता होती है, जिसके आधार पर वे राजनीतिक हिंसा की वजह जानने की कोशिश करते हैं. वॉयलेंट एक्सट्रीमिज्म पर शोध करने वालों के मन में यही सवाल रहता है कि आख़िर र कोई इंसान इस रास्ते पर क्यों बढ़ता है. चरमपंथ एक स्पेक्ट्रम ग्राफ़ है, जहां बेल कर्व के हॉरिजेंटल एक्सिस पर बड़ी संख्या में ऐसे उग्रवादी होते हैं, जो हिंसा की राह को नहीं चुनते. इस एक्सिस के पिछले सिरे पर छोटी संख्या में हिंसक कट्टरपंथी होते हैं. मानव इतिहास में जितने भी घृणित अपराध हुए हैं, उन्हें इन्हीं लोगों ने अंजाम दिया है.

सिर्फ इसी साल की बात करें तो अफ़गानिस्तान, न्यूजीलैंड और श्रीलंका में ऐसी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं. इन घटनाओं के बाद फिर से यह सवाल किया जा रहा है कि कोई चरमपंथी हिंसा की राह पर कैसे बढ़ता है?

सीवीई रिसर्च के जरिये इनकी संख्या घटाने की कोशिश की जा रही है जबकि सुरक्षा उपायों का फोकस इन आतंकवादियों की निगरानी पर है. ये आतंकवादी जिन घटनाओं के पीछे होते हैं, उनमें बड़ी संख्या में मौतें होती हैं. सिर्फ इसी साल की बात करें तो अफ़गानिस्तान, न्यूजीलैंड और श्रीलंका में ऐसी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं. इन घटनाओं के बाद फिर से यह सवाल किया जा रहा है कि कोई चरमपंथी हिंसा की राह पर कैसे बढ़ता है?

हिंसक और गैर-हिंसक चरमपंथी

आतंकवादी विचारधारा के करोड़ों समर्थक हैं. कुछ आंशिक तो कुछ पूरी तरह से उसका समर्थन करते हैं. लेकिन ऐसे उग्रवादियों की संख्या कम है, जो वैचारिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए ख़ुद हिंसक गतिविधियों में शामिल होते हैं. विदेश से जो लोग इस्लामिक स्टेट (आईएस) को ज्वाइन करने आते थे, उनसे एक फॉर्म भरवाया जाता था. इसमें उन्हें बताना होता था कि आत्मघाती हमले के लिए उनके पास कौन से हुनर हैं और क्या वे इसके लिए तैयार हैं. बहुत कम विदेशी आत्मघाती हमलावर बनने के लिए तैयार होते थे. कई ऐसे लोग हैं, जो आतंकवादी बनने के लिए फिट होते हैं. ये उस विचारधारा को मानते हैं, लेकिन कभी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं रहे हैं. दूसरी तरफ, ऐसे लोग भी मिलेंगे, जो इसकी सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक या धार्मिक शर्तों को पूरा नहीं करते, लेकिन वे हिंसक गतिविधियों को अंजाम देते हैं. सोशल साइंस में इस तरह के कई प्रोफाइल का ज़िक्र है. हिंसक और गैर-हिंसक चरमपंथी की इस पहेली को समझने में न्यूरोसाइंस से मदद मिल सकती है, जिसमें बायोलॉजिकल साइकिएट्री का इस्तेमाल होता है. इसमें जेनेटिक्स, एपिजेनेटिक्स, साइकोफार्माकोलॉजी, फंक्शनल ब्रेन इमेजिंग और साइकोलॉजिकल बिहेवियर की मदद ली जाती है. इससे गैर-हिंसक अतिवादी के हिंसा की राह पर बढ़ने के असल कारणों का पता लगाया जा सकता है. हमें यह भी समझना चाहिए कि जहां अतिवादी विचारधारा आतंकवाद में मददगार होती है, वहीं बायोलॉजिकल साइकिएट्री से हमें पता चलता है कि कौन सी चीज किसी उग्र सोच रखने वाले को हिंसक या गैर-हिंसक बनाती है.

हिंसा के पीछे की सोच

न्यूरोसाइंस की मदद से बंदरों और इंसानों में मौखिक या शारीरिक हिंसा, गुस्सा और विद्वेष के अलग-अलग रूप को समझने की कोशिश हुई है. इसे सिर्फ हिंसा तक सीमित नहीं रखा गया. रिसर्च में यह पता लगाने की भी कोशिश हुई कि क्या ख़ास रिवॉर्ड के लिए हिंसा हुई या वह मोटिवेशनल वॉयलेंस थी, जैसा कि आतंकवादियों के मामले में होता है. पहले यह समझते हैं कि हिंसा क्या होती है? अगर शारीरिक आक्रामकता के कारण किसी को शारीरिक नुकसान होता है तो उसे हिंसा कहते हैं. गुस्सा, शारीरिक आक्रामकता से पहले की भावना है. वहीं, विद्वेष ऐसी मानसिक अवस्था है, जिसमें विरोध और संदेह की प्रबल भावना होती है. मिसाल के लिए, श्रीलंका में लिट्टे के खात्मे के बाद ईस्टर पर हुआ हमला वहां हुए सबसे घातक हमलों में से एक था. श्रीलंका इससे पहले तक दक्षिण एशिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल था, जो इस्लामिक हिंसा की विचारधारा से अछूता था. इसलिए श्रीलंका में ईस्टर के दिन ईसाइयों के पवित्र स्थलों पर योजनाबद्ध तरीकों से किए गए बम धमाकों से पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई.

हमें यह भी समझना चाहिए कि जहां अतिवादी विचारधारा आतंकवाद में मददगार होती है, वहीं बायोलॉजिकल साइकिएट्री से हमें पता चलता है कि कौन सी चीज किसी उग्र सोच रखने वाले को हिंसक या गैर-हिंसक बनाती है.

एक तरफ जहां पाकिस्तानी तालिबान की आतंकवादी गतिविधियों के लिए दुनिया भर में आलोचना हुई है, वहीं अफ़गान तालिबान को कुछ लोग राष्ट्रीय ताकत मानते हैं. उनका मानना है कि अफ़गान तालिबान वहां क़ाबिज़ ताक़तों को हटाने की कोशिश कर रहा है. उधर, क्राइस्टचर्च में एक ऑस्ट्रेलियाई शख्स़ ने आतंकवादी वारदात में बड़े पैमाने पर लोगों की हत्याएं कीं और उसे रिकॉर्ड किया. वह पूर्वी यूरोप के वाइट सुपरमैसिस्ट बाल्कन विचारधारा से प्रभावित था.

कानून का सम्मान करने वाले किसी शख़्स के हाथों किसी इंसान की जान चली जाती है तो उसे अपराधबोध, शर्मिंदगी या घुटन महसूस होती है. आतंकवादियों के साथ ऐसा नहीं होता. हिंसक गतिविधि को अंजाम देने से पहले या उसके बाद उनकी जो मानसिक स्थिति होती है, वह उन्हें दूसरों से अलग करती है. आतंकवादी मानते हैं कि वे किसी ऊपरी ताकत से संचालित हो रहे हैं. वे पीड़ितों की मानवीयता को स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्हें अपराधबोध नहीं होता. इससे जुड़ी न्यूरोसाइंस रिसर्च में रिवॉर्ड, संतुष्टि, प्रेरणा, अपराधबोध और भय, इन सबकी पड़ताल की गई है. इसके जरिये यह समझने की कोशिश हुई है कि कोई विचारधारा कैसे जन्म लेती है और किस तरह से उसका प्रसार होता है. इसमें इंसानों और नॉन-ह्यूमन प्राइमेट (गुरिल्ला, चिंपैंजी आदि) के बुनियादी व्यवहार को समझने की कोशिश हुई है. भावुकता की स्थिति में न्यूक्लियस एक्यूमबेन्स (NAc) जैसे दिमाग के ख़ास क्षेत्र में रिवॉर्ड प्रोसेशन से जुड़े डोपामिनर्जिक डी1/डी2 जैसे सेल रिसेप्टर सक्रिय हो जाते हैं. दिमाग के ये क्षेत्र फिजिकल एग्रेशन के साथ किसी चीज की लत की वजह से भी एक्टिव होते हैं. न्यूरोबायोलॉजी में हिंसा और नशीली दवाओं की लत में काफी ओवरलैप का संकेत मिला है.

आतंकवाद की जड़ क्या है?

सीवीई से जुड़े दूसरे विषयों के साथ न्यूरोसाइंस के अध्ययन से सीवीई रिसर्चर्स की कई अनुत्तरित सवालों को लेकर क्या करना चाहिए, इसकी समझ बनी. 9/11 हमलों में आतंकवादियों की टीम का मुखिया मोहम्मद अता, ओसामा बिन लादेन, अयमन मोहम्मद रबी अल-जवाहिरी जैसे पढ़े-लिखे और रईस, आतंकवादी विचारधारा से क्यों जुड़े? हाल ही में श्रीलंका में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के पीछे जिस नेशनल तौहीद जमात (एनटीआई) का हाथ था, उसकी मदद वहां के एक अमीर मसाला व्यापारी के बेटों ने की थी. यह बात दिलचस्प है क्योंकि आमतौर पर आतंकवादी विचारधारा का मकसद समाज के कमजोर वर्ग (एसईएस) को बरगलाना होता है. न्यूरोसाइंस से हमें इस पहेली को सुलझाने में मदद मिलती है. दूसरी तरफ, गरीब तबके से आने वाला हाशिम मोहम्मद जाहरान भाषण देने में माहिर था. वह समाज से कटकर रहता था. वह असंवेदनशील था और दूसरों के सुख-दुख का उसे अहसास नहीं था. इन बातों से लगता है कि वह मनोरोगी था. आत्मघाती हमला करके उसने यह साबित किया कि उसके अंदर आत्महत्या की प्रवृति भी थी. उसकी मानसिक स्थिति किसी सेहतमंद इंसान की तरह नहीं थी. उसकी हरकतें और पिछला रिकॉर्ड उसके मनोरोगी होने का संकेत दे रहे थे, लेकिन इसके बावजूद उसे ‘मानसिक रूप से अस्वस्थ्य’ घोषित नहीं किया गया. संभावित आतंकवादियों की पहचान में न्यूरोसाइंस की अहमियत के लिए सिर्फ यही मिसाल काफी है. न्यूरोसाइंस से पता चला कि दूसरे चरमपंथी सहयोगियों से वह किस तरह से अलग था. उसने सोशल मीडिया पर कई वीडियो पोस्ट किए थे, जिसमें उसने काफ़िरों ख़िलाफ़ हिंसा का आह्वान किया था. सरकारी तंत्र ने इन संकेतों की अनदेखी की. वह समय रहते समझ नहीं सका कि ये सारी बातें उसके आतंकवादी होने का इशारा कर रही थीं.

इसका मतलब यह है कि हिंसा की राह चुनने की वजह सिर्फ गरीबी, अमीरी, शिक्षा या विचारधारा नहीं होती. इसमें कई चीजों की भूमिका होती है. इसलिए आंतकवाद निरोधी नीतियां बनाने के लिए बायोलॉजिकल और इनवायरमेंटल फैक्टर्स का इस्तेमाल करना होगा.

कानून का सम्मान करने वाले किसी शख़्स के हाथों किसी इंसान की जान चली जाती है तो उसे अपराधबोध, शर्मिंदगी या घुटन महसूस होती है. आतंकवादियों के साथ ऐसा नहीं होता.

दिमाग में कहां होता है डर

किसी का चरमपंथी होना इसकी गारंटी नहीं है कि वह हिंसा की राह चुनेगा. कई इस्लामिक आतंकवादियों का झुकाव चरमपंथ की ओर इसलिए हुआ है क्योंकि उन्हें लगता है कि दुनिया भर में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है. यह सोच अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़े ज़्यादातर लोगों में है, भले ही वे मुस्लिम समुदाय से आते हों या किसी और समुदाय से. इसके बावजूद इनमें से एक छोटा वर्ग ही हिंसा की राह अपनाता है. डर और उससे जुड़े तनाव की प्रतिक्रिया दिमाग में बादाम की शक्ल के एक क्षेत्र से जुड़ी है, जिसे अमिगडला कहते हैं. यह सुपरफिशियल कॉर्टिकल लेयर और डीपर लेयर के बीच स्थित होता है, जो दिमाग में इमोशनल प्रोसेसिंग वाला एरिया है. इसे ब्रेन के दूसरे हिस्सों से उकसाने और रोकने वाले दोनों तरह से सिग्नल मिलते हैं. सुपरफिशियल लेयर या कॉर्टेक्स दिमाग का बेहद विकसित हिस्सा होता है, जो भाषा, गणना, चलने-फिरने और सेंसरी प्रोसेसिंग से जुड़ा है. बाद में यह सूचना अमिगडला को प्रोसेसिंग के लिए भेजी जाती है. मिसाल के लिए, जब आप डरावनी फिल्म देखते हैं तो विजुअल कॉर्टेक्स उसका विश्लेषण करता है और संबंधित सूचना को अमिगडला के पास भेजता है, जिससे आपके अंदर भय पैदा होता है. इसका मतलब यह है कि हॉरर फिल्म देखने के दौरान आपके अंदर पैदा होने वाला भय अमिगडला से आता है. वह दिमाग के साथ छल करता है और इसी वजह से आप वास्तविक और छद्म भय में फर्क नहीं कर पाता. चरमपंथी बनने के दौरान अमिगडला की डर संबंधी प्रतिक्रिया चरमपंथी समूह के ‘आउट ग्रुप’ के साथ जुड़ जाती है. ऐसे में जब इस ‘आउट ग्रुप’ के साथ इस तरह के किसी शख़्स को रखा जाता है तो चरमपंथी शख्स ख़ास संदर्भों में हिंसा के लिए तैयार रहते हैं. इसे पावलोनियन कंडीशनिंग कहते हैं. ऐसी स्थिति में इस ‘आउट-ग्रुप’ के बारे में रैडिकल लिटरेचर, प्रोपगेंडा या झूठी सूचनाओं से भय का आधार तैयार होता है. यह डर नस्लीय आधार से जुड़ा हो सकता है, जिसमें एक नस्ल के ख़त्म होने का डर हो. यह किसी नस्ल के प्रभुत्व के खत्म होने से भी जुड़ा हो सकता है. क्राइस्टचर्च में लोगों की गोली मारकर हत्या करने वाला आतंकवादी इसी भय से ग्रस्त था. इसका मतलब यह नहीं है कि जितने भी लोगों में यह भय है, उन सबके दिमाग में तनाव होने पर अमिगडला एक्टिवेट हो जाएगा. इसलिए यह सवाल बना हुआ है कि अमिगडला जैसे दिमाग के हिस्से के लिए कौन सी बातें ट्रिगर साबित होती हैं.

सामान्य इंसानों की तुलना में आतंकवादियों के दिमाग में क्या अलग होता है? गैर-हिंसक उग्रवादियों से उन्हें कौन सी बात अलग करती है? जेनेटिक्स, एपिजेनेटिक्स, हॉर्मोन के साथ कम उम्र और टीन एज का माहौल, जैसे कोई सदमा और पहले मिली युद्ध की ट्रेनिंग के आधार पर किसी के हिंसक व्यवहार का अंदाजा लगाने में मदद मिलती है. अलग-अलग लोगों पर कम उम्र की मुश्किलात का असर अलग-अलग होता है. इसी वजह से कुछ लोग तनावपूर्ण घटना के बाद पोस्ट-टॉमैटिक स्ट्रेस डिस्ऑर्डर (पीटीएसडी) का शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ पर इसका कोई असर नहीं होता. इसी वजह से रैडिकल लिटरेचर पढ़ने के बावजूद कई लोग आतंकवादी नहीं बनते क्योंकि वे मानसिक तौर पर मज़बूत होते हैं.

निष्कर्ष

इस समझ को किसी एक रिसर्च तक सीमित करने से आतंकवादी गतिविधियों को लेकर इंसानी आदतों के बारे में कई लेकिन उलझाने वाले ज़बाब मिलते हैं. जेनेटिक्स का ज़िक्र होते ही आलोचक न्यूरोसाइंस रिसर्च को यूजेनिक्स का ही रुप बताकर ख़ारिज कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करना साइंटिफिक डेटा की अनदेखी करना होगा. वैसे भी यह रिसर्च सिर्फ़ जेनेटिक्स पर आधारित नहीं है. हिंसक चरमपंथ को रोकने में दूसरे सभी क्षेत्रों का आख़िरी सीमा तक दोहन किया जा चुका है. इसलिए यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं है कि सोशियोलॉजी या साइकोलॉजी के साथ न्यूरोसाइंस का इस्तेमाल उस मिसिंग लिंक को जोड़ने के लिए किया जा सकता है, जिसके कारण ऐसी रिसर्च अब तक बहुत सफल नहीं रही है. इससे वैश्विक स्तर पर हिंसक गतिविधियों को रोकने में मदद मिलेगी और आतंकवादी के व्यवहार के पूर्वानुमान में आसानी होगी.

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