अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) की सत्ता पर तालिबान (Taliban) के नियंत्रण के तीन महीने से अधिक का वक्त गुजर चुका है और देश में हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं. तालिबान और इस्लामिक स्टेट खोरासान (आईएस-के) के बीच जारी गतिरोध, भोजन, दवाओं और नकद पैसे सुलभ न होने की वजह से मानवीय संकट और बढ़ गया है. तालिबान अब ताक़त वाली स्थिति में है और उसने दुनिया को दिखाया है कि वह अमेरिका जैसी सैन्य शक्ति को भी हराने की कूवत रखता है और इसके लिए उसे लंबे समय तक टिके रहने का मौका देना ही पर्याप्त हो गया. हालांकि वह अब प्रशासन के मोर्चे पर संघर्ष कर रहा है और साथ ही अफगान लोगों, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपनी क्षमता दिखाने के लिए भी जूझ रहा है. उसके लड़ाके भी यह दिखाने की कोशिश में हैं कि उनके पास एक राष्ट्र का नेतृत्व करने, कानून-व्यवस्था को बनाए रखने और आर्थिक तंत्र प्रदान करने की क्षमता है.
तालिबान सरकार के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौतियां
तालिबान सरकार के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौतियों में से एक आईएस-के से जुड़ी है. अफ़ग़ानिस्तान में 2,000 से 3,000 आईएस-के लड़ाके रहते हैं जिनमें से अधिकांश पूर्वी नांगरहार प्रांत में हैं जहां वे पाकिस्तान में मादक पदार्थों की तस्करी के कुछ प्रमुख मार्गों पर कब्जा करते हैं जो परंपरागत रूप से तालिबान द्वारा नियंत्रित हैं.
आईएस-के पूर्वी तालिबान, अलकायदा, तहरीक-ए-तालिबान, पाकिस्तान और अन्य छोटे जिहादी समूह के लड़ाकों का एक संगठन बना हुआ है जो इस्लामिक स्टेट स्थापित करने के नाम पर अभियान चलाते हैं और तालिबान को उनके ही गढ़ में चुनौती देते हैं. पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों के रूप में आईएस-के अगस्त 2021 में काबुल में तालिबान के सत्ता हथियाने को नाजायज कदम ठहराने के एक अवसर के रूप में देखता है क्योंकि अमेरिका के साथ सहयोग करने के साथ-साथ उसने पाकिस्तान के साथ भी संबंध बनाए हैं. हालांकि तालिबान दशकों से एक विद्रोही समूह रहा है और यह एक विडंबना है कि उसे अब अपनी विद्रोही विरोधी क्षमताओं का प्रदर्शन करना है क्योंकि तालिबान को अप्रभावी शासक के रूप में दिखाने की कोशिश के तहत देश भर में आईएस-के हिंसा बढ़ा रहा है.
यह एक विडंबना है कि उसे अब अपनी विद्रोही विरोधी क्षमताओं का प्रदर्शन करना है क्योंकि तालिबान को अप्रभावी शासक के रूप में दिखाने की कोशिश के तहत देश भर में आईएस-के हिंसा बढ़ा रहा है.
हालांकि तालिबान ने इस समूह के ख़िलाफ अभियानों की गति बढ़ाने के लिए नांगरहार में 1,300 से अधिक लड़ाके भेजे हैं. डूरंड रेखा (पहले भारत और अफ़ग़ानिस्तान लेकिन अब पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की रेखा) के पार आतंकवाद की प्रकृति ऐसी है कि प्रणालीगत हिंसा और देश समर्थित आतंकवाद के इतिहास को देखते हुए इन समूहों की अक्सर उग्रवादी-आपराधिक गठजोड़ के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धताएं बनती है जिनसे उन्हें मदद ही मिलती है.
पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के वफादार संगठन हक्कानी नेटवर्क का ताल्लुक समूह के संस्थापक के बेटे सिराज हक्कानी के साथ है जो अब तालिबान सरकार में गृह मंत्री हैं और वह तालिबान के सहयोगी रहे हैं. हक्कानी ने पहले भी इस्लामिक स्टेट के साथ साझेदारी की है जिनके तहत मार्च 2020 में काबुल में गुरुद्वारे पर हुए नृशंस हमले सहित कई अन्य हमलों को अंजाम देने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करना शामिल है. हालांकि हक्कानी नेटवर्क तालिबान के बेहद करीब है जबकि इस्लामिक स्टेट के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं है. दरअसल इस्लामिक स्टेट की सहायता करने के पीछे हक्कानी का तर्क तालिबान को आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञ और ‘शांति के पैरोकार’ के तौर पर कवर मुहैया करना रहा है.
पाकिस्तान का अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत प्रभाव
पाकिस्तान ने हक्कानी नेटवर्क को प्रोत्साहित किया ताकि आईएस-के के साथ भी उसके ताल्लुकात बने रहें और इससे अफ़ग़ानिस्तान में उसे अपना दबदबा बनाए रखने में भी मदद मिलेगी. पाकिस्तान यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि आईएस-के, हक्कानी या लश्कर-ए-तैयबा के हमलों का सामना भी कर सकता है जबकि ऐसी स्थिति में पाकिस्तान इन हमलों से इनकार भी कर सकता है. तालिबान, आईएस-के और हक्कानी नेटवर्क के बीच इस जटिलता वाले समीकरण से एक बात तय होती है कि पाकिस्तान का अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत प्रभाव है.
तालिबान, आईएस-के और हक्कानी नेटवर्क के बीच इस जटिलता वाले समीकरण से एक बात तय होती है कि पाकिस्तान का अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत प्रभाव है.
तालिबान सरकार के लिए एक और चुनौती मानवीय सहायता सुनिश्चित करना है. सत्ता में आने के बाद उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध का खमियाजा भुगतना पड़ा इसलिए उसे अपने शासनकाल के दौरान आर्थिक गिरावट को भी रोकना है. प्रतिबंध के स्पष्ट निहितार्थों के अलावा अफगान लोगों को भोजन, दवाओं की भारी कमी, नकद भंडार की कमी से निपटने के लिए मज़बूर होना पड़ा है और लोग अपनी ही बचत का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. वहीं लाखों लोग गरीबी के बीच विस्थापित होने के लिए मज़बूर हैं.
मानवीय संकट
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, दो अफ़ग़ान में से एक को खाद्य असुरक्षा का गंभीर रूप से सामना करना पड़ता है और पांच साल से कम उम्र के 30 लाख से अधिक बच्चों को तीव्र कुपोषण का सामना करना पड़ सकता है. कोविड-19 महामारी के प्रभाव के साथ ही तालिबान और अमेरिका के नीतिगत फैसलों के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में मानवीय संकट ने देश भर में कहर बरपाया है.
प्रत्येक पक्ष एक-दूसरे को दोष दे रहा है, ऐसे में भारत सहित क्षेत्रीय राष्ट्रों की यह जिम्मेदारी है कि वे आपदा को कम करने का प्रयास करें. भारत ने हाल ही में मध्य एशियाई देशों, रूस और ईरान सहित अन्य क्षेत्रीय देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के साथ एक सुरक्षा सम्मेलन की मेजबानी की जो अफ़ग़ानिस्तान के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को बरकरार रखने को रेखांकित करता है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, दो अफ़ग़ान में से एक को खाद्य असुरक्षा का गंभीर रूप से सामना करना पड़ता है और पांच साल से कम उम्र के 30 लाख से अधिक बच्चों को तीव्र कुपोषण का सामना करना पड़ सकता है
दिल्ली घोषणापत्र में समान विचारधारा वाले राष्ट्रों को एक साथ लाने की बात की गई जिनमें से सभी अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में एक समावेशी सरकार के लिए उत्सुक हैं, न कि पाकिस्तान समर्थित मौजूदा सरकार के प्रति. हालांकि गौर करने वाली बात यह है कि इस क्षेत्रीय समूह से पाकिस्तान और चीन अनुपस्थित थे जो अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी भारतीय भागीदारी के ख़िलाफ रहते हैं. फिर भी दिल्ली घोषणापत्र में अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य पर क्षेत्रीय देशों के एक बड़े और महत्त्वपूर्ण समूह के बीच ‘असाधारण झुकाव’ पर जोर दिया गया. सम्मेलन के तुरंत बाद, भारत की ओर से मानवीय सहायता से प्रेरित होकर ही पाकिस्तान की ओर से भी 50,000 टन गेहूं अफ़ग़ानिस्तान को देने की अनुमति की बात कही गई. हालांकि यह एक छोटा सा कदम था और अभी काफी कुछ करना बाकी है ताकि लाखों लोगों का दुख कम करने में मदद मिल सके.
सर्दियों के मौसम में अफ़गानिस्तान के लोगों की हालत और भी खराब हो जाएगी. दुनिया से कट कर एक रूढि़वादी और दमनकारी तालिबान सरकार से जूझते हुए अफगान नागरिक, आतंकवादी समूहों को पोषित करने की पाकिस्तान की दशकों पुरानी नीति का ख़ामियाजा भुगत रहे हैं. इस्लामाबाद और रावलपिंडी एक-दूसरे के ख़िलाफ गुटबाजी वाला खेल खेलते रहते हैं और अपने विकृत सुरक्षा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान को अपने खेल के मैदान के रूप में इस्तेमाल करते हैं. उनके लिए निर्दोष अफगान का दुख प्राथमिकता नहीं है.
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