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ट्रंप प्रशासन चीन के साथ संबंधों को जिस तरह निभा रहा है और दोनों देश जिस तरह व्यापार युद्ध में अब उलझ गए हैं, उससे ऑस्ट्रेलिया और भारत- दोनों देशों को गंभीर चिंताएं हैं. लेकिन इन चिंताओं की वजह से वो पहल तेज़ हो गई हैं जो बिना ट्रंप के आगे नहीं बढ़तीं.
ऑस्ट्रेलिया और भारत दोनों देशों को इस बात की गहरी चिंता थी कि डोनाल्ड जे. ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बन सकते हैं लेकिन वास्तव में उन्होंने कभी नहीं सोचा कि वो चुनाव जीतेंगे. जब ट्रंप चुनाव जीते तो झटका- वास्तव में डर- साफ़ तौर पर दिख रहा था. चुनाव अभियान और उससे पहले ट्रंप ने ऐसी बातें कही थीं जिससे ऑस्ट्रेलिया और भारत- दोनों देशों के हितों को सीधी चुनौती मिली. ट्रंप ने दूसरी बातों के अलावा ये वादा भी किया था कि अमेरिका ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से बाहर हो जाएगा और कुशल कामगारों के वीज़ा को सख़्ती से सीमित किया जाएगा. नतीजतन ऑस्ट्रेलिया और भारत- दोनों देशों को नये राष्ट्रपति के साथ बातचीत शुरू करने में थोड़ा समय लगा और ट्रंप से बातचीत उन्हें आसान नहीं लगी. शुरुआती महीने मुश्किल भरे थे. ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल की ट्रंप के साथ फ़ोन पर बहस हुई और इस बातचीत का ब्यौरा मीडिया को लीक कर दिया गया. कहा जाता है कि स्टीफ़न बैनन ने बातचीत का ब्यौरा लीक किया. जब नरेन्द्र मोदी जून 2017 के आख़िर में वॉशिंगटन डी.सी. गए तो ट्रंप के साथ उनकी मुलाक़ात अटपटे ढंग से हुई. दोनों के बीच बातचीत विवादित मुद्दों के इर्द-गिर्द रही और मुलाक़ात का कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला. इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को लेकर ट्रंप प्रशासन की स्पष्ट रणनीति नहीं होने को लेकर इस क्षेत्र में चिंता बढ़ गई.
अगर पीछे मुड़कर देखें तो हम कह सकते हैं कि ट्रंप को लेकर इस बेचैनी का अच्छा असर हुआ. अमेरिकी नीति की दिशा और अमल को लेकर चिंताएं वाकई ख़त्म नहीं हुई हैं और कुछ क्षेत्रों में तो चिंता बढ़ गई हैं. ट्रंप प्रशासन चीन के साथ संबंधों को जिस तरह निभा रहा है और दोनों देश जिस तरह व्यापार युद्ध में अब उलझ गए हैं, उससे ऑस्ट्रेलिया और भारत- दोनों देशों को गंभीर चिंताएं हैं. लेकिन इन चिंताओं की वजह से वो पहल तेज़ हो गई हैं जो बिना ट्रंप के आगे नहीं बढ़तीं. इन पहल में से एक है ऑस्ट्रेलिया का वो फ़ैसला जिसके तहत अमेरिका के बिना वो जापान और न्यूज़ीलैंड के साथ TPP को आगे बढ़ा रहा है. ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा दूसरी पहल है.
भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच साझेदारी अभी भी पूरी संभावना के मुताबिक़ नहीं है. इसके पीछे तीन कारण हैं. पहली वजह ये है कि चीन के साथ एक-दूसरे के संबंधों को लेकर दोनों देशों में आशंकाएं और ग़लतफहमी है.
ये साझेदारी ट्रंप के सत्ता में आने से पहले की है. इसकी शुरुआत 2000 के दशक के मध्य में हुई जब भारत ने सिविल न्यूक्लियर डील और रक्षा सौदों को मंज़ूरी दी. अमेरिका ने अपने सहयोगियों को भारत के साथ संबंधों को मज़बूत करने के लिए प्रोत्साहित किया. जब ये बदलाव हो रहे थे, उसी वक़्त ऑस्ट्रेलिया के कारोबारियों में भारत और वहां की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में मौक़े को लेकर दिलचस्पी बढ़ी. बाद के वर्षों में संबंधों में और मज़बूती आई ख़ासतौर पर रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में. इसकी एक वजह चीन भी रहा क्योंकि पहले वैश्विक वित्तीय संकट और उसके बाद शी जिनपिंग के उदय के साथ वो ज़्यादा ज़िद्दी बन गया.
हालांकि, भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच साझेदारी अभी भी पूरी संभावना के मुताबिक़ नहीं है. इसके पीछे तीन कारण हैं. पहली वजह ये है कि चीन के साथ एक-दूसरे के संबंधों को लेकर दोनों देशों में आशंकाएं और ग़लतफहमी है. भारत में कुछ लोगों को इस बात को लेकर ख़ास चिंता है कि ऑस्ट्रेलिया चीन के बाज़ार पर ‘निर्भर’ है. वो दलील देते हैं कि ऑस्ट्रेलिया के निर्यात का पैमाना वहां की विदेश नीति को लेकर चीन को वीटो का हक़ देता है या कम-से-कम वो ऑस्ट्रेलिया को उन चीज़ों को करने से रोक सकता है जो वो नहीं चाहता है. दूसरी वजह ये है कि ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच इस बात को लेकर सहमति नहीं है कि दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध कैसे आगे बढ़ेंगे. ऑस्ट्रेलिया मानता है कि उदारीकरण और नियंत्रण मुक्त करना व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है और ऐसा करने के लिए उसने पहले द्विपक्षीय व्यापार समझौते- तथाकथित व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता (CECA)- पर ज़ोर दिया और फिर आसियान आधारित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) को आगे रखा. लेकिन भारत का नज़रिया अलग है. उसे लगता है कि विशाल आकार और उसकी अर्थव्यवस्था की गतिशीलता ऑस्ट्रेलिया की दिलचस्पी को बढ़ाने के लिए काफ़ी हैं. इसी वजह से भारत ने CECA में ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई और RCEP से बाहर हो गया. तीसरी वजह ये है कि दोनों देशों के राजनेता, नौकरशाह और विश्लेषकों को एक-दूसरे की क्षमता पर शक है. उन्हें लगता है कि राजनीतिक या सैन्य मामलों में जो वादा वो करते हैं, उसे शायद निभा नहीं पाएंगे.
ऑस्ट्रेलिया ने भारत की उस आर्थिक रणनीति में बड़ा निवेश किया है जो CECA की गैर-मौजूदगी और RCEP में शामिल नहीं होने के बावजूद व्यापार और निवेश के लिए अवसर तलाश रहा है.
शी और ट्रंप का साझा असर भी इन मुद्दों को दूर नहीं कर पाया है लेकिन ऑस्ट्रेलिया और भारत ने इसे अलग परिप्रेक्ष्य में डाला है. दोनों देशों में शक और निराशा को दूर किया गया है और मतभेदों को दूर करने की कोशिश की गई है. ऑस्ट्रेलिया ने भारत की उस आर्थिक रणनीति में बड़ा निवेश किया है जो CECA की गैर-मौजूदगी और RCEP में शामिल नहीं होने के बावजूद व्यापार और निवेश के लिए अवसर तलाश रहा है. ऑस्ट्रेलिया ने विदेशी दखल को काबू करने और साइबर सुरक्षा बरकरार रखने की अपनी कोशिशों का ब्यौरा साझा किया है. इसका मुख्य उद्देश्य चीन के असर को लेकर शक दूर करना है. उसने सैन्य और सुरक्षा संबंधों को मज़बूत करने के लिए भी काफ़ी काम किया है. दोनों देशों के बीच सालाना नौसैनिक अभ्यास होता है जिसकी शुरुआत 2017 में हुई थी. उसने आम लोगों और सामुदायिक स्तर पर संबंधों को भी बढ़ावा दिया है. ऑस्ट्रेलिया अब भारत के ज़्यादा स्थायी और अस्थायी प्रवासियों का स्वागत कर रहा है.
शिखर वार्ता और उसके बाद 4 जून को स्कॉट मॉरिसन के साथ मोदी की वर्चुअल शिखर वार्ता के दौरान आठ समझौतों पर दस्तख़त होना इन कोशिशों के बारे में बताता है. साझा बयान में संबंधों को व्यापक रणनीतिक साझेदारी के स्तर पर बढ़ा दिया गया है. बयान में 49 पैराग्राफ हैं जिनमें साझा मूल्यों से लेकर कोविड-19 पर साझेदारी, सप्लाई चेन, साइबर सुरक्षा, रक्षा विज्ञान और तकनीक और विश्व व्यापार संगठन में सुधार तक सब कुछ शामिल हैं. मैरिटाइम लॉजिस्टिक्स सप्लाई एग्रीमेंट वाकई महत्वपूर्ण था. भारत ने अभी तक फ्रांस, सिंगापुर और अमेरिका जैसे देशों के साथ ही ये समझौता किया था. समुद्री सहयोग को लेकर दृष्टिकोण पत्र भी महत्वपूर्ण था जिसका मक़सद न सिर्फ़ दोनों देशों की नौसेना बल्कि कोस्ट गार्ड के बीच संबंधों को बेहतर करना है.
ये कहना ज़रूरी है कि संबंधों में ज़्यादातर बदलावों को अमल में लाने के लिए ऑस्ट्रेलिया ने पहल की. दोनों देशों के बीच साझेदारी लंबे वक़्त से एकतरफ़ा रही है जहां भारत के मुक़ाबले ऑस्ट्रेलिया ने ज़्यादा काम किया. काफ़ी हद तक ये समझा जा सकता है क्योंकि कुछ क्षेत्रों में भारत के मुक़ाबले ऑस्ट्रेलिया की क्षमता ज़्यादा है और नज़दीकी रिश्ते से ऑस्ट्रेलिया को ज़्यादा फ़ायदा होगा. ख़ास तौर पर क्षेत्रीय सुरक्षा और तेज़ी से धौंस जमाने वाले देश में बदलते चीन से हटकर व्यापार और निवेश को दूसरी तरफ़ मोड़ने के मामले में. लेकिन इसकी एक और वजह है कि उसे भारत को ये भी बताना है कि ऑस्ट्रेलिया के पास क्या क्षमता है.
चीन को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव के बीच इस बात के संकेत हैं कि भारतीय राजनयिकों और विश्लेषकों को इस बात का एहसास हो रहा है कि ऑस्ट्रेलिया जैसी ताक़तों से हमें क्या मिल सकता है. इस साझेदारी में अमेरिका बड़ी भूमिका निभाता रहेगा.
चीन को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव के बीच इस बात के संकेत हैं कि भारतीय राजनयिकों और विश्लेषकों को इस बात का एहसास हो रहा है कि ऑस्ट्रेलिया जैसी ताक़तों से हमें क्या मिल सकता है. इस साझेदारी में अमेरिका बड़ी भूमिका निभाता रहेगा. नवंबर में ट्रंप अगर जीत जाते हैं और वो अपने घातक रास्ते पर चलना जारी रखते हैं, तब भी अमेरिका की भूमिका बनी रहेगी क्योंकि इस क्षेत्र में उसका कोई विकल्प नहीं है और सैन्य-तकनीक के मामले में वो दूसरों से आगे हैं. लेकिन भारत दूसरे देशों के साथ साझेदारी को मज़बूत करने पर भी ज़रूर ध्यान दे जिनमें ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और रूस शामिल हैं.
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Ian Hall is a Professor at the School of Government and International Relations Griffith University and an Academic Fellow of the Australia India Institute University ...
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