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प्लेटफ़ॉर्म को उनके फ़ैसलों के लिए ज़वाबदेह बनाना चाहिए और कार्रवाई के अधीन लाना चाहिए, जो उस देश के क़ानून की पकड़ से बाहर नहीं हो सकते जहां वे काम करते हैं. बाकी सब ज़रूरत से ज़्यादा मिला है.
अमेरिकी चुनावों में गर्मागर्म, तर्क-वितर्क और शोरगुल भरी आक्रामक बहसें देखी जा रही हैं, जिसमें मीडिया (न्यू और ओल्ड) ने खुलेआम अपने रुझान का पट्टा लटका रखा है. ऐसी ही एक मीडिया रिपोर्ट ने ट्रंप बनाम बिडेन चुनाव अभियान की लड़ाई में भारत और भारतीयों को खींचने की कोशिश की है.
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की इससे जुड़ाव और कंटेंट मॉनीटरिंग की अपनी शर्तें और नियम हो सकते हैं; यह उनका विशेषाधिकार है. लेकिन उनके नियम व शर्तें ऐसे नहीं हो सकते जो संप्रभु देशों ख़ासकर लोकतांत्रिक देश में, जहां ये प्लेटफ़ॉर्म संचालित होते हैं वहां के क़ानून के उल्लंघन की अनुमति देते हों.
सबसे पहले , एक आम तथ्य यह है जिस पर अक्सर ट्विटर और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉ़र्म्स और आसानी से भावनाएं भड़क जाने वाले नए पैदा हुए ‘कैंसिल कल्चर’ (बहिष्कार) के प्रसारक ध्यान नहीं देते हैं. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की इससे जुड़ाव और कंटेंट मॉनीटरिंग की अपनी शर्तें और नियम हो सकते हैं; यह उनका विशेषाधिकार है. लेकिन उनके नियम व शर्तें ऐसे नहीं हो सकते जो संप्रभु देशों ख़ासकर लोकतांत्रिक देश में, जहां ये प्लेटफ़ॉर्म संचालित होते हैं वहां के क़ानून के उल्लंघन की अनुमति देते हों.
उदाहरण के लिए, संवैधानिक और दंडात्मक प्रावधानों पर आधारित भारत के मौजूदा क़ानून, दुनिया में कहीं भी स्थित सोशल मीडिया कंपनियों, जो इसके क्षेत्र के भीतर काम करते हैं, द्वारा बनाए गए नियमों और नियमावलियों से उपर हैं. आखिरकार, अगर ये कंपनियां कारोबार का संचालन करने के लिए भारतीय क़ानून का अनुपालन सुनिश्चित करती हैं, तो कंटेंट की निगरानी और प्रबंधन के लिए भी ऐसा ही अनुपालन होगा. दो अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएं नहीं हो सकतीं.
वॉल स्ट्रीट जर्नल के एक लेख से शुरू हुई बहस, जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि फे़सबुक ने अपने कुछ कर्मचारियों के राजनीतिक पूर्वाग्रह के कारण बीजेपी के लिए असाधारण प्राथमिकता दिखाई है, पर स्थिति साफ करने के लिए इस बिंदु को रेखांकित करना ज़रूरी है, तथ्य अख़बार के तर्क का समर्थन नहीं करते हैं, जो ‘कैंसिल कल्चर’ के रूप में वर्णित एक टिप्पणी के साथ है जहां सिर्फ़ ऐसे विचारों को जिनका ‘कुछ चुनिंदा’ लोगों द्वारा समर्थन किया जाता है, को सार्वजनिक मंच पर अनुमति दी जा सकती है.
इस पर शुरू हुए हल्ला-गुल्ला को किसी ज़्यादा संयमित नज़रिये के साथ इस विषय पर केंद्रित करना चाहिए कि क्या प्लेटफ़ॉर्म ख़ुद अपने लिए तय किए गए सर्वोच्च और अंतिम अधिकार से तय कर सकता है कि क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं. यह एकदम साफ़ है कि आगामी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मौजूदा प्रशासन या सत्ता में आने को प्रयासरत पक्ष द्वारा प्लेटफ़ॉर्म पर दबाव बनाकर अपने चुनाव अभियानों में ज़ोर-ज़बरदस्ती शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है- जो सोशल मीडिया कॉरपोरेट कार्यालयों के भीतर और बाहर कोई रहस्य नहीं है- इसने फ़ेसबुक के कथित राजनीतिक पूर्वाग्रह के ख़िलाफ भारत में नाराज़गी को उकसाया. यह एक पहलकदमी है जो आगे झूठ के लिए ज़मीन तैयार करती है. लेकिन चूंकि इसमें भारत, और फ़ेसबुक तथा दूसरे सभी प्लेटफार्मों के भारतीय यूज़र्स शामिल हैं, आइए हम भारतीय संदर्भ में इस बहस की पड़ताल करें और प्लेटफ़ॉर्म की ज़वाबदेही और क़ानून के अनुपालन के इर्द-गिर्द तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करें.
पहला, भारत में ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में क्या शामिल है? निश्चित रूप से यह फ़ेसबुक, ट्विटर की पसंद से तय नहीं होना चाहिए. भारत का संविधान अपने नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, जिन्हें विशेष परिस्थितियों में छोड़कर छीना नहीं जा सकता है और वह भी केवल सरकार द्वारा, बाहरी संस्था द्वारा नहीं. संविधान का अनुच्छेद 19 (2) “भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता या अवमानना या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने पर उचित पाबंदियों” की शर्तों के साथ “बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है.” अधिकांश मामलों में इन पाबंदियों का पालन किया जाता है, जब तक कि किसी उल्लंघन को लेकर कोई ख़ास शिकायत न हो.
‘हेट स्पीच (नफ़रत फैलाने वाले भाषण)’ को मोटे तौर पर ऐसे भाषण के रूप में परिभाषित किया जाता है जो समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देता है जबकि ‘हिंसक भाषण’ को ऐसा भाषण माना जाता है जो हिंसा पैदा करता है या हिंसा का ख़तरा पैदा करता है. दोनों से निपटने के लिए अलग क़ानून और अदालतों के फैसले हैं.
भारत की न्यायपालिका ने इनको लागू किए जाने के तरीके के आधार पर इन पाबंदियों को बरकरार या ख़ारिज करने के लिए दख़ल दिया है. दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 19 (2) का मार्गदर्शन करने वाली कोई तयशुदा, कठोर परिभाषा नहीं है. कुल मिलाकर जब तक कोई भाषण भारत की दंड संहिता का उल्लंघन नहीं करता, तब तक सभी भाषण स्वतंत्र होते हैं. समय के साथ धारणाएं और क़ानूनी स्थितियां बदल गई हैं. उदाहरण के लिए, अंग्रेज लेखक कवि डीएच लॉरेंस, जिनकी रचनाओं को कभी अदालतों द्वारा ‘अश्लील’ माना गया था, अब विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं. आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों को छोड़कर, ‘मित्र देशों के साथ संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाले भाषण’ पर कभी पाबंदी नहीं लगाई गई. सुप्रीम कोर्ट के हिंदुत्व पर फैसले ने राजनीतिक भाषण को लचीला बनाया है.
‘हेट स्पीच (नफ़रत फैलाने वाले भाषण)’ को मोटे तौर पर ऐसे भाषण के रूप में परिभाषित किया जाता है जो समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देता है जबकि ‘हिंसक भाषण’ को ऐसा भाषण माना जाता है जो हिंसा पैदा करता है या हिंसा का ख़तरा पैदा करता है. दोनों से निपटने के लिए अलग क़ानून और अदालतों के फैसले हैं.
अब, स्वतंत्र भाषण, सोशल मीडिया प्रतिक्रियाओं और परिणामों के कुछ हालिया उदाहरण देखते हैं. पिछले हफ्ते, कर्नाटक में कांग्रेस विधायक अखंड श्रीनिवास मूर्ति के एक रिश्तेदार पी. नवीन ने एक पोस्ट के ज़वाब में कंटेट पोस्ट किया- जिसे एक भीड़ द्वारा “इस्लाम विरोधी” माना गया, जो दंगे पर उतारू हो गई, विधायक का घर जला डाला और दो पुलिस स्टेशनों पर तोड़-फोड़ की. पुलिस ने गोलियां चलाईं; चार लोगों की जान चली गई. तर्क दिया जा सकता है कि अगर फ़ेसबुक अपने कंटेंट की निगरानी में सतर्क और ‘निष्पक्ष’ था, तो उसे भड़काऊ पोस्ट को हटा देना चाहिए था, जिसने नवीन द्वारा प्रतिक्रिया को प्रेरित किया, इससे विवाद को शुरू होने से पहले ही ख़त्म किया जा सकता था. लेकिन जबकि पहली पोस्ट अछूती रही, क्या वह एक विशिष्ट समुदाय के प्रति फ़ेसबुक के पूर्वाग्रह और दूसरे के ख़िलाफ हो सकती है? ज़वाबदेही किस बिंदु पर आती है?
तर्क दिया जा सकता है कि अगर फ़ेसबुक अपने कंटेंट की निगरानी में सतर्क और ‘निष्पक्ष’ था, तो उसे भड़काऊ पोस्ट को हटा देना चाहिए था, जिसने नवीन द्वारा प्रतिक्रिया को प्रेरित किया, इससे विवाद को शुरू होने से पहले ही ख़त्म किया जा सकता था.
पिछले हफ्ते ही, ट्विटर ने कुरान से एक आयत पोस्ट करने पर जेएनयू के प्रोफ़ेसर और सार्वजनिक जीवन की जानी-मानी हस्ती आनंद रंगनाथन के अकाउंट को लॉक कर दिया. आयत बेंगलुरु दंगों के संदर्भ में “अल्लाह और उसके पैगंबर” से अभद्रता करने वालों को “सज़ा” देने के लिए कहती थी. ट्विटर ने कहा है कि आनंद रंगनाथन के अकाउंट को बंद कर दिया गया है क्योंकि उनके ट्वीट ने प्लेटफ़ॉर्म के स्पष्ट रूप से वर्णित नियमों का उल्लंघन किया है, जो साफ़ तौर से बताता है, “किसी के द्वारा नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीयता, लैंगिक रुझान, लिंग, लैंगिक पहचान, धार्मिक जुड़ाव, उम्र, विकलांगता या गंभीर बीमारी के आधार पर दूसरे लोगों के ख़िलाफ हिंसा को बढ़ावा देना, धमकी देना, या उत्पीड़न नहीं किया जा सकता है.” क्या कोई भारतीय मीडिया में लिखित या मौख़िक रूप से ऐसा कुछ कह सकता है क्योंकि इस पर कोई क़ानूनी रोक नहीं है- तो फिर उसे ट्विटर पर क्यों छूट मिलनी चाहिए? क्या ट्विटर के नियम भारतीय क़ानूनों से अलग हैं?
यह हमें दूसरे सवाल पर लाता है: सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों के संचालन के लिए क़ानून क्या होना चाहिए? क्या यह भारत का क़ानून होना चाहिए या क्या उस देश का क़ानून जहां की मूल कंपनी है? या, अधिक खतरनाक तरीके से, यह मूल देश या मेजबान देश के क़ानून की परवाह किए बिना, कंपनी का ‘क़ानून’ होना चाहिए. फ़ेसबुक और उसके कथित पूर्वाग्रह के संबंध में मचे गुलगपाड़े को देखें तो, क्या कंपनी के अधिकारी भारतीय क़ानून का उल्लंघन कर रहे थे या वे विश्व स्तर पर (चुनिंदा रूप से) स्वतंत्र भाषण की आज़ादी का उल्लंघन कर रहे थे? यही वह अस्पष्ट क्षेत्र है जिसमें सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म संचालित होते हैं जो ख़ुराफ़ात और अंततः राजनीतिक कब्ज़ा और शातिराना खेल के लिए के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार करता है. ज़रूरी है कि इस संबंध में कोई अस्पष्टता न हो, ख़ासकर इसलिए क्योंकि यह नागरिकों के अधिकारों से जुड़ा मुद्दा है.
तीसरा बड़ा सवाल जो पैदा होता है वह यह है कि जब कोई- कोई शख्स, संस्थान या सरकार- हेट स्पीच को लेकर ग़लती करता है, तो हमारे पास क्या उपाय हैं? क्या ग़लत करने वाली संस्था या व्यक्ति को क़ानून द्वारा या असंतुष्ट शख्स़ द्वारा ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा? फिलहाल, यह साफ़ नहीं है कि हम किस अधिकारी के सामने अपील करेंगे. इस तरह के मामलों की सुनवाई और समाधान के ढांचे के बिना, भारतीय सोशल मीडिया यूजर्स कंटेंट देने वाले प्लेटफ़ॉर्म की सनक और मर्ज़ी के अधीन रहेंगे, जो मनमाने ढंग से ख़ुद के लिए तय करेंगे कि किसमें ‘सबका भला’ है, अक्सर देश के क़ानून के बहुत मामूली सम्मान के साथ. उदाहरण के लिए, अगर ट्विटर एक विपक्षी नेता के एकाउंट पर पाबंदी लगाता है, तो वह फ़ौरन सेंसरशिप का मुद्दा उठाएगा. दूसरी तरफ, अगर सत्तारूढ़ पार्टी के नेता पर पाबंदी लगाई जाती है, तो क्या इसे दबाव में काम करने के रूप में देखा जाना चाहिए? यह सरकार का ज़िम्मा है, जो एक संप्रभु इकाई है. उसे कार्रवाई के लिए (अपने मौजूदा क़ानूनों के दायरे में) देखना है कि क्या कोई भाषण इरादतन या ग़ैरइरादतन क़ानून का उल्लंघन है. फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफ़ार्म्स को इस भूमिका को ख़ुद अपने ऊपर लेने की छूट नहीं दी जा सकती जिससे कि राज्य की संप्रभु सत्ता अर्थहीन हो जाए.
जैसा कि ऊपर कहा गया है, संविधान सिर्फ सरकार को असाधारण स्थितियों में नागरिकों के अधिकारों पर पाबंदी लगाने की अनुमति देता है, और यहां तक कि वह भी न्यायिक समीक्षा के अधीन है. अगर हम फ़ेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को अपनी स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के लिए कार्यकारी शक्ति रखने की छूट देते हैं, तो इससे सत्ता में या सत्ता से बाहर रहने वाले लोगों के लिए उन्हें राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने का रास्ता और गुंजाईश पैदा होगी. यह राष्ट्रीय संप्रभुता के सभी प्रतिष्ठानों के ख़िलाफ होगा और स्वतंत्रता का मज़ाक उड़ाना होगा.
इसलिए, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक संप्रभु देश की घरेलू बहसों और राजनीतिक प्रक्रियाओं में दख़ल नहीं दे सकते हैं और कतई देना भी नहीं चाहिए. अगर कारण और प्रभाव (किसी सोशल मीडिया पोस्ट के लिए) स्थानीय क्षेत्राधिकार तक सीमित हैं तो अदालतों द्वारा बुलाए जाने पर मदद करने के लिए सबूत सौंपने के अलावा किसी अन्य कार्रवाई में कंटेंट प्लेटफ़ॉर्म को शामिल नहीं होना चाहिए. अगर सोशल मीडिया कंटेंट का असर कई देशों में है, तो क़ानून लागू किए जाने के लिए संबंधित देशों केबीच अंतरराष्ट्रीय समझौतों का इस्तेमाल किया जा सकता है.
फ़ेसबुक के कथित पक्षपात का शोर एक तरफ़ रख दें तो हम समाज, समुदायों और देशों की पवित्रता, अखंडता और सुरक्षा के बारे में बात कर रहे हैं. संप्रभु देश, ख़ासकर लोकतांत्रिक देश, सार्वजनिक जीवन के इन क्षेत्रों के लिए ज़िम्मेदार हैं और राष्ट्रीय संस्थानों के साथ-साथ नागरिकों के प्रति भी ज़वाबदेह हैं. जबकि सोशल मीडिया और कंटेंट प्लेटफ़ॉर्म अपने बोर्ड के सिवाय किसी के प्रति ज़वाबदेह नहीं हैं. वे यूज़र्स की चिंताओं से, जिनका समय और समर्थन वे सक्रिय रूप लेते हैं, बहुत दूर रहते हैं.
कॉरपोरेट प्रशासन को गैर-डिजिटल दुनिया तक सीमित नहीं रखा जा सकता है; अब इसका डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म तक विस्तार किया जाना चाहिए. प्लेटफ़ॉर्म को उनके फ़ैसलों के लिए ज़वाबदेह बनाना चाहिए और कार्रवाई के अधीन लाना चाहिए, जो उस देश के क़ानून की पकड़ से बाहर नहीं हो सकते जहां वे काम करते हैं. बाकी सब ज़रूरत से ज़्यादा मिला है.
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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...
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