Published on Feb 07, 2020 Updated 0 Hours ago

फ़ौज और मिलिट्री एक एकीकृत संस्था के रूप में काम करती है और महिलाओं व पुरुषों के साथ काम करने से राह आसान ही होगी.

सेना में महिलाओं को नेतृत्व का अधिकार न देना कितना प्रगतिशील नज़रिया?

केंद्र सरकार का महिला सैन्य अधिकारियों के कमांडो ऑपरेशन व परमानेंट कमीशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दिया गया एफिडेविट बेहद निराशाजनक व दुर्भाग्यपूर्ण है. जब निर्मला सीतारमण देश की पहली पूर्णकालिक महिला रक्षा मंत्री बनी थीं, तो महिला जगत में एक नई आशाएं व संभावनाएं जागी थीं.

रक्षा मंत्री बनने के तुरंत बाद सीतरमण का बयान आया कि वो खुले दिमाग से महिलाओं को सेना में लड़ाकों की भूमिका के बारे में विचार करेंगी,एक शुभ संकेत और महिलाओं के लिये खुशख़बरी के रूप में देखा गया था. लेकिन अब तो नरेंद्र मोदी सरकार जवानों के स्तर छोड़, महिलाओं को पूर्णकालिक अफ़सरों के रूप में भी नहीं चाहती है और दोष पुरुष प्रधान समाज और रूढ़िवाद को दिया जा रहा है. केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में शादी व बाल-बच्चों के अलावा ग्रामीण इलाकों से आने वाले सैनिकों का तर्क देते हुए कहा कि वो अभी सेना में महिला अफ़सरों को कमांड ओहदा दिए जाने को लेकर मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं.. भारतीय सेना में अभी 14 साल से ज्यादा का परमानेंट कमीशन नहीं दिया जाता है.

भारत सरकार अंग्रेज़ों के समान एक ऐसी बात कह रही है जो बेतुकी है. अँग्रेज़ भारत में शासक वर्ग होने के समय कहते थे की फ़ौजी हिंदुस्तानी अफ़सर का कहना अथवा आदेश नहीं मानेंगे

एक स्वस्थ लोकतंत्र में पुरुष प्रधान समाज की सोच में एक बड़ा बदलाव लाना सरकार और समाज दोनों का दायित्व बनता है. सेना में भर्ती अनेक महिला अधिकारी अभी 2 /I C व अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत हैं जहाँ 200 से अधिक जवान उनके अधीन काम करते हैं और अनुशासन, कार्य कुशलता जैसे मुद्दों पर कोई समस्या नहीं आती है. रक्षा मामलों के जानकार व अशोका यूनिवर्सिटी में मिलिट्री हिस्ट्री के प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन का तर्क है की भारत सरकार अंग्रेज़ों के समान एक ऐसी बात कह रही है जो बेतुकी है. अँग्रेज़ भारत में शासक वर्ग होने के समय कहते थे की फ़ौजी हिंदुस्तानी अफ़सर का कहना अथवा आदेश नहीं मानेंगे.

फ़ौज औैर रक्षा से जुड़े अनेक लोगों में महिलाओं को लेकर जो उनके मन में अनेक प्रकार की भ्रांतियां मौजूद रही हैं, ये उसी काका नतीजा हैं कि भारतीय सेना में महिलाओं के जवान स्तर पर भर्ती को लेकर और सैन्य संक्रियाओं यानी कि (combat operations) में भेजने को लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा हैं. भारतीय लेकिन एक ऐसे समय में जब विश्व की अनेक सेनाओं में जिसमें अमेरिका, इज़रायल , ऑस्ट्रेलिया डेनमार्क, इंग्लैंड, फ्रांस व अन्य देश शामिल हैं, जहाँ महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर लड़ाई व राष्ट्रीय सुरक्षा में भाग लेती रहीं हैं, तो वहां भारतीय महिलाएँ क्यों वंचित रहें?

दरअसल, लंबे समय से ये होता आ रहा है कि महिलाओं के खिलाफ़ जब भी कोई फ़ैसला लिया जाता है तो उसके लिए महिलाओं के विवेक,उनकी जिस्मानी शक्ति, दुश्मन द्वारा यातना दिये जाने के तर्क आदि का हवाला देकर इन फ़ैसलों को सही ठहराया जाता है. इस मामले में भी कुछ वैसा ही हो रहा है — महिलाओं को पहले भी फ़ौज में जवान के स्तर पर भर्ती होने से रोका जाता रहा है. विवेक और समझबूझ में तो महिलाओं ने राजनीति से लेकर इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी तक में अपना सिक्का जमाया हुआ है. देश की आज़ादी से पहले केवल 14 प्रतिशत महिलाओं को वोट देने का अधिकार था और यह कहा जाता था की पढ़ाई-लिखाई के बिना महिलाएँ राजनीति में क्या योगदान दे सकेंगी, लेकिन संविधान सभा ने समस्त भारत की महिलाओं को वोट का अधिकार दिया और आज पढ़ाई लिखाई में भी महिलाओं ने बराबरी का स्थान पा लिया है.

सोचने की बात यह है की जब अमेरीकी फ़ौज की महिलाएं इराक़ और अफग़ानिस्तान में लड़ सकती हैं, तो भारतीय महिलाएँ क्यों नहीं? अगर पैरामिलिट्री फोर्सेज व पुलिस में महिलाओं की भागेदारी हो सकती है, तो सेना में क्यों नहीं? यूनिट और अड्वान्स पोस्ट, फॉवर्ड क्षेत्रों में अलग बाथरूम या निजता का प्रश्न उठाना बचकाने और तर्क संगत नहीं हैं. पुरुष समाज को महिलाओं के प्रति हर स्तर पर संवेदनशील होना चाहिये और घर, बाहर या फॉरवर्ड और पीस स्टेशन का भेद करना अनुचित है.

एक ऐसे समय में जब विश्व की अनेक सेनाओं में जिसमें अमेरिका, इज़रायल , ऑस्ट्रेलिया डेनमार्क, इंग्लैंड, फ्रांस व अन्य देश शामिल हैं, जहाँ महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर लड़ाई व राष्ट्रीय सुरक्षा में भाग लेती रहीं हैं, तो वहां भारतीय महिलाएँ क्यों वंचित रहें.

जहाँ तक गर्भवती महिलाओं का सवाल है उसके लिये पर्याप्त छुट्टी के प्रावधानों की आवश्यकता है न की ना नुकुर की रही बात दुश्मन द्वारा यौन उत्पीड़न (sexual harassment) की तो इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय नियम कायदे कानून हैं और दुश्मन को ऐसा करने का दुस्साहस ही नहीं होना चाहिये. अमेरीकी फ़ौज ने इस संबंध में कड़े नियम व ज़ीरो टोलरेंस पॉलिसी बना रखी है, जिसका भारत व मित्र राष्ट्र अनुसरण कर सकते हैं.

रक्षा मंत्रालय में नरेंद्र मोदी सरकार को शुरूआत से ही एक बात पर ज़ोर देना था की लिंग के आधार पर सेना में भेदभाव नहीं किया जा सकता है और न ही किसी को करना चहिए. ग़ौरतलब बात यह भी है कि केवल अफ़सर लेवल परमहिलाओं का प्रतिनिधित्व करने से बात नहीं बनती है. फ़ौज और मिलिट्री एक समानुरूप (seamless) संस्था के रूप में काम करती है और महिलाओं व पुरुषों के साथ काम करने से राह आसान ही होगी. जब जवान के स्तर पर महिलाएँ शामिल होंगी तभी पुरुष जवानों का महिला अफ़सर पर विश्वास मज़बूत होगा और सेना सशक्त हो कर उभरेगी.

देश की निगाहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पर लगी है की क्या वो महिलाओं कोको भारतीय सेना में परमानेंट कमीशन व जवान स्तर पर और लड़ाके के रूप में शामिल करने के सपने को साकार करेंगें और एक नई शरूआत व परंपरा क़ायम करेंगें ?

सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस मामले में अपनी राय सुरक्षित रखी है, लेकिन भारतीय रक्षा से जुड़ी एयर फ़ोर्स, नेवी व सेना की महिला अधिकारियों में इस बात को लेकर निराशा के भाव अभी से झलकने लगे हैं.

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