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सरकारों ने जीटूजी (सरकार से सरकार के बीच) प्रणाली इसलिए चुनी ताकि खुली प्रतिस्पर्धा में संभावित भ्रष्टाचार को रोका जा सके। हांलाकि इस प्रणाली में भी किसी एक कंपनी को वरीयता देने में भ्रष्टाचार की आशंका और प्रतिस्पर्धा खत्म करने को लेकर आपत्तियां हैं। राफेल सौदे को लेकर जारी विवाद से कई खुलासे हुए हैं।
फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमान के सौदे से पैदा हुए तूफान ने सबका ध्यान खींचा है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि देश के राजनीतिक माहौल पर इसका असर दिखाई दे रहा है जबकि आम चुनाव कुछ ही महीनों बाद तय हैं। इस सौदे में सरकार पर चुनिंदा पूंजीपतियों (क्रोनी कैपिटलिज्म) को बढ़ावा देने सहित नियमों के उल्लंघन के आरोप लगे हैं। केन्द्र सरकार ने मध्यम श्रेणी के बहुद्देशीय लड़ाकू विमान (एमएमआरसीए) खरीदने के 20 अरब अमेरिकी डॉलर के सौदे को समय और लागत घटाने के नाम पर 2015 में रद्द कर दिया था। इसके बदले 36 राफेल लड़ाकू विमान हासिल करने के लिए सरकार से सरकार के बीच सीधे सौदे का विकल्प चुना गया था।
पिछले कुछ वर्षों में देश की उत्तरोत्तर सरकारों ने रक्षा खरीद के लिए जिस तरह से जीटूजी प्रणाली का नियमित उपयोग किया है वो इस बात का सबूत है कि रक्षा खरीद की मौजूदा नीति विफल हो गयी है और इससे इस बात का भी संकेत मिलता है कि समयबद्ध तरीके से प्रतिस्पर्धी प्रणाली के तहत खरीद की प्रक्रिया संपन्न करने में भारत अक्षम है। इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जब बीच में ही खरीद के प्रस्ताव रद्द कर दिये गये और इसके लिए फिर से टेंडर जारी किये गये। इसके बाद भी मामूली सफलता ही मिली। जीटूजी प्रणाली का उपयोग इस बात का भी संकेत है कि भारत न्यूनतम समय में उपकरण खरीद कर अपनी रक्षा तैयारियों की कमियों की पूर्ति करने के लिए कितना बेताब है।
सरकारों ने जीटूजी प्रणाली इसलिए चुनी ताकि खुली प्रतिस्पर्धा में संभावित भ्रष्टाचार को रोका जा सके। हांलाकि इस प्रणाली में भी किसी एक कंपनी को वरीयता देने में भ्रष्टाचार की आशंका और प्रतिस्पर्धा खत्म करने को लेकर आपत्तियां हैं।
राफेल सौदे को लेकर जारी विवाद से कई खुलासे हुए हैं।
अगस्त 2018 में प्रकाशित अंग्रेजी अखबार इकॉनामिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूर्ववर्ती निविदा के तहत 126 मध्यम श्रेणी के बहुद्देशीय लड़ाकू विमान (एमएमआरसीए) की खरीद के लिए एल1 कंपनी के रूप में दसॉल्ट राफेल के चयन की रक्षा मंत्रालय की समीक्षा में गड़बड़ी थी। समीक्षा में इस बात का खुलासा हुआ था कि अगर राफेल का निर्माण भारत में लाइसेंस के अंतर्गत होना था (जो मूल एमएमआरसीए आरएफपी के अंतर्गत सौदा हासिल करने के लिए अनिवार्य शर्त थी) तो दसॉल्ट की बोली न्यूनतम यानि एल1 नहीं मानी जाती। यूरोफाइटर टायफून की बोली एल1 हो जाती।
हांलाकि 2016 में प्रकाशित रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) कहती है “खरीद के कुछ मामलों में सौदे से जुड़ी रणनीतिक साझेदारी या प्रमुख राजनयिक, राजनीतिक आर्थिक, तकनीकी या सैन्य लाभ ही किसी एक चुनिंदा कंपनी से उपकरण खरीदने का मुख्य कारण हो सकता है। ये कारण ही किसी एक कंपनी के विशेष उपकरण के चयन पर जोर दे सकते हैं और जरूरी नहीं कि वो न्यूनतम बोली (एल1) वाली कंपनी हो। इस तरह के सभी सौदों के लिए निर्णय डीपीबी की सिफारिश पर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी करती थी।” यहां ये याद करना महत्वपूर्ण है कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने 36 विमानों की खरीद का पहली बार ऐलान किया था तो सौदे के बारे में क्या कहा था। ये सौदा दो सरकारों के बीच के समझौते के तहत होना था और इसके लिए मूल एमएमआरसीए आरएफपी की बजाय अलग प्रक्रिया अपनाई जानी थी। सरकार मूल एमएमआरसीए निविदा को न्यूनतम मानदंड के रूप में क्यों मान रही है?
पिछले कुछ वर्षों में हथियार खरीद प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने में रक्षा मंत्रालय की नाकामी ने सरकार से सरकार के बीच समझौतों की भूमिका तैयार की। उम्मीद थी कि ऐसा करने से खरीद की प्रक्रिया कम जटिल, ज्यादा तेज और सबसे महत्वूपर्ण कम विवादास्पद होगी।
उदाहरण के लिए, अमेरिका से सैन्य उपकरण की खरीद के लिए दो अलग तरीके हैं। एक है सीधी व्यापारिक खरीद (डीसीएस) और दूसरा है विदेशी सैन्य खरीद (एफएमएस)। डीसीएस के तहत होने वाले सौदे में खरीदार सरकार और अमेरिकी रक्षा उद्योग के बीच विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक लेन देन होता है। इसमें अमेरिकी कंपनियां अपने रक्षा उपकरण को बेचने के लिए दूसरे देशों की कंपनियों से स्पर्धा करती हैं। दूसरी ओर एफएमएस को आम तौर पर सरकार से सरकार के बीच का (जीटूजी) सौदा माना जाता है जिसमें भारत खरीद के लिए अमेरिकी सरकार को अनुरोध पत्र भेजता है। अगर ये अनुरोध स्वीकार कर लिया जाता है तो अनुरोध भेजने वाले देश को प्रस्ताव पत्र भेजा जाता है। इसके बाद खरीदार सरकार को अग्रिम राशि के साथ स्वीकृति पत्र(एलओए) भेजने की जरूरत होती है।
इसके बाद कानूनी करार पर हस्ताक्षर होते हैं। अमेरिकी सरकार अपने मौजूदा भंडार से या उपकरण निर्माता कंपनी से खरीद करके सामग्री की आपूर्ति कर सकती है। हांलाकि फ्रांस के साथ हुए सरकार से सरकार के बीच के अंतर्सरकारी समझौते में उपकरण की आपूर्ति और संबंधित औद्योगिक सेवाओं की जिम्मेदारी और समग्र करार के निष्पादन जैसे मसलों का दायित्व फ्रांस सरकार की बजाय दसॉल्ट पर डाल दिया गया है।
फ्रांस सरकार ने सौदे के समर्थन में भारत सरकार को “सोवरेन गारंटी” की बजाय “कम्फर्ट लेटर” प्रदान किया है जो उसे किसी जवाबदेही के दायरे में नहीं रखता। इससे जीटूजी सौदे के तहत भारत को मिलने वाला लाभ खत्म हो गया है जो संप्रभु देश की गारंटी से मिल सकता था।
भारतीय वायुसेना को कम से कम 2030 तक कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। घटते सैन्य बजट और खरीद को लेकर ये विवाद ऐसे समय में पैदा हुआ है जब भारतीय वायुसेना के पुराने होते बेड़े को जल्द बदलने की जरूरत है। राफेल की खरीद और देश में विकसित तेजस के वायुसेना में शामिल होने के बाद इन्हें पूरी तरह से इस्तेमाल लायक बनाने में समय लगेगा। विमानों की घटती संख्या की वजह से भारतीय वायुसेना वायु रक्षा, हवाई हमलों और क्लोज एयर सपोर्ट जैसे अपने पारंपरिक दायित्वों को निभाने को लेकर काफी दबाव में है।
पुराने एमएमआरसीए अनुरोध पत्र (आरएफपी) और 36 राफेल विमानों की किश्तों में आपूर्ति को विचारणीय मसले के रूप में देखने की जरूरत है ताकि रक्षा खरीद प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए इससे सबक लिया जा सके। खुली स्पर्धा में संभावित भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जीटूजी के नियमित उपयोग पर विचार करने की जरूरत है। साथ ही न्यूनतम बोली या एल 1 कंपनी के चयन की प्रणाली पर कायम रहने की बजाय इसपर भी पुनर्विचार की जरूरत है अगर वे करार की मूल शर्तों के प्रति जवाबदेह नहीं रहतीं।
ये आलेख मूल रूप से ‘द क्विंट’ में प्रकाशित हुआ था।
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Pushan was Head of Forums at ORF. He was also the coordinator of Raisina Dialogue. His research interests are Indian foreign and security policies.
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