Published on Nov 11, 2016 Updated 1 Days ago
फिलीपींस-चीन संबंधों के बदलते आयाम और भारत

हैकाउ (हेनान प्रांत): फिलीपींस के राष्ट्रपति रॉड्रिगो दुतेर्ते की “अमेरिका से अलगाव’” की घोषणा ने क्या दक्षिण चीन सागर विवाद का रुख मौलिक रूप से मोड़ दिया है? पूरी तरह नहीं। इसके निष्कर्ष को प्रभावित करने के अमेरिकी प्रयास हालांकि वापस उसी बिंदु पर पहुंच गए हैं, जहां से उनकी शुरूआत हुई थी। दुतेर्ते की टिप्पियां इसी ओर इशारा करती हैं कि एससीएस विवाद के पक्षकारों द्वारा वहन की जाने वाली राजनीतिक लागत, न्यायाधिकरण के निर्णय के कानूनी समर्थन से होने वाले संभावित लाभ से कहीं ज्यादा है। चीन की राजकीय यात्रा के दौरान राष्ट्रपति की ओर से रखे गये अमेरिका से फिलीपींस के “सैन्य” और “आर्थिक” अलगाव के प्रस्ताव से एशिया की राजनीतिक हकीकत में किसी तरह का बदलाव आने की संभावना नहीं है। क्षेत्र के शक्ति संतुलन में किसी तरह का बदलाव लाने से कोसों दूर, यह अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या स्वंय फिलीपींस के नागरिक अमेरिका से संबंध तोड़ना स्वीकार करेंगे या नहीं, जिसकी मांग उनके राष्ट्रपति कर रहे हैं।लेकिन दुतेर्ते की टिप्पणियों का प्रमुख कारण एससीएस न्यायाधिकरण के फैसले के कारण क्षेत्र में सुलगने वाला तनाव है।वास्तव में, चीन के बहुत से विश्लेषकों का मानना है कि दुतेर्ते का हस्तक्षेप “व्यवहारिक” है, जो आईटीएलओएस न्यायाधिकरण द्वारा दक्षिण चीन सागर पर चीन के “ऐतिहासिक” दावे को खारिज किए जाने के बाद मुख्य रूप से संशोधन की तरह है। बीजिंग-मनीला संबंधों के तीन निष्कर्ष हो सकते हैंः

1. दुतेर्ते की टिप्पणियां इस बात का संकेत हैं कि वह एससीएस न्यायाधिकरण के फैसले को ठंडे बस्ते में डालने और विवाद का राजनीतिक समाधान तलाशने के इच्छुक हैं, जो चीन पर बने बयानबाजी तेज करने संबंधी दबाव में कमी लाता है। इस बात की भी संभावना है कि इन टिप्पणियों से चीन, सागर संबंधी कानून के बारे में संयुक्त राष्ट्र समझौते के अंतर्गत अपने दायित्वों को स्थगित रखने जैसे प्रबल उपाय करने से हतोत्साहित हो सकता है।

हेग स्थित आईटीएलओएस न्यायाधिकरण द्वारा जुलाई में ‘‘नाइन डैश लाइन’’ का कोई ऐतिहासिक या कानूनी आधार न होने संबंधी व्यवस्था दिए जाने के बाद अमेरिका और जापान ने चीन की कड़ी आलोचना की थी। जियाओयू/सेन्काकु द्वीप विवाद के लिए इस फैसले के अपने निहितार्थों को देखते हुए जापान संभवतः इस मामले पर चीन को न घेरे। प्रमुख सहयोगियों के समर्थन के बिना, ओबामा प्रशासन द्वारा चीन की आलोचना करने की गुंजाइश भी सीमित रहेगी। दुतेर्ते की टिप्पिणियों को चीन में एससीएस विवाद को अपनी शर्तों पर मोलभाव करने के प्रयास के रूप में देखा जाएगा-भले ही यह मोलभाव चीन के पक्ष में नहीं, बल्कि अपनी क्षेत्रीय तौर पर उसकी अपनी छवि स्वतंत्र वार्ताकार के रूप में प्रदर्शित करने के लिए ही हो।

2. दुतेर्ते प्रशासन के अमेरिका से प्रस्तावित ‘अलगाव’ से क्षेत्र में उसका प्रभाव कम होने के आसार नहीं है। अमेरिका, एशिया में बदस्तूर प्रबल सैन्य शक्ति बना हुआ है और चूंकि एआईआईबी-ओबीओआर-आरसीईपी ट्रिफैक्टा (शर्त) के जरिए हो रही आर्थिक पुनर्रचना के भविष्य के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है, ऐसे में उनके निष्कर्षों को केवल चीन के अनुकूल समझना जल्दबाजी होगा। फ्यूचर ट्रेडिंग व्यवस्थाओं से चीन के लिए आबद्ध बाजारों का सृजित होने की संभावना है, लेकिन मध्य और दक्षिण-पूर्व एशियाई बाजारों के साथ व्यापक एकीकरण, एकतरफा उपाय करने की चीन की राजनीतिक योग्यता को भी सीमित करेगा।दुतेर्ते की टिप्पणियां एशिया में अधिपत्य के लिए अमेरिका-चीन के बीच जारी संघर्ष के बीच में पड़ने के प्रति क्षेत्र के छोटे देशों की अरुचि दर्शाती करती हैं। क्षेत्र में अमेरिका के करीबी सहभागियों : जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और फिलीपींस की ही बात लीजिए। वे सभी चीन के साथ स्वतंत्र संबंध बनाए रखने के इच्छुक हैं : जापान और फिलीपींस में राष्ट्रवाद की भावनाओं का पुनउर्त्थान चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करेगा, उत्तर कोरिया से निपटने की आवश्यकता, दक्षिण कोरिया-चीन को गतिशील रखेगी और सिंगापुर चीन के साथ इसलिए संबंध बनाए रखेगा, ताकि पहले से किए जा चुके बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में कोई व्यवधान न उत्पन्न हो। संक्षेप में कहा जाए, तो एशिया में चीन के उदय को अमेरिका द्वारा नहीं, बल्कि मोटे तौर पर स्वतंत्र विदेश नीतियों का अनुसरण करने वाली क्षेत्रीय ताकतों द्वारा संभाला जाएगा।

 3. भविष्य में भी दुतेर्ते द्वारा इसी तरह के नाटकीय हस्तक्षेप किए जाने की संभावना के मद्देनजर, आसियान को सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रदर्शित करते हुए क्षेत्र में संबंधों के एक स्थिर और स्वतंत्र मध्यस्थ की अत्याधिक आवश्यकता महसूस की जाएगी। आसियान के भीतर भी, चीन कैम्प के ‘समर्थक‘ और ‘विरोधी‘ समझे जाने वालों के बीच की खींचतान तेज हो जाएगी, जिसकी वजह से राजनीतिक मामलों पर सर्वसम्मति कायम करना-जो पहले से ही कठिन है-अब लगभग दुष्कर हो जाएगा। दक्षिण चीन सागर से संबंधी व्यवहार के बारे में चीन-आसियान घोषणा पत्र के साकार होने के आसार उतने नहीं हैं, जितने पिछले सप्ताह के दुतेर्ते के वक्तव्य से पहले थे, लेकिन यह चीन को सामुद्रिक सीमाओं के समाधान के लिए तटवर्ती देशों के साथ द्विपक्षीय रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। किसी भी स्थिति में, इन फैसलां को आसियान की मंजूरी की आवश्यकता होगी, जो अलग-अलग देशों के प्रति चीन की प्रभावशाली स्थिति के मद्देनजर अच्छे निष्कर्ष हो सकते हैं।

यह स्थिति भारत को कहां पहुंचाती है? दक्षिण चीन सागर और विशेषकर आईटीएलओएस के फैसले पर भारत की स्थिति, चीन के साथ उसके द्विपक्षीय संबंधों का कारक है। यदि चीन ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के प्रवेश की राह में रोड़े अटकाना या पाकिस्तान को रणनीतिक तौर पर गले लगाना जारी रखा, तो इस बात की संभावना है कि भारत भी एससीएस विवाद पर अपना लहजा कड़ा कर सकता है। सितम्बर में इंडिया फाउंडेशन द्वारा आयोजित हिंद महासागर सम्मेलन में विदेश सचिव जयशंकर की टिप्पणियां न्यायाधिकरण के फैसले पर भारत के रुख को विदेश मंत्रालय की शुरूआती प्रतिक्रिया से आगे ले जाती हैं। दुतेर्ते के वक्तव्यों ने हालांकि भारत के लिए मामलों को उलझा दिया है। अब भारत अमेरिका या अमेरिकी सहयोगियों से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि एससीएस विवाद पर वे चीन पर दबाव बनाएंगे।।

परिणामस्वरूप, दक्षिण चीन सागर के चरमबिंदु न रहने पर यह विवाद को मोलभाव के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की भारत की योग्यता को भी आश्चर्यजनक रूप से सीमित कर देगा। क्षेत्रीय मामलों में आसियान के “महत्व” को भारत के दीर्घकालिक और निरंतर समर्थन ने संगठन के उभरते स्वरूप के मद्देनजर, उसे अच्छा स्थान दिलाया है। अंततः दक्षिण चीन सागर का राजनीतिक समाधान भारत के हक में होगा, क्योंकि क्षेत्र में यह चीन की ताकत की सीमाओं को परिलक्षित करेगा और छोटी ताकतों को एशिया की गवर्नेंस संरचना में साझा प्रबंधों के लिए प्रयास करने को प्रोत्साहित करेगा।

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