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जो लड़ने की इच्छा रखता है, वो पहले इसकी क़ीमत समझे.
एक दिलचस्प एनिमेटेड ग्राफिक्स में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के जन्म से लेकर विस्तार तक के बारे में बताया गया है. ग्राफिक्स की शुरुआत पीली नदी के किनारे शांग वंश के शासन वाले ज़मीन के टुकड़े से होती है और फिर ग्राफिक्स झिलमिलाहट के साथ मौजूदा रूप और आकार में तब्दील हो जाता है, हर बार झिलमिलाहट के साथ ज़मीन का बड़ा टुकड़ा उस हिस्से में जुड़ जाता है जिस पर शांग वंश का शासन था. चीन की दीवार इस बात की सूचक है कि पिछले कई शताब्दियों के दौरान कैसे चीन ने ज़बरदस्ती और कब्ज़े के ज़रिए अपने भू-भाग का विस्तार किया.
हाल के समय में जिसकी शुरुआत 1947 में इनर मंगोलिया की बनावटी रचना के साथ होती है, बाद में शिनजियांग (1949) और तिब्बत (1950-51) को हिंसक तरीक़े से चीन में मिलाया गया. ज़मीनी सरहद की तरह – जिसे एक बार निर्धारित किया गया, फिर मिटाया गया, फिर से निर्धारित किया गया, फिर मिटाया गया और फिर निर्धारित किया गया- चीन का इतिहास भी ज़मीन को लेकर कभी न ख़त्म होने वाले लालच की वजह से लगातार बदला गया और बाद में जोड़ा गया. झोंगजुओ या ‘मिडिल किंगडम’, जैसा कि साम्राज्यवादी चीन ख़ुद को बताता है, को ‘बर्बर’ और ‘हिंसक’ देशों से घिरा विश्व की सभ्यता का केंद्र होना था.
ख़ुद को ऐसा दिखाकर चीन के शासकों ने कई युगों से ख़ुद के महत्व को लेकर बढ़ी-चढ़ी समझ के उद्देश्य को बढ़ावा दिया. ये चीन के दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में बसे देशों की सभ्यता और संस्कृति को लेकर उसकी आंखों पर बंधी पट्टी का भी प्रदर्शन था. ये अज्ञानता बदलकर अब नियम और क़ानून पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए बेहद असंवेदनशीलता में बदल गई है.
1962 में चीन का आक्रमण जिसकी वजह से युद्ध हुआ था, वो सिर्फ़ ख्यालों में ख़त्म हुआ है. ये दूसरे तरीक़ों के ज़रिए लगातार जारी है. इन तरीकों में सबसे प्रमुख है भारत और तिब्बत के बीच 3,488 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर बार-बार चीन की घुसपैठ
आर्थिक विकास और समृद्धि के बावजूद ‘मिडिल किंगडम’ के मध्यकालीन वैश्विक दृष्टिकोण से चीन की सोच मुक्त नहीं हो पाई है, न ही ज़मीन के लिए अपने लालच को वो काबू में रख पाया है. जिसे चीन दक्षिणी चीन सागर कहता है वहां द्वीप बनाने से लेकर दूर-दराज के देशों में उपनिवेश बनाने के लिए उन्हें BRI (पाकिस्तान में इसका नाम CPEC रखा गया है) नाम के कर्ज़ के जाल में फंसाना और फिर उन्हें चीन का चाकर बनाना, दूसरों की ज़मीन को हथियाने और तबाह करने की चीन की इच्छा हमेशा की तरह मज़बूत है.
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और भारतीय क्षेत्र पर चीन का अवैध दावा उसी मध्यकालीन इच्छा से पैदा हुआ है. ये दावा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के दुष्प्रचार साहित्य के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी के कपोल-कल्पना लेखकों द्वारा लिखा गये पक्षपातपूर्ण इतिहास के आधार पर किया जा रहा है. 1962 में चीन का आक्रमण जिसकी वजह से युद्ध हुआ था, वो सिर्फ़ ख्यालों में ख़त्म हुआ है. ये दूसरे तरीक़ों के ज़रिए लगातार जारी है. इन तरीकों में सबसे प्रमुख है भारत और तिब्बत के बीच 3,488 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर बार-बार चीन की घुसपैठ. भारत और चीन के बीच 22 दौर की सीमा बातचीत और अनगिनत आधिकारिक और अनाधिकारिक शिखर वार्ता से कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ है. हर बार बातचीत के बाद तोते की तरह रटा जाता है कि दोनों देश LAC पर ‘शांति और सद्भाव’ बनाए रखने के लिए वचनबद्ध हैं. ये ऐसा वचन है जिसका पालन करने के बदले चीन ने बार-बार तोड़ा है.
इसलिए डोकलाम गतिरोध, जहां चीन की नाक भले ही न कटी हो लेकिन टूटे हुए अहंकार के साथ चीन को अपने क़दम पीछे खींचने पड़े, के तीन साल बाद और इस दौरान अनगिनत घुसपैठ के बीच PLA ने पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ की और सैनिकों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ हथियारों का भंडार भी जमा किया है. ऊपरी तौर पर देखें तो चीन को बंजर ज़मीन, जहां न तो इंसान रह सकते हैं न ही पेड़-पौधे उग सकते हैं, के सिवा कुछ ख़ास हासिल होने वाला नहीं है. लेकिन ध्यान रखिए कि चीन ने 1962 में अक्साई चिन पर भी कब्ज़ा किया था. ऐसे में बिना किसी विरोधाभास के कहा जा सकता है कि चीन की न नज़र अब लद्दाख पर है. एक टुकड़ा यहां, एक टुकड़ा वहां और फिर पूरे इलाक़े को निगलने की कोशिश करना.
“भारत की चीन पहेली: धौंस दिखाने वाले को रास्ते पर कैसे लाएं?” शीर्षक से पहले के एक लेख में बताया गया था कि पूर्वी लद्दाख में इस समय चीन की घुसपैठ के संभावित कारण क्या हो सकते हैं. लेकिन समय से ज़्यादा महत्वपूर्ण है घुसपैठ के पीछे छिपी हुई इच्छा. जिसे ग़ुस्सा दिलाने वाली हरकत कहा जा रहा है उसका तुरंत समाधान ढूंढने से अच्छा है कि भारत एक तंग दिल दुश्मन को लेकर मध्यम और दीर्घकालीन रणनीति बनाने की शुरुआत करे. ऐसा दुश्मन जो भौगोलिक रूप से हमारा पड़ोसी है और जिसे हम दूर नहीं हटा सकते. ये रणनीति अलग-अलग रणभूमि में दिखानी है.
सबसे पहले भारत को चीन रूपी पहेली को लेकर अपनी घबराहट दूर करनी है. जैसा कि शनिवार की सैन्य स्तर की बातचीत इशारा करती है, बातचीत के ज़रिए न तो आसान और न ही तुरंत हल मुमकिन है. जहां बातचीत ज़रूर जारी रहनी चाहिए, वहीं ज़मीन पर भारत को तैयार रहना चाहिए और अपनी तैयारी का प्रदर्शन भी करना चाहिए ताकि धौंस जमाने वाले की आंख में आंख डालकर बात हो. अभी पलक झपकाना विनाशकारी होगा.
भारत को मेड इन वुहान कोविड-19 महामारी को लेकर चीन के ख़िलाफ़ उभरे मौजूदा वैश्विक ग़ुस्से का पूरा फ़ायदा उठाना चाहिए. मध्यम समय में ये ग़ुस्सा ऑस्ट्रेलिया से यूरोप होते हुए अमेरिका तक फैलेगा. विदेश मामलों का मंत्रालय अपने पुराने ‘करो ना’ सिद्धांत जिसका मतलब है कुछ नहीं करना को त्यागकर अच्छा करेगा
चीन के बराबर सैनिकों को इकट्ठा करना और हथियारों का भंडारण ज़रूर जारी रहना चाहिए. भारत को ये मानकर चलना चाहिए कि ये लंबा गतिरोध होगा और PLA घुसपैठ ख़त्म भी कर देती है तब भी वो LAC से वापस नहीं जाएगी. ऐसा डोकलाम में नहीं हुआ था, ऐसा लद्दाख में भी नहीं होगा. मज़बूत सैन्य जवाब का मतलब खुली दुश्मनी ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर भिड़ंत होती है तो हो. सुन ज़ू इस बात पर ज़ोर देते थे कि शांति और सद्भाव युद्ध के हथियारों से आते हैं खेत जोतने वाले हल से नहीं. अगर भिड़ंत पत्थर और डंडे से आगे बढ़कर संगीन और बम से होती है तो भारत को इसके लिए ज़रूर तैयार रहना चाहिए.
दूसरा, भारत को मेड इन वुहान कोविड-19 महामारी को लेकर चीन के ख़िलाफ़ उभरे मौजूदा वैश्विक ग़ुस्से का पूरा फ़ायदा उठाना चाहिए. मध्यम समय में ये ग़ुस्सा ऑस्ट्रेलिया से यूरोप होते हुए अमेरिका तक फैलेगा. विदेश मामलों का मंत्रालय अपने पुराने ‘करो ना’ सिद्धांत जिसका मतलब है कुछ नहीं करना को त्यागकर अच्छा करेगा. अभी तक विदेश मंत्रालय की स्थायी नीति रही है सुरक्षित खेल खेलना. लेकिन कूटनीति के तौर पर वो दिन बीत गए हैं और मौजूदा दौर में इसका कोई महत्व नहीं है.
तानाशाह और तानाशाही कहावत की कमज़ोरी से कम नहीं है. चीन के मामले में ये कमज़ोरी लोकतंत्र है. भारत को लोकतांत्रिक देशों का ऐसा गठबंधन बनाना चाहिए जो नियम आधारित विश्व व्यवस्था को न सिर्फ़ लागू करे बल्कि उसमें यकीन भी करे. हिंद-प्रशांत महासागर में अपनी भूमिका पूरी करने से लेकर हिंद महासागर में असर बढ़ाने तक उभरते हुए भारत को खड़ा होने और दुनिया की गिनती में अपना नाम दर्ज करवाने की ज़रूरत है. सबको मालूम है कि ‘क्वाड’ या ‘क्वाड प्लस’ से चीन नाराज़ होता है. यही वजह है कि भारत खुलेतौर पर, इस व्यवस्था में मज़बूती से नेतृत्व की भूमिका मांगने से अलग नहीं रह सकता.
भारत को उस खेल में और तेज़ होने की ज़रूरत है जिसके ज़रिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों पर नियंत्रण पाया जाता है. चीन ने नियंत्रण, असर और सत्ता वाले पदों पर चालबाज़ी में महारथ हासिल कर ली है. वैचारिक झूठ से वंचित ये कम लागत वाला अभियान है.
आख़िर में, भारत को उस खेल में और तेज़ होने की ज़रूरत है जिसके ज़रिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों पर नियंत्रण पाया जाता है. चीन ने नियंत्रण, असर और सत्ता वाले पदों पर चालबाज़ी में महारथ हासिल कर ली है. वैचारिक झूठ से वंचित ये कम लागत वाला अभियान है. भारत को इस मामले में चीन से सीखना होगा: समझौते का मज़ाक़ नहीं उड़ाना चाहिए और इससे कन्नी तो बिल्कुल नहीं काटना चाहिए.
तीसरा और संभवत: सबसे महत्वपूर्ण, भारत को तेज़ी से और निर्मम होकर आर्थिक शक्ति बढ़ानी होगी. कोविड-19 के बाद की दुनिया वैश्विक सप्लाई लाइन और चेन में बड़ा बदलाव देखेगी. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देश अपनी अर्थव्यवस्था को चीन से अलग करने पर विचार कर रहे हैं. उन देशों को साझेदारों और सहयोगियों की ज़रूरत होगी. जो कारखाने दूसरे देश जाना चाहते हैं, उन्हें नई मंज़िल की तलाश होगी. जो निवेशक चीन में भारी निवेश नहीं करना चाहते हैं, वो भी अपने विकल्पों की तलाश करेंगे.
भारत इस मौक़े का फ़ायदा उठाने और चीन को जहां सबसे ज़्यादा दर्द होगा, वहां पर हमला करने के लिए कितना तैयार है? क्या भारत के पास वो संकल्प है कि वो चीन के साथ कारोबार पर पूरी तरह रोक लगा दे जब तक कि वो 57 अरब डॉलर के व्यापार घाटे से ख़ुद का पीछा न छुड़ा ले? भारतीय तकनीकी कंपनियों ने दिखा दिया है कि वो चीन की तकनीक के बिना भी काम चला सकती हैं. इसमें सबसे प्रमुख है हुवावे को ठुकराना. भारतीय बाज़ारों में अब चीन के सस्ते उत्पादों के लिए जगह नहीं है. भारत में सरकारें सुधार और पुराने पड़ चुके नियम और क़ानूनों को बदलने के लिए आतुर हैं ताकि चीन से बाहर जाने वाली कंपनियां यहां आ सकें. भारतीय अब इस राजनीतिक विचार को नहीं मानते कि चीन को दूर रखने के लिए कम-से-कम प्रतिरोध के रास्ते पर चलना चाहिए.
इसके बावजूद चीन से टकराने को लेकर आश्चर्यजनक और गूढ़ अनिच्छा है. ऐसे वक़्त में जब दुनिया चीन की आलोचना में मुखर है, भारत ने चुप्पी साध रखी है. ये रुख़ बड़ी शक्ति बनने जा रहे भारत की आकांक्षा के ख़िलाफ़ है. न तो ये अनिच्छा अच्छी रणनीति है, न ही ये ख़ामोशी अच्छा कौशल है. ये साफ़ और सरल घबराहट है.
जैसा कि किसी समझदार ने कहा है कि बड़ी शक्तियों के पास न सिर्फ़ सज़ा झेलने की शक्ति होती है बल्कि सज़ा देने की क्षमता भी होती है. सज़ा देने की क्षमता के बिना सज़ा झेलने की शक्ति नाकाम देश की निशानी होती है. भारत को ये ज़रूर तय करना चाहिए कि वो क्या है. उसका ‘मौसम’ आ गया है.
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