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ऐसा माना जाता है कि कुछेक राजनीतिक नेता, जिनमें हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटीव (एचओआर) के स्पीकर अग्नि सापकोटा, नेपाली संसद की निचली सदन, सिर्फ़ एमसीसी के साथ के संबंधों की पुष्टि की वजह से सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रही है.
नेपाल: एमसीसी के अंतर्गत मिलने वाले अमेरिकी सहायता राशि से देश में उथल-पुथल
नेपाल ने, सितंबर 2017 में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (यूएसए) के ‘मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन-नेपाल (एमसीसी-नेपाल) के साथ यूएस $500 मिलियन राशि के अनुदान सहायता का संधि समझौता किया; एक वक्त में, ना तो राजनीतिक पंडित ना ही सरकार ने ही कभी ऐसी परिकल्पना की थी, कि उसके इस निर्णय से ऐसे किसी विवाद का जन्म होगा जो ना सिर्फ़ उनके समाज की समूची संरचना को विभाजित कर देगा बल्कि देश के भविष्य के लिए और भी बड़ा संकट खड़ा कर देगा. चार साल के पश्चात, ये संकट इतना बड़ा रूप ले चुका है कि प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में चल रही ये साझा सरकार कभी भी विभाजित या फिर टूट सकती है.
इस एमसीसी प्रोजेक्ट के ज़रिए, उम्मीद की जाती है कि नेपाल 400 kVA ट्रांसमिशन लाइंस की इलेक्ट्रिक ग्रिड विकसित कर पाएगा, जो कि ना केवल घरेलू बाजार में, अपितु भारत को भी ऊर्जा आयातित कर पाएगा. उसके साथ ही, एमसीसी को अमलीजामा पहनाने से नेपाली अर्थव्यवस्था में भी रोज़गार के अवसर बढ़ने की वजह से काफी तेज़ी आएगी साथ ही प्रति व्यक्ति आय में भी बढ़त दर्ज होगी. पर अगर इस समझौते को संसद द्वारा समर्थन प्राप्त नहीं होता है तो, इस बात की आशंका ज्य़ादा है कि देश के भीतर बिजली पैदा करने वाले उत्पादकों को सालाना 142 बिलियन रुपये का भारी नुकसान होगा. इसलिए, प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा पूरी चेष्टा कर रहे हैं कि किसी भी तरह से बग़ैर किसी देरी के एमसीसी का प्रस्ताव संसद में यथाशीघ्र पारित हो जाए, भले इस उस वजह से गठबंधन की सरकार को बांटना पड़ जाए. साथ ही, अगर वे संसद में पास कराने में असफल रहे तो संभवतः अंतरराष्ट्रीय पटल पर उनकी विश्वसनीयता में भी कमी आ सकती है.
अगर इस समझौते को संसद द्वारा समर्थन प्राप्त नहीं होता है तो, इस बात की आशंका ज्य़ादा है कि देश के भीतर बिजली पैदा करने वाले उत्पादकों को सालाना 142 बिलियन रुपये का भारी नुकसान होगा.
परंतु गठबंधन की सरकार में शामिल – कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल – माओइस्ट सेंटर (सीपीएन-एमसी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल – एकीकृत सोशलिस्ट (सीपीएन-यूएस) द्वारा इस मुद्दे पर अपना समर्थन देने की संभावना काफी क्षीण है. ये दोनों ही राजनीतिक दल, इस समझौते में चंद बदलाव चाहते थे, परंतु एमसीसी के भीतर किसी तरह के बदलाव को लेकर काफी कम जगह या उम्मीद है. वे इसका विरोध इसलिये करते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि इसमें सैन्य घटक मौजूद हैं, और साथ ही ये अमेरिका की एशिया पेसिफिक नीति के अंतर्गत आती हैं. उन्हें इस बात की भी भय है कि अगर एमसीसी को संसद से समर्थन मिला तो नेपाल की संप्रभुता भी ख़तरे में आ जाएगी.
कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि अगर एमसीसी द्वारा विकास के लिए दिया जाने वाले अनुदान राशि नेपाल के लिए छुआ-छूत तुल्य बन जाए, तो फिर वो ऐसी कई बहुपक्षीय एजेंसियों जैसे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अन्य बाइलेटरल साझेदार जैसे भारत, चीन, जर्मनी, अथवा ब्रिटेन से अनुदान कैसे ले पाएगा? ऐसी काफी विस्तृत धारणा फैल रही है कि अगर नेपाल एमसीसी के साथ अपनी स्थिति की पुष्टि नहीं करता है तो पश्चिमी ब्लॉक से मिलने वाली सहायता राशि पर काफी बुरी मार पड़ेगी. मीडिया रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि चीन ये हरगिज़ नहीं चाहता है कि नेपाल एमसीसी का समर्थन करें, क्योंकि ऐसा होने से 2017 में नेपाल और चीन के बीच बेल्ट एण्ड रोड इनिशियेटिव (बीआरआई) मसौदे पर बनी सहमति कमजोर पड़ सकती है. ऐसा माना जाता है कि कुछेक राजनीतिक नेता, जिनमें हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटीव (एचओआर) के स्पीकर अग्नि सापकोटा, नेपाली संसद की निचली सदन, सिर्फ़ एमसीसी के साथ के संबंधों की पुष्टि की वजह से सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रही है.
मीडिया रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि चीन ये हरगिज़ नहीं चाहता है कि नेपाल एमसीसी का समर्थन करें, क्योंकि ऐसा होने से 2017 में नेपाल और चीन के बीच बेल्ट एण्ड रोड इनिशियेटिव (बीआरआई) मसौदे पर बनी सहमति कमजोर पड़ सकती है.
अपने गठबंधन के सहयोगियों के बीच, एक-समान पोजीशन बनाने के प्रयास में, देउबा सरकार ने 19 दिसम्बर 2021 को एमसीसी के अंतर्गत यूएस ग्रांट के अध्ययन के लिए, एक टास्क फोर्स की स्थापना की. उससे पहले फ़रवरी 2020, ऐसी ही एक टास्क फोर्स भूतपूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल द्वारा बनायी गई थी जो कि अन्य पार्टी लीडर को एमसीसी के नफ़ा और नुकसान की जानकारी दे सके, परंतु सदस्यों के अंदर व्याप्त मतांतर की वजह से, दोनों ही टास्क फोर्स दुविधाजनक स्थिति में रही और उनका कोई नतीजा नहीं निकला.
कुछ राजनीतिक नेताओं की चिंता को दूर करने के लिए यूएसए के उच्च अधिकारियों के एक समूह ने, नेपाल का दौरा किया और इन नेपाली नेताओं को ये समझाने की कोशिश की कि इस एमसीसी के मसौदे में कोई भी सैन्य घटक का समावेश नहीं हैं. साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ दिया कि अगर नेपाल ने संसद में एमसीसी के प्रस्ताव को पास नहीं किया तो ये अनुदान, किसी अन्य देश को दे दिया जाएगा.
हालांकि, ये आश्चर्यजनक है कि नेपाली संसद द्वारा एमसीसी की अब तक किसी प्रकार की पुष्टि नहीं किए जाने के बावजूद भी वो पूरी तरह से क्रियाशील है. काठमांडू घाटी के उत्तरी जिले नुवाकोट में, इस प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन के एक काफी बड़े हिस्से को अधिग्रहण किया गया है, जिसके लिए काठमांडू ने एमसीसी के दफ्त़र को पहले ही चार बिलियन की राशि अदा कर दी गई है. इस कीमत की अदायगी यूएस $13 बिलियन के अतिरिक्त कोश से की गई है, जिसे नेपाली शासन प्रोजेक्ट के अमलीकरण के लिए दिए गए यूएस 500 मिलियन डॉलर के अमेरिकी अनुदान के अतिरिक्त अलग से नेपाल को दिया गया है, जिसमें से ये खर्च किया जा रहा है.
मीडिया रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि चीन ये हरगिज़ नहीं चाहता है कि नेपाल एमसीसी का समर्थन करें, क्योंकि ऐसा होने से 2017 में नेपाल और चीन के बीच बेल्ट एण्ड रोड इनिशियेटिव (बीआरआई) मसौदे पर बनी सहमति कमजोर पड़ सकती है.
6 फ़रवरी को हुए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, एमसीसी हेड्कॉर्टर के साथ साझा किए गए दो गोपनीय पत्र, मीडिया में लीक कर दिए गए थे – एक जो की 29 सितंबर को प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और माओवादी नेता पुष्प कुमार दहल ने संयुक्त रूप से हस्ताक्षर किए थे और दूसरा जो एमसीसी ने देउबा और दहल द्वारा 29 सितंबर को उनको लिखे गए पत्र के जवाब में उन्हें ही लिखा था. देउबा और दहल द्वारा 29 सितंबर को लिखे गए पत्र में, उन्होंने एमसीसी को इस बात के लिए आश्वस्त किया था कि अगले 4-5 महीनों में वे संसद में, एमसीसी को अपना अनुसमर्थन दिला पाने में सफल होंगे. साथ ही उन्होंने इस बात के लिए भी अपनी प्रतिबद्धता जतलायी कि वे विभिन्न राजनीतिक दलों को इस अवधि में उन्हें अपना समर्थन देने के लिए राज़ी करने की कोशिश करेंगे. चूंकि अगले 28 फ़रवरी को उनके द्वारा दिए गये पाँच महीने का वक्त़ बीत जाएगा, तो प्रतिउत्तर में एमसीसी ने, दोनों ही नेताओं से अपने वादे पर कायम रहने को कहा है. इन दोनों नेताओं को लिखे पत्र में एमसीसी ने खुले तौर पर धमकी देते हुए कहा कि एमसीसी को अपने अनुसमर्थन देने में असफल होने की स्थिति में इसके मायने ये होंगे की मार्च 2022 में होने वाली उनकी बोर्ड मीटिंग के दरम्यान नेपाल के साथ एमसीसी की साझेदारी ख़त्म हो जाएगी.
अब प्रधानमंत्री देउबा को ही तय करना है कि उस एमसीसी मुद्दे की वजह से उपजे हालात से कैसे निपटेंगे जो कि देश का भविष्य तय करेगा.
इस गोपनीय पत्र के लीक होने की घटना की वजह ने माओवादी नेता दहल को एक मुश्किल स्थिति में ला खड़ा कर दिया है, क्योंकि सार्वजनिक तौर पर वो बोलते रहे है कि वे एमसीसी में जब तक सुधार लागू नहीं किए जाते तब तक वे उसे अपना समर्थन नहीं देंगे, वहीं दूसरी तरफ, उन्होंने एमसीसी को अपने स्पष्ट समर्थन के प्रति आश्वस्त किया, चूंकि उस पत्र में एमसीसी के खण्ड (क्लाउसेस) में सुधार का कोई भी जिक्र नहीं हैं. ये अब तक पता नहीं चल पाया है कि उस गोपनीय पत्र को मीडिया को किसने लीक किया था, परंतु इसने निश्चित तौर पर दोनों ही गठबंधन सहयोगी नेपाली कॉंग्रेस और सीपीएन- एमसी के बीच मतभेद ज़रूर उत्पन्न कर दिए हैं.
अब ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के दोनों ही गठबंधन सहयोगियों के बीच मतभेद इतने गहरे हो चुके हैं कि अब एमसीसी के अनुसमर्थन के मुद्दे पर कोई एक स्टैंड ले पाना दोनों ही के लिए काफी मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में, इस बात की काफी संभावना है कि नेपाल में इस गठबंधन की सरकार कहीं टूट ना जाए. पर प्रधानमंत्री देउबा के लिए इस गठबंधन की सरकार को तोड़ पाना इतना भी आसान नहीं होगा. अगर वे इस गठबंधन को तोड़ने का जोख़िम लेकर के.पी.शर्मा ओली की अगुवायी में सीपीएन-यूएमएल और महंत ठाकुर की अगुवायी में लोकतांत्रिक समाजबादी पार्टी की मदद से संसद में एमसीसी को अपना अनुसमर्थन दिला पाते हैं – तो ये संभव होगा, क्योंकि एक साथ मिलकर ये तीनों पूर्ण बहुमत बनाने में सक्षम होंगे – ऐसे में वे एक और संभावना को जन्म देते हैं जहां कम्युनिस्ट ब्लॉक के तीन धड़े – दहल की अगुवायी में पहला और दूसरा धड़ा माधव कुमार नेपाल, के.पी.शर्मा ओली की अगुवायी में सीपीएन – यूएमएल के साथ मिल सकता है. ऐसी स्थिति में, नेपाली कॉन्ग्रेस जिसके नेता देउबा हैं, उनके लिए आगामी स्थानीय चुनाव में जो कि मई महीने में होने वाली है, साथ ही फिर 2022 में होने वाले प्रांतीय और लोकतांत्रिक चुनाव में इनका सामना करना काफी मुश्किल होगा. इसलिए ये अब प्रधानमंत्री देउबा को ही तय करना है कि उस एमसीसी मुद्दे की वजह से उपजे हालात से कैसे निपटेंगे जो कि देश का भविष्य तय करेगा.
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Hari Bansh Jha was a Visiting Fellow at ORF. Formerly a professor of economics at Nepal's Tribhuvan University, Hari Bansh’s areas of interest include, Nepal-China-India strategic ...
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