Author : Ramanath Jha

Published on Dec 27, 2021 Updated 0 Hours ago

सरकारों को चाहिए कि वो अस्पतालों में बिजली के रख-रखाव के मसलों को हल करें, ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि भविष्य में ऐसी आपदाएं न हों.

अस्पतालों में बार-बार लगती आग को कैसे हल किया जाए?

जिन अस्पतालों में बीमार अपना इलाज कराने और सेहतमंद होने के लिए जाते हैं, वहां अगर इंसानों की मौत होने लगे, तो भला इससे बड़ी और कौन सी त्रासदी हो सकती है? नवंबर 2021 के पहले महीने में अहमदनगर के 500 बेड वाले सरकारी अस्पताल की इंटेंसिव केयर यूनिट (ICU) में भयंकर आग लग गई. इस आग ने 11 मरीज़ों की जान ले ली. ये त्रासदी और भयावाह इसलिए हो गई, क्योंकि ये मरीज़ कोविड-19 के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती थे और सेहतमंद होने की लड़ाई लड़ रहे थे. हालांकि, उनकी जान वायरस ने नहीं ली. वो दम घुटने और जलने से हुए जख़्मों से मौत के शिकार हुए. इसके कुछ दिनों बाद भोपाल में नवजात बच्चों की देखभाल के विशेष वार्ड (SNCU) को आग ने अपनी चपेट में ले लिया. इसमें चार ऐसे बच्चे मर गए, जिन्होंने अभी बस दुनिया में क़दम रखा ही था. इससे पहले, 9 जनवरी 2021 को भंडारा के ज़िला अस्पताल में आग लग गई थी. नवजात बच्चों के ICU वार्ड में लगी इस आग में जल दस बच्चों की जान चली गई थी. ये सभी अस्पताल सरकारी इकाई थे और नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा देने की सरकार की ज़िम्मेदारी निभा रहे थे. हर दुर्घटना में आग ने अस्पताल की विशेष इकाई को अपनी चपेट में लिया. अस्पतालों में आग लगने की इन सभी घटनाओं की वजह की पड़ताल की गई, तो यही पता चला कि बिजली की गड़बड़ी और उसमें भी मुख्य रूप से शॉर्ट सर्किट से आग लगी थी.

 ‘सरकार अस्पताल में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों पर आरोप लगाने के बजाय लोक निर्माण विभाग और बिजली विभाग के अधिकारियों से ये क्यों नहीं पूछती कि वो अस्पताल का रख-रखाव किस तरह कर रहे थे कि वहां आग लग गई’. 

महाराष्ट्र सरकार ने अस्पतालों में आगज़नी की इन घटनाओं पर कार्रवाई करते हुए चीफ मेडिकल अफ़सर- सिविल सर्जन और स्वास्थ्य सेवा देने वाले नर्स जैसे निचले स्तर के कर्मचारियों को निलंबित कर दिया. बाद में हादसे वाले दिन ड्यूटी पर तैनात सबसे वरिष्ठ डॉक्टर और तीन नर्सों को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था. सरकार की इस कार्रवाई से इन अस्पतालों में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी और मेडिकल समुदाय में नाराज़गी फैल गई. उनका ये मानना था कि अस्पताल में बिजली के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी मेडिकल स्टाफ की नहीं होती. न ही उन्हें इसकी कमी-बेशी के बारे में कोई जानकारी होती है. इसके बाद हड़तालें हुईं, विरोध प्रदर्शन हुए. मेडिकल कर्मचारियों का एक बड़ा तबक़ा ऐसे तनावपूर्ण माहौल में काम करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, अहमद नगर के अध्यक्ष ने चीफ मेडिकल अधिकारी और नर्सों के ऊपर धारा 304 और 304AA लगाने पर हैरानी जताई. उन्होंने सवाल उठाया कि, ‘सरकार अस्पताल में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों पर आरोप लगाने के बजाय लोक निर्माण विभाग और बिजली विभाग के अधिकारियों से ये क्यों नहीं पूछती कि वो अस्पताल का रख-रखाव किस तरह कर रहे थे कि वहां आग लग गई’. लेकिन, अस्पतालों में आग लगने की इन तीनों ही घटनाओं में मेडिकल स्टाफ पर ही कार्रवाई की गई. भोपाल में अस्पताल के निदेशक के साथ तीन मेडिकल अधिकारियों को उनके पदों से हटा दिया गया. भंडारा में भी अनुशासनात्मक कार्रवाई का पहला शिकार मेडिकल स्टाफ ही बना.

अहमदनगर में फायर ब्रिगेड विभाग ने चेतावनी दी थी, इसके बावजूद अस्पताल में आग बुझाने के उपकरण नहीं मौजूद थे, और न ही आग पर क़ाबू पाने के लिए पानी के छिड़काव की व्यवस्था थी. अस्पताल में धुआं उठने पर उसका पता लगाने वाले उपकरण भी नहीं लगे थे. घटना के बाद राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने एलान किया कि ज़िला अस्पतालों की सुरक्षा की समीक्षा की जाएगी. महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री ने ये भी कहा कि सभी ज़िला अस्पतालों में फायर सेफ्टी ऑफ़िसर का पद बनाया जाएगा. ये घोषणाएं अपने आप में इस बात की गवाही देती हैं कि इससे पहले सरकारी अस्पतालों में आगज़नी के पहलू को पर्याप्त तवज्जो नहीं दी गई थी. इसी तरह का एलान मध्य प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री ने भी किया. उन्होंने ये भरोसा दिया कि अस्पतालों की बिजली इकाई को अपग्रेड किया जाएगा और एलान किया कि चिकित्सा शिक्षा विभाग के तहत सिविल इंजीनियरिंग की एक अलग विंग बनाई जाएगी. भंडारा में नवजात बच्चों के विशेष वार्ड का विस्तार करने और इसके निर्माण के लिए एक करोड़ रुपए की रक़म को मंज़ूरी दी गई. ये निर्माण तो हुआ लेकिन, इस बिल्डिंग के लिए न तो फायर क्लियरेंस लिया गया, और न ही अस्पताल की इस इकाई में बिजली की फिटिंग की निगरानी किसी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर ने की.

संकट के दौरान इतना समय नहीं था कि अस्पतालों में बिजली की व्यवस्था सुधारने पर भी ध्यान दिया जा सकता. 

ख़बरों के मुताबिक़ अगस्त 2020 से अप्रैल 2021 के बीच अस्पतालों में आग लगने की घटनाओं में कुल 93 लोगों जान गई. इनमें से आग लगने की ज़्यादातर घटनाएं, मार्च से अप्रैल 2021 के दौरान हुईं, जब देश में कोविड-19 की दूसरी लहर का प्रकोप था. इसके अलावा, 2010 से 2019 के दौरान, 100 बेड से ज़्यादा क्षमता वाले बड़े अस्पतालों में आग लगने की 33 घटनाओं पर किए गए अध्ययन में पता ये चला कि आग लगने की ज़्यादातर घटनाओं के पीछे बिजली व्यवस्था की गड़बड़ी थी, और इनमें से भी 78 फ़ीसद दुर्घटनाएं शॉर्ट सर्किट से हुई थीं. इन अस्पतालों के एयर कंडिशनर आग लगने की घटनाओं के मुख्य स्रोत थे.

शहरों के अस्पतालों में बार-बार आग लगने के इन हादसों के पीछे कई कारण बताए जा सकते हैं. पहली बात तो ये कि भारत में ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों पर मरीज़ों की भारी संख्या का दबाव है. ये बात आम हालात में भी बनी रहती है. महामारी के कारण, अस्पतालों पर मरीज़ों का बोझ और भी बढ़ गया. मरीज़ों की बड़ी संख्या की देखभाल के लिए अस्पतालों में अतिरिक्त बेड, उपकरणों और कर्मचारियों की व्यवस्था करनी पड़ी. लेकिन, संकट के दौरान इतना समय नहीं था कि अस्पतालों में बिजली की व्यवस्था सुधारने पर भी ध्यान दिया जा सकता. इसका नतीजा ये हुआ कि अस्पतालों में बिजली की वायरिंग पर उनकी क्षमता से कहीं ज़्यादा दबाव बढ़ गया. बिजली की व्यवस्था का क्षमता से ज़्यादा इस्तेमाल हुआ, तो तारें गर्म हो गईं, जिनसे आग लगी. विशेष निगरानी वाली इकाइयों में बेड की संख्या बढ़ाने से न सिर्फ़ बिजली की वायरिंग पर दबाव बढ़ा, बल्कि तारों के गर्म होने से आग लगने का जोखिम भी बढ़ गया. जैसे मेडिकल कर्मचारियों को नई चुनौती के लिए तैयार होने से पहले आराम की ज़रूरत होती है. उसी तरह एयर कंडिशनिंग सिस्टम को भी बीच-बीच में ब्रेक चाहिए होता है. हालांकि, न तो अस्पतालों के पास सांस लेने की फ़ुरसत थी, और न ही उनकी बिजली व्यवस्था को इसका वक़्त मिल सका.

कोरोना की दूसरी लहर इतनी भयावह थी कि ऐसी नाकामियों की कुछ गुंजाइश रह ही जाती है. लेकिन, अस्पतालों में तो आग लगने की घटनाएं दूसरे वक़्तों में भी हुईं. हम लगातार ये कहते रहे हैं कि सरकारी संगठन इमारतें बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं. लेकिन, इन इमारतों के नियमित रूप से रख-रखाव के काम में भारी कमी पाई गई है. इसी तरह सरकारों ने भी अस्पतालों में तमाम सुविधाएं और बिजली के अच्छे उपकरण लगाने और उनके ठीक रख-रखाव के लायक़ पैसे देने में कंजूसी करती रही हैं. ऐसे में अस्पतालों में बिजली व्यवस्था के रख-रखाव में कमी के लिए मेडिकल स्टाफ को ज़िम्मेदार ठहराना एक मज़ाक़ के सिवा कुछ नहीं है. मेडिकल स्टाफ का काम मरीज़ों का इलाज करना और उनकी देख-भाल करना है. अस्पतालों की ज़रूरतें पूरी करने लायक़ कर्मचारियों और पैसे की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से राज्य सरकारों और स्थानीय नगर निकायों की है.

अस्पतालों का सेफ्टी ऑडिट और फायर सेफ्टी ऑडिट भी नियमित रूप से किया जाना चाहिए, ताकि ये पता लगाया जा सके कि अस्पताल में आग बुझाने के उपकरण ठीक ढंग से काम कर रहे हैं या नहीं.

ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि अस्पतालों को अपनी बिजली व्यवस्था को सुधारना चाहिए और उनका विस्तार करना चाहिए. इसके साथ-साथ सरकारों को ये भी तय करना चाहिए कि किसी अस्पताल में एक वक़्त पर ज़्यादा से ज़्यादा कितने मरीज़ों का इलाज किया जा सकता है. ये संख्या किसी अस्पताल के संसाधनों और बिजली के उपकरणों की क्षमता के आधार पर तय की जानी चाहिए. संकट के समय अस्पताल के लिए तय सीमा से ज़्यादा मरीज़ रखना एक गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए और वैसी सूरत में अस्पताल के बिजली के सिस्टम पर कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए. हर अस्पताल में लोक निर्माण विभाग के सिविल और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के कर्मचारी भी होने चाहिए. इससे ये कर्मचारी अस्पताल की बिजली व्यवस्था की नियमित रूप से पड़ताल करते रहेंगे. विशेषज्ञों ने तो बिजली के उपकरणों को सावधानी से उचित जगह पर लगाने और ज़्यादा ऑक्सीजन वाले इलाक़ों में बिजली के उपकरणों की नियमित रूप से निगरानी जैसे सरल उपाय भी सुझाए हैं, ताकि अस्पतालों में आग लगने की घटनाएं रोकी जा सकें. इंटेंसिव केयर यूनिट (ICU) वाले इलाक़ों में ऑक्सीजन की निगरानी के उपकरण लगाने के सुझाव भी दिए गए हैं. इसके अलावा जल्दी से आग पकड़ने वाले सामान और गैस की आपूर्ति के सेंट्रल पाइप को भी मरीज़ों की देखभाल वाले इलाक़ों से दूर रखा जाना चाहिए. इसके लिए आग की घटना को तुरंत पकड़ पाने और उस पर नियंत्रण करने के सख़्त नियमों का पालन किया जाना चाहिए. अस्पतालों का सेफ्टी ऑडिट और फायर सेफ्टी ऑडिट भी नियमित रूप से किया जाना चाहिए, ताकि ये पता लगाया जा सके कि अस्पताल में आग बुझाने के उपकरण ठीक ढंग से काम कर रहे हैं या नहीं.

अस्पताल के सभी कर्मचारियों को आग बुझाने के उपकरण चलाने और आग से निपटने की तैयारी करने का प्रशिक्षण देना भी बहुत ज़रूरी है. विशेषज्ञों का सुझाव है कि एयर हैंडलिंग यूनिट (AHU) को भी इंटेंसिव केयर यूनिट (ICU) में लगाया जाना चाहिए, ताकि वो हवा का प्रवाह नियमित कर सके. एयर हैंडलिंग यूनिट, माहौल से हवा लेकर, कंडीशन करके उसे किसी इमारत या इमारत के एक हिस्से पाइप के ज़रिए सर्कुलेट करती हैं. आग लगने के पुराने हादसों से सबक़ लेते हुए, सरकारी अधिकारियों को चाहिए कि अस्पतालों को आग से सुरक्षित बनाएं और उन्हें स्वास्थ्य की अच्छी सेवा देने वाली इकाइयों के तौर पर काम करने दें.

इस बारे में इस बात का ज़िक्र करना भी उचित होगा कि सरकार द्वारा चलाए जाने वाले और अन्य सभी अस्पतालों को नेशनल एक्रेडिटेशन फॉर हॉस्पिटल्स ऐंड हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स (NABH) के दायरे में लाया जाना चाहिए. ये भारत में क्वालिटी काउंसिल ऑफ़ इंडिया की सदस्य संस्था है. इसकी स्थापना स्वास्थ्य संगठनों को प्रमाणित करने और उन्हें मान्यता देने का कार्यक्रम चलाने के लिए की गई थी. इस क़दम से मरीज़ों की सुरक्षा और इलाज की अच्छी व्यवस्था पर ज़रूरी ध्यान दिया जा सकेगा और तय मानकों के आधार पर अस्पताल ख़ुद से और बाहरी विशेषज्ञों के ज़रिए अपना मूल्यांकन करा सकेंगे.

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