Author : Terri Chapman

Published on Sep 22, 2017 Updated 15 Days ago

रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर भारत की जबरन वापसी न करने (नॉन-रिफाउलमेंट) के सिद्धांत से विमुख होने का फैसला एक अदूरदर्शी रणनीति साबित हो सकती है जिसके व्यापक निहितार्थ हो सकते हैं।

कितनी उचित है रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर भारतीय रणनीति

राखिने, जून 2014

भारत ने म्यांमार के मुस्लिम अल्पसंख्यक समूह के 49,000 रोहिंग्या शरणार्थियों को निर्वासित कर देने की धमकी दी है। यह एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की म्यांमार की मौजूदा यात्रा म्यांमार के साथ भारत के आर्थिक और रणनीतिक एजेंडा के लिए द्विपक्षीय संबंधों के महत्व का एक उदाहरण है। बढ़ते संघर्षों को लेकर भारत का रुख एवं म्यांमार सरकार को समर्थन का फैसला अदूरदर्शी है। मानवाधिकार उल्लंघनों एवं म्यांमार के पश्चिमी राज्य राखिने से लोगों के भारी संख्या में पलायन की समस्या से समुचित तरीके से निपटने में म्यांमार की विफलता के लिए म्यांमार सरकार की आलोचना से भारत के इंकार से भले ही अगले दो दिनों में म्यांमार के साथ बातचीत आसान हो सकती है लेकिन यह लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल साबित नहीं होगी, जिसका भारत के आर्थिक हितों पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा।

बढ़ते उत्पीड़न और हिंसा के कारण हाल के हफ्तों में 100,000 से अधिक रोहिंग्या म्यांमार से भाग चुके हैं। म्यांमार सरकार के अधिकारी एवं सुरक्षा बल लगातार म्यांमार की रोहिंग्या आबादी के साथ भेदभाव करते आ रहे हैं जिनमें उनकी आवाजाही पर पाबंदी और शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीतिक अधिकारों, दस्तावेजीकरण तथा नागरिकता से वंचित रखना शामिल है। अक्तूबर, 2016 में आतंकी हमलों के बाद से रोहिंग्या नागरिकों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की कई रिपोर्ट सामने आई हैं जिनमें आग लगाने, गैर कानूनी तरीकेे से हत्याओं तथा सुनियोजित बलात्कार की वारदातें शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, अराकान रोहिंग्या सैलवेशन आर्मी (एआरएसए) द्वारा 25 अगस्त को भी आतंकी हमले किए गए। इसके प्रत्युत्तर में, अत्याधिक सैनिक कार्रवाई की गई जिसके कारण बड़ी संख्या में रोहिंग्या नागरिकों ने पलायन किया और वे भाग कर समीपवर्ती देश बाग्ला देश और भारत चले आए।

एक उभरती वैश्विक और क्षेत्रीय शक्ति के रूप मे भारत को जबरन वापसी न करने के उस सिद्धांत को स्वीकार करना चाहिए तथा उसका अनुपालन करना चाहिए, जिसके अनुसार कोई भी देश, चाहे उसका कोई भी हस्ताक्षरकर्ता दर्जा हो, शरणार्थियों को वैसे देशों में निष्काषित किए जाने से रोक सकता है, जहां उनका उत्पीड़न किए जाने का पूरा भय हो। जबरन निष्कासन न करने के सिद्धांत के प्रति भारत का सम्मान न केवल इन शरणार्थियों के जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक है बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं एवं कानून के प्रति भारत के सम्मान का समर्थन भी करता है और भारत के रणनीतिक पड़ोसी देश में सुरक्षा और शांति की संभावना सुनिश्चित करता है।

भारत म्यांमार में रोहिंग्याओं पर किए जा रहे उत्पीड़न से बखूबी वाकिफ है। भारत से रोहिंग्याओं को निर्वासित किया जाना कोई तर्कसंगत विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि म्यांमार एवं बांग्ला देश ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया है।

भारत म्यांमार में रोहिंग्याओं पर किए जा रहे उत्पीड़न से बखूबी वाकिफ है। भारत से रोहिंग्याओं को निर्वासित किया जाना कोई तर्कसंगत विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि म्यांमार एवं बांग्ला देश दोनांे ने ही उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया है। इन शरणार्थियों को निर्वासित किया जाना कानूनी एवं लॉजिस्टिक्स-दोनों ही नजरिये से नामुमकिन सा माना जा रहा है और इसकी व्यापक भर्त्सना भी की जा रही है। इस ज्वलंत मुद्वे के समाधान के लिए अधिक विवेकपूर्ण रणनीति बनाई जाने की आवश्यकता है।

भारत की घोषणा से अंतरराष्ट्रीय प्रथा एवं कानून के प्रति इसकी घोर उपेक्षा का संदेश जाएगा जो एक अधिकृत वैश्विक शक्ति के रूप में दुनिया में भारत की छवि को नुकसान पहुंचाएगा। हालांकि भारत उन चंद देशों में शामिल है जो शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित 1951 की संधि या 1967 के समझौते का पक्षकार नहीं है, तब भी भारत अंतरराष्ट्रीय प्रथागत कानूनों का अनुपालन करने के लिए बाध्य है। इसमें शरणार्थियों के निर्वासन को रोकना, भले ही उनके मेजबान देश में उनका कोई भी कानूनी अधिकार हो या नहीं, तथा प्रभावी एवं उचित शरणार्थी स्थिति निर्धारण प्रक्रियाओं की स्थापना शामिल है। भारत को इन प्रथागत कानूनों का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि इन्हें व्यापक रूप से एवं कानूनी तौर पर बाध्यकारी माना जाता है जिसमें 145 हस्ताक्षरकर्ता देश शामिल हैं। भारत ने जबरन निष्कासन के सिद्धांत समेत शरणार्थियों के अधिकार के प्रावधानों के साथ अन्य मानवाधिकार समझौतों को स्वीकार किया है। इन बाध्यताओं और कानूनी ढांचों के प्रति भारत द्वारा अनादर का भाव वैश्विक राजनीति में भारत की भूमिका को लेकर जायज सवाल खड़े कर सकते हैं।

बताया जाता है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने रोहिंग्या अप्रवासियों की तुलना अवैध अप्रवासियों से की है। उनके वक्तव्यों को आम तौर पर शरणार्थियों के प्रति भारत के उदारवादी रवैये के विरोधाभास के रूप में देखा जा रहा है। राज्यों से शरणार्थियों की पहचान करने एवं उन्हें निर्वासित करने की अभूतपूर्व अपील से भारत में रोहिंग्या समुदायों के खिलाफ हिंसा के और भड़क जाने की आशंका और भी बलवती हो गई है।

इसे दुरुस्त करने के लिए भारत को 16,500 रोहिंग्याओं के शरणार्थी दर्जे को मान्यता देने के द्वारा अपनी बाध्यताओं का सम्मान करना चाहिए जिन्हें पहले ही भारत में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा शरणार्थी का दर्जा प्राप्त हो चुका है, साथ ही, भारत को उन्हें बिना निर्वासन के खतरे के, भारत में बने रहने की अनुमति देने के जरिये शरण मंागने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए शरणार्थी दर्जे के वर्तमान निर्धारण की इजाजत भी देनी चाहिए। एक उभरती महाशक्ति के रूप में, भारत अंतरराष्ट्रीय प्रथाओं एवं कानूनों को आकार देने एवं उन्हें बनाये रखने में अहम भूमिका निभा सकता है। ऐसे देश में 40,000 शरणार्थियों को निर्वासित कर देना, जहां उन्हें बिना किसी निष्पक्ष जांच के आपराधिक सजाओं, जबरन गायब किए जाने, मनमाने ढंग से गिरफ्तारी एवं हिरासत, उत्पीड़न एवं दुव्यर्वहार और जबरन बेगारी का सामना करना पड़े, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कोई ऐसा संदेश नहीं देता कि भारत अंतरराष्ट्रीय सुव्यवस्था की स्थापना करने एवं उसे बनाये रखने में कोई सार्थक भूमिका निभाने के लिए तैयार है।

भारत द्वारा म्यांमार की सरकार को अदूरदर्शी समर्थन से शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने की दिशा में कोई प्रगति नहीं होगी। भारत ने निर्वासन की धमकी देने के जरिये रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति अपने रुख की फिर से पुष्टि कर दी। म्यांमार के साथ संबंध बनाने के लिए एक अधिक सुनियोजित रणनीति बनाये जाने की आवश्यकता है। भारत को चाहिए कि वह म्यांमार सरकार को वर्तमान में जारी अपने आंतरिक संघर्ष के समाधान के लिए प्रोत्साहित करे। म्यांमार सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों और प्रथाओं में उल्लेखनीय बदलावों के बगैर संघर्ष एवं हिंसा में कमी आती नहीं प्रतीत होती।

म्यांमार में शांति एवं स्थिरता बनाये रखना भारत के आर्थिक हित में है क्योंकि म्यांमार की व्याख्या देश की ‘पूरब के लिए काम करो’ नीति के एक ‘मुख्य स्तंभ’ के रूप में की गई है। इस नीति में आर्थिक सहयोग, सांस्कृतिक रिश्तों को बढ़ावा देने तथा एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ रणनीतिक संबंध विकसित करने पर जोर दिया गया है। इस पहल के तहत एक परियोजना भारत-म्यांमार कलादान मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्टेशन प्रोजेक्ट है जिसका प्रयोजन पूर्व एशिया के साथ संपर्क बढ़ाना है।

म्यांमार में शांति एवं स्थिरता बनाये रखना भारत के आर्थिक हित में है क्योंकि म्यांमार की व्याख्या देश की ‘पूरब के लिए काम करो’ नीति के एक ‘मुख्य स्तंभ’ के रूप में की गई है।

चीन के साथ प्रतिस्पर्धा एक अन्य कारण है जो म्यांमार में भारत के हितों को आकार दे रहा है। चीन के ने हाल के वर्षों में म्यांमार में बहुत अधिक पैठ बना ली है और वन बेल्ट वन रोड पहल के अनुरूप अपनी परियोजनाओें में भारी निवेश कर रहा है। भारत भी निवेश बढ़ाने का जोरदार प्रयास कर रहा है लेकिन म्यांमार में बगैर राजनीतिक अस्थिरता आए तथा वर्तमान में जारी उत्पीड़न और हिंसा के समाप्त हुए म्यांमार में भारत की आर्थिक और राजनीतिक पहल अवास्तविक तथा अस्थायी ही बनी रहेगी। भारत को म्यांमार के साथ अपने द्विपक्षीय संबंध को मजबूत बनाने के लिए अनिवार्य रूप से एक दीर्घकालिक रणनीति बनाने की आवश्यकता है।

जबरन निकासी के खिलाफ कदम उठाने से ऐसे व्यक्तियों को सुरक्षा मिलेगी जिन्हें इसकी बेहद आवश्यकता है। यह भारत को अंतरराष्ट्रीय नियमों और कानून का अनुपालन करने की उसकी तत्परता और वैश्विक तथा क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत की बेहतर स्थिति को भी प्रदर्शित करेगा।

इसके अतिरिक्त, भारत को म्यांमार के साथ ऐेसे द्विपक्षीय संबंध बनाने चाहिए जो दीर्घकालिक आर्थिक और राजनीतिक हितों की सुरक्षा करे न कि ऐसे संबंध, जिनसे केवल अल्पकालिक एजेंडे को बढ़ावा मिलता हो।

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