Published on Dec 13, 2019 Updated 0 Hours ago

भारतीय कर्ज़ से भारत की साख को प्राप्तकर्ता देशों में बढ़ाते हैं, लेकिन इस पूरे क्षेत्र में भारत के कारोबारी हितों को बढ़ाने में उनकी भूमिका कम ही है.

अफ्रीकी देशों में भारत की आर्थिक कूटनीति कितनी कारगर?

भारत में उदारीकरण के चलते अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव आया है और इसने भारत की विदेश नीति पर भी गहरा असर डाला है. आर्थिक कूटनीति भारतीय विदेश नीति की मुख्य विशेषता बन चुकी है, और इन वर्षों में उसकी ऊंची वृद्धि दर ने अफ्रीका और पड़ोस के अन्य विकासशील देशों के साथ विकास सहयोग कार्यक्रम का विस्तार करने में भारत को सक्षम बनाया है. 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों से लेकर, भारत ने रियायती कर्ज़ की पेशकश को विकास में साझेदारी का अपना मुख्य साधन बनाया. भारत ने इस व्यवस्था के ज़रिये अफ्रीका और एशिया के अन्य विकासशील देशों को एक वैकल्पिक प्रोजेक्ट फाइनेंसिंग की पेशकश किया है जिससे और नये बाज़ारों में भारतीय कंपनियों के प्रवेश के मौके भी पैदा करता है. भारत द्वारा दिया जा रहा कर्ज़ पूरी तरह मांग-आधारित, परस्पर लाभकारी, और लेनदार-देनदार से जुड़ी पारंपरिक शर्तों के बोझ से मुक्त है. एक्जिम बैंक के लगभग 60 देशों में 24.8 अरब अमेरिकी डॉलर के कर्ज़ चालू स्थिति में हैं.

भारतीय मीडिया भारत के विकास सहयोग कार्यक्रम के सटीक लक्ष्य की शिनाख़्त करने, और देश के लिए उसी अनुपात में प्रतिफल देने वाला है या नहीं, जैसे अहम सवालों की गहराई में अभी तक नहीं उतरा है.

इतने नाटकीय बदलावों के बावजूद, भारत में विदेश नीति पर जो लोकप्रिय विमर्श है अब भी उसका पूरा ध्यान राजनीतिक और रणनीतिक मुद्दों पर ही है. ब्रिटेन जैसे देशों से अलग, हमारे यहां विदेशी मदद पर सवाल करने का चलन नहीं है. मसलन, भारतीय मीडिया भारत के विकास सहयोग कार्यक्रम के सटीक लक्ष्य की शिनाख़्त करने, और देश के लिए उसी अनुपात में प्रतिफल देने वाला है या नहीं, जैसे अहम सवालों की गहराई में अभी तक नहीं उतरा है. हालांकि, इन सवालों से ज्यादा समय तक बच पाना संभव नहीं होगा. ऐसे समय में जब भारतीय अर्थव्यवस्था मंद पड़ रही है, भविष्य में समुचित लाभ के बिना, वैश्विक विकास के लिए संसाधनों के आवंटन को देश के लोगों के समक्ष न्यायसंगत ठहराना लगातार कठिन होता जायेगा.

जैसाकि ऊपर कहा गया है, ओईसीडी-डीएसी देशों से अलग, भारत लेनदार-देनदार के रिश्ते में विश्वास नहीं करता, बल्कि परस्पर लाभ के लिए साझेदारी में यकीन रखता है. यानी, भारत की विकास सहयोग रणनीति में स्वहित को स्वीकार किया गया है, लेकिन फायदा दोनों देशों को होना चाहिए. एक्जिम बैंक की वेबसाइट साफ कहती है कि दिये जानेवाले कर्ज़ के मुख्य उद्देश्यों में से एक है भारतीय निर्यातकों के लिए नये बाजारों में प्रवेश और मौजूदा बाजारों में उनकी मौजूदगी के विस्तार में मदद करना. हालांकि, अभी तक हमारे पास इस कर्ज़ कार्यक्रम का कोई वस्तुनिष्ठ विश्लेषण नहीं है जिससे इसके फ़ायदों का सटीक आकलन किया जा सके. मसलन, भारत अफ्रीकी देशों को दिया जाने वाला रियायती कर्ज़ अब तक 8.7 अरब डॉलर तक बढ़ चुका है, लेकिन हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि अफ्रीका का भारतीय निर्यात 2014 के बाद से गिरा है. 75 प्रतिशत सामग्री की अनिवार्य शर्त के अलावा, इस बात के सबूत कम ही हैं कि भारतीय कर्ज़ ने प्राप्तकर्ता देशों में भारत के निवेश और व्यापारिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाया है. भारतीय निवेश और अफ्रीका में दिये जा रहे कर्ज़ पर मेरा शोध यह उजागर करता है कि अफ्रीका में भारतीय निवेश और भारतीय कर्ज़ अच्छे ढंग से एकसीध में नहीं हैं. कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, और वियतनाम (आम तौर पर सीएलएमवी देश के रूप में जाने जाते हैं) पर हुए इसी तरह के अध्ययन ने भी उजागर किया कि भारतीय कर्ज़ से भारत की साख़ को प्राप्तकर्ता देशों में बढ़ाते हैं, लेकिन इस पूरे क्षेत्र में भारत के कारोबारी हितों को बढ़ाने में उनकी भूमिका कम ही है. शोध से यह भी पता चलता है कि प्रोजेक्ट पूरे करने के मामले भारत का हाल खराब है; इतना ही नहीं, कर्ज़ की राशि उपलब्ध कराये जाने की गति भी बहुत धीमी है. अपनी विकास सहयोग पहलकदमियों के ज़रिये भारत अपनी एक वैश्विक छवि बनाना चाह रहा है, इसे देखते हुए प्रोजेक्ट को ज़मीन पर उतारने में ऐसी देरी देश की साख़ पर बट्टा लगाती है और कीमती सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी करती हैं. इस बात पर ध्यान देना भी अहम है कि अफ्रीका, और पड़ोस के प्राप्तकर्ता देशों की काफी सस्ती दरों पर वित्तीय संसाधनों तक पहुंच है, वह भी तब जबकि भारत के मुकाबले चीन और अन्य देशों का प्रोजेक्ट लागू करने में कहीं बेहतर ट्रैक रिकॉर्ड रखता है. इसलिए, प्रोजेक्ट लागू करने संबंधी समस्याओं का तुरंत समाधान होना चाहिए.

आर्थिक कूटनीति की संभावनाओं को केवल विदेश मंत्रालय तक सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि आर्थिक कूटनीति में राष्ट्रहित के लिए आर्थिक पक्षों के सभी पहलुओं को इस्तेमाल किये जाने की ज़रूरत होती है

फिलहाल, भारत का कर्ज़ प्रदान कार्यक्रम (जो विकास सहयोग का मुख्य़ साधन है) अकेले-अकेले काम करनेवाले कूटनीतिक उपकरण के रूप में चल रहा है, और यह देश के आर्थिक हितों के साथ अपनी लय-गति में नहीं है. अपनी साख बनाना भी विकास सहयोग का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है, लेकिन परस्पर लाभ और भारत के विकास की चुनौतियों पर जोर को देखते हुए, भारत को इस कार्यक्रम से आर्थिक फायदे का आकलन करने की भी ज़रूरत है. अपनी आर्थिक विकास पहलकदमियों से समानुपातिक लाभ पाने के लिए, भारत को अपनी आर्थिक विकास रणनीति को नयी दिशा देनी चाहिए जिससे वह आर्थिक रूप से ज्यादा उत्पादक बने. साथ ही, उन देशों और सेक्टरों को प्राथमिकता देनी चाहिए जिनमें उसके महत्वपूर्ण हित हों. भारत को व्यापार, निवेश, और विकास सहयोग के प्रति एक एकीकृत दृष्टि विकसित करने की कोशिश करनी ही चाहिए. आर्थिक कूटनीति की संभावनाओं को केवल विदेश मंत्रालय तक सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि आर्थिक कूटनीति में राष्ट्रहित के लिए आर्थिक पक्षों के सभी पहलुओं को इस्तेमाल किये जाने की ज़रूरत होती है. इसलिए, सरकार के ऐसे सभी विभागों, जिनके पास आर्थिक जिम्मेदारियां हैं और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करते हैं, के बीच ज़्यादा बेहतर तालमेल होना ही चाहिए. दूसरे शब्दों में कहें तो, विभिन्न सरकारी विभागों को भारत के विदेश सहयोग कार्यक्रम (ख़ासकर कर्ज़ पेशकश के मामले में) को उसके आर्थिक हितों के मुताबिक बनाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए.

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