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राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की घोषणा की गई है, जिसमें कुछ दूरदर्शी बदलावों का प्रस्ताव है लेकिन इन प्रस्तावों को लागू किए जाने से ही तय होगा कि भारत अपने छात्रों की आकांक्षाओं को पूरा करना है या नहीं.
चीन का उदय विश्व व्यवस्था के लिए कई चुनौतियां पेश कर रहा है, ख़ासतौर से भारत के लिए. मौजूदा व्यवस्था को विखंडित करने वाले के रूप में, चीन की आक्रामकता के ख़िलाफ एक मज़बूत वैश्विक प्रतिरोध की ज़रूरत है जो अब उभरने लगा है. लेकिन कुछ क्षेत्रों में चीनी मॉडल की उपलब्धियों को समझने की ज़रूरत है. उच्च शिक्षा ऐसा ही क्षेत्र है जहां चीन अपने आप में एक नेतृत्वकर्ता के रूप में उभर रहा है. साल 2016 और 2018 के बीच चीन ने 9,00,000 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित किए. यह आंकड़ा संयुक्त राज्य अमेरिका, जिसने उसी अवधि में लगभग 6,00,000 पेपर का प्रकाशन किया, को पीछे छोड़ते हुए इसे नेचुरल साइंस प्रकाशनों के शिखर पर रखता है.
चीन शिक्षा पर हर साल 650 अरब डॉलर से अधिक ख़र्च करता है, और इस निवेश से देश भर में शिक्षा की गुणवत्ता में पर्याप्त वृद्धि दिखना शुरू हो गया है. वैश्विक विश्वविद्यालयी रैंकिंग के आकलन से भी वृद्धि को नापा जा सकता है. जहां 2010 में टॉप 100 में सिर्फ़ दो चीनी विश्वविद्यालय थे, आज टॉप 100 में 12 चीनी विश्वविद्यालयों ने जगह बना ली है, शिंघुआ विश्वविद्यालय सूची में 15वें पायदान पर है. 2020 की टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग के अनुसार उभरती अर्थव्यवस्थाओं में टॉप 10 विश्वविद्यालयों में से 7 चीनी हैं.
जहां 2010 में टॉप 100 में सिर्फ़ दो चीनी विश्वविद्यालय थे, आज टॉप 100 में 12 चीनी विश्वविद्यालयों ने जगह बना ली है, शिंघुआ विश्वविद्यालय सूची में 15वें पायदान पर है. 2020 की टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग के अनुसार उभरती अर्थव्यवस्थाओं में टॉप 10 विश्वविद्यालयों में से 7 चीनी हैं.
इस समय, चीन के उच्च शिक्षा संस्थानों से हर साल 80 लाख छात्र स्नातक होते हैं. यह भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों देशों के स्नातकों की कुल संख्या मिलाकर भी उससे ज़्यादा है. यह संख्या अगले दशक की शुरुआत तक तीन गुना बढ़ जाने की उम्मीद है. चीन के पास संस्थानों की संख्या में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करते हुए दो-आयामी दृष्टिकोण है— इनकी गुणवत्ता को विनियमित करने के साथ इनकी गुणवत्ता बढ़ाई जाए. इसके नतीजे में चीनी विश्वविद्यालय नियमित रूप से दुनिया की विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में शीर्ष पायदानों पर जगह बनाते हैं. भारत के उलट, जहां वरिष्ठ शिक्षाविदों और नीति निर्धारकों ने यथास्थिति का पुरज़ोर बचाव किया और वैश्विक रैंकिंग पर सवाल उठाए हैं, चीन ने अपनी उच्च शिक्षा में बुनियादी ख़ामियों को दूर करने के लिए लगन से काम किया है और वैश्विक रैंकिंग में असरदार ढंग से जगह बनाने में क़ामयाब रहा है.
सदी के मोड़ पर, बेहतर शैक्षिक अवसरों के लिए चीन से बाहर जाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही थी. ज़्यादा गतिशीलता और ऊंची क्रय शक्ति में बराबरी के कारण ये मौक़े पहले से कहीं ज़्यादा सुलभ थे. इससे चीन में छात्र नामांकन की संख्या में कमी आई. हालांकि, आप्रवासियों और चीनी नागरिकों के ख़िलाफ नियमों के कड़े किए जाने से इस रुझान में कमी आई. 2009 और 2018 के बीच पढ़ाई पूरी करने के बाद चीन लौटने वाले चीनी छात्रों की संख्या 2009 से 2018 के बीच 40% से लगभग 80% हो गई है. इसका श्रेय आक्रामक आर्थिक नीतियों के कारण रोज़गार के बेहतर मौकों को दिया जा सकता है.
उच्च शिक्षा संस्थानों और अनुसंधान व विकास में भारी निवेश ने भी इस वापसी को एक हद तक प्रोत्साहित किया और चीन की तरफ से भी इन लोगों को अपने शैक्षणिक अनुसंधान और इसके इस्तेमाल को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय शिक्षा को महंगा माना जाता है और हालांकि शुरुआत में इसका महत्व था, बाद में चीन के विश्वविद्यालयों में निवेश में वृद्धि के साथ, व्यक्तियों को रोज़गार पाने में मुश्किल होने लगी थी क्योंकि उन्हें जॉब मार्केट में चीनी विश्वविद्यालयों से पास हुए छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा करना होता था, क्योंकि उनको भी चीनी विश्वविद्यालयों के बराबर ही रखा जाता था.
भारत के उलट, जहां वरिष्ठ शिक्षाविदों और नीति निर्धारकों ने यथास्थिति का पुरज़ोर बचाव किया और वैश्विक रैंकिंग पर सवाल उठाए हैं, चीन ने अपनी उच्च शिक्षा में बुनियादी ख़ामियों को दूर करने के लिए लगन से काम किया है और वैश्विक रैंकिंग में असरदार ढंग से जगह बनाने में क़ामयाब रहा है.
इन कारकों के चलते उन व्यक्तियों की संख्या में कमी आई है जो पढ़ाई करने और उसके बाद की नौकरियों के लिए बाहर जाते थे. इसके अलावा, यह सदा फल देने वाला निवेश साबित हुआ जिससे चीनी प्रशासन शैक्षिक क्षेत्र में निवेश को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित हुआ.
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद, देश ने एक पार्टी सरकार द्वारा संचालित शिक्षा की एक पूरी तरह केंद्रीकृत प्रणाली की स्थापना की. चीनी क्रांति के दौरान शैक्षिक संस्थान काफी हद तक नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए और उन्हें नुकसान उठाना पड़ा. देंग शियाओपिंग के शासनकाल में मुक्त-बाज़ार सुधारों के कारण शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव हुए. शिक्षा को पार्टी की विचारधारा और मूल्यों को आगे बढ़ाने के एक उपकरण के रूप में देखा गया, साथ ही इसे सिद्धांतों के प्रसार का माध्यम और देश के विकास की प्रगति का वाहक माना गया.
1980 और 1990 के दशक में, चीन के स्पेशलाइज़्ड उच्च शिक्षा संस्थान (HEI) बड़े, अधिक विविधता वाले विश्वविद्यालयों के निर्माण के लिए एक साथ आए. आज शिक्षा मंत्रालय (MOE) समग्र शिक्षा नीतियों की स्थापना करता है और शैक्षिक सुधारों का रास्ता तय करता है. यह स्कूल प्रणाली के पाठ्यक्रम और परीक्षा सामग्री तय करता है. यह विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा प्रणाली को ख़ुद संभालता है. स्थापना और निगरानी की व्यवस्था प्रांतीय शैक्षिक विभागों द्वारा तय की जाती है. राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा (गाओकाओ) भी मंत्रालय द्वारा तय की जाती है. गाओकाओ (The Gaokao) एक बेहद व्यापक टेस्ट है जो 2-3 दिनों और नौ घंटे से अधिक समय तक रहता है और हाई स्कूल के बाद इसे अनगिनत बार दिया जा सकता है. कुछ बदलावों के साथ यह उच्च शिक्षा संस्थान में दाख़िले का सबसे महत्वपूर्ण मानदंड भी है.
अनिवार्य शिक्षा कानून में लगभग छह या सात साल की उम्र से शुरू होने वाली शिक्षा के कम से कम नौ साल पूरे करना ज़रूरी है. सरकार अब प्री-स्कूल शिक्षा को भी वैश्विक स्तर की बनाने पर जोर दे रही है. योजना के दो मक़सद हैं: विश्वस्तरीय शिक्षा व साक्षरता और दोनों को लगभग हासिल किया जा चुका है. यह कार्यक्रम बुनियादी कार्यक्रम है जो छात्रों को सेकेंडरी एजुकेशन और बाद में हाई स्कूल में दाख़िले के लिए तैयार करता है और सभी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करने में मदद करता है.
निजी विश्वविद्यालय जॉब मार्केट की ज़रूरतों के मामले में अधिक ग्रहणशील रहे हैं. ये ज़्यादातर औद्योगिक या व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान हैं. चीन में एक वरिष्ठताक्रम वाली उच्चतर शिक्षा प्रणाली आकार ले चुकी है.
चीन में सभी संस्थान डिग्री देने के लिए अधिकृत नहीं हैं. यह अधिकार अधिकांशतः बड़े शोध संस्थानों और कुछ बड़े विविधतापूर्ण विश्वविद्यालयों को दिया गया है जो ‘मातृ संस्थानों’ के रूप में काम करते हैं और देश भर में कैंपस स्थापित करते हैं. 1980 के दशक में जब इस क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले कानूनों को ढीला किया जाने लगा, स्वतंत्र कॉलेज चीन में निजी शिक्षा (मिनीबन) अस्तित्व में आए.
निजी विश्वविद्यालय जॉब मार्केट की ज़रूरतों के मामले में अधिक ग्रहणशील रहे हैं. ये ज़्यादातर औद्योगिक या व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान हैं. चीन में एक वरिष्ठताक्रम वाली उच्चतर शिक्षा प्रणाली आकार ले चुकी है. मोटे तौर पर इस प्रणाली के शीर्ष पर, देश के 10% शोध केंद्रित विश्वविद्यालय हैं जो केंद्रीय स्तर पर शिक्षा मंत्रालय और अन्य मंत्रालयों द्वारा प्रशासित हैं. लगभग 40% स्थानीय सरकारी उच्च शिक्षा संस्थान और चार-वर्षीय स्वतंत्र निजी संस्थान सिस्टम के मध्य स्तर पर है. निचले स्तर पर बाकी हायर वोकेशनल कॉलेज और निजी विश्वविद्यालय हैं.
निजी स्वतंत्र कॉलेज और निजी विश्वविद्यालय और उनके छात्रों की संख्या देश के उच्च शिक्षा संस्थान और छात्रों की संख्या का दोनों क्रमशः लगभग एक तिहाई है, फिर भी कई अन्य देशों के विपरीत उनमें से कोई भी शोध-केंद्रित या डॉक्टरेट की डिग्री देने के लिए समर्थ नहीं है. कुल मिलाकर, इन उपायों ने प्राथमिकता वाले आला विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर संसाधन जुटाए हैं. इस स्तरीकरण के साथ वोकेशनल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूशन, अडल्ट एजुकेशन प्रोग्राम और सेल्फ-स्टडी प्रोग्राम में भारी निवेश किया गया है. उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए आंतरिक गुणवत्ता और जांच तंत्र बनाना भी अनिवार्य किया गया है ताकि सुनिश्चित हो सके कि वे नियमित रूप से आत्म-नियमन करते हैं. सर्वोत्तम गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए इन आंतरिक जांच तंत्र समितियों की अध्यक्षता सीनियर फेकल्टी सदस्यों द्वारा की जाती है.
अपनी सभी उपलब्धियों के साथ, चीनी शैक्षिक प्रणाली की अपनी अनोखी समस्याएं भी हैं. सरकार के तहत ज़्यादातर विश्वविद्यालयों का प्रबंधन गैर-शैक्षणिक है और ये पार्टी के सदस्य होते हैं. अक्सर अकादमिक फंडिंग पर फैसला नहीं लेने के लिए उनके फैसलों की आलोचना की जाती है और वे अक्सर पार्टी के प्रचार को आगे बढ़ाते हैं. इसके अलावा, लोगों की शैक्षणिक स्वतंत्रता और परिसरों में सामान्य स्वतंत्रता पर भी भारी प्रतिबंध हैं. विश्वविद्यालयों में चुनिंदा चीनी छात्र प्रभावी ढंग से अध्यापकों के लेक्चर की निगरानी करते हैं और आधिकारिक पार्टी लाइन से भटकाव की सरकार को रिपोर्ट करते हैं. चीन में यहां तक कि विदेशी कैंपसों से भी यह उम्मीद की जाती है कि परिसर में बोलने और जानने की स्वतंत्रता पर संयम बरता जाएगा. विश्वविद्यालय प्रणाली की एक और बड़ी आलोचना पिछले कुछ वर्षों में भर्ती को लेकर की जाती है. बड़े विश्वविद्यालय चीन के बाहर से योग्य शिक्षाविदों को लाने में काफ़ी पैसा खर्च करते हैं, और अक्सर चीनी शोधार्थियों और शिक्षाविदों की अनदेखी करते हैं. इस कदम की इसलिए आलोचना की जाती है, क्योंकि ऐसा इन विश्वविद्यालयों की बेहतर मान्यता और रैंकिंग बनाने की नीयत से किया जाता है.
इन चुनौतियों के बावजूद, चीनी उच्च शिक्षा प्रणाली ने पिछले दो दशकों में ज़बरदस्त प्रगति की है. भारत उच्च शिक्षा सुधारों को अमल में लाने में विफल रहा है, जबकि चीन वैश्विक संस्थानों की शीर्ष रैंकिंग में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब रहा है. अगर आने वाले वर्षों में ज्ञान से वैश्विक शक्ति संतुलन तय होने वाला है, तो भारतीय नीति निर्माताओं ने अपना रास्ता ख़ुद रोक रखा है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की घोषणा की गई है, जिसमें कुछ दूरदर्शी बदलावों का प्रस्ताव है लेकिन इन प्रस्तावों को लागू किए जाने से ही तय होगा कि भारत अपने छात्रों की आकांक्षाओं को पूरा करना है या नहीं.
जिब्रान खान ORF में इंटर्न हैं.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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