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रुपये के मुक्त पतन को थामने की जरूरत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत निर्यात से कहीं अधिक आयात करता है। हालांकि, यह अब भी कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि मांग अभी भी अच्छी–खासी है।
यह निश्चित तौर पर एक मिथक ही है कि गिरती मुद्रा निर्यात बढ़ाने में मददगार साबित होती है। सरकार द्वारा संचालित संस्थानों से जुड़े लोगों सहित कुछ अर्थशास्त्री अक्सर यह राय व्यक्त करते रहे हैं कि रुपये को गिरने दिया जाए क्योंकि इससे निर्यात में तेज उछाल संभव होगी और इसके साथ ही आर्थिक विकास को नई गति भी मिलेगी। इतना ही नहीं, यह भी एक गलत धारणा है कि कई देश जानबूझकर अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर देते हैं, ताकि उनका निर्यात मूल्य की दृष्टि से कहीं अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाए। चीन के अलावा कोई भी देश अपनी मनमर्जी से अपनी मुद्रा के मूल्य में हेर-फेर या फेरबदल नहीं कर सकता है और निर्यात को बढ़ावा देने की खातिर इसे अपेक्षा से कम नहीं रख सकता है। यदि वाकई यह इतना अच्छा या कारगर उपाय होता तो ग्रीस और अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्थाएं चमत्कार दिखाकर विकास की तेज पटरी पर दौड़ने लगतीं। एक और अहम बात। यदि ऐसी ही स्थिति होती तो अमेरिका से निर्यात लड़खड़ाने लगता और वास्तव में यह गैर प्रतिस्पर्धी हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अमेरिकी डॉलर निरंतर मजबूत होता जा रहा है और इसके साथ ही अमेरिका से निर्यात भी तेज रफ्तार पकड़ता जा रहा है। वैसे तो यह सच है कि मुद्रा का मूल्य गिरने से निर्यातकों को होने वाला कुल लाभ बढ़ जाता है, लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मुद्रा का अवमूल्यन होने पर मात्रा की दृष्टि से निर्यातकों का कुल कारोबार भी बढ़ जाता है।
भारत के निर्यात में वर्ष 2011-12 से ही निरंतर कमी दर्ज की जा रही है। मार्च 2012 से ही भारतीय रुपया भी गिरावट का रुख दर्शा रहा है। मार्च 2012 के आखिर में एक अमेरिकी डॉलर का मूल्य 50.95 रुपये था, जो मार्च 2018 में गिरकर 65 रुपये तथा सितंबर 2018 के आखिर में और ज्यादा लुढ़क कर 72.5 रुपये के स्तर पर आ गया था। हालांकि, यदि आपको ऐसा प्रतीत होता था कि निर्यात आनुपातिक रूप से बढ़ गया है, तो आप गलत साबित होंगे। ऐसा आखिरी बार छह साल पहले हुआ था जब रुपया 14.2 फीसदी गिर गया था और निर्यात में 21.8 प्रतिशत की जोरदार वृद्धि दर्ज की गई थी। वह साल 2011-12 था जब निर्यात 306 अरब डॉलर के उच्च स्तर पर पहुंच गया था। यह संयोगवश इस दशक की सर्वाधिक निर्यात वृद्धि दर है और उसके बाद से ही निर्यात धीरे-धीरे फिसलता जा रहा है। इसके बाद निर्यात वास्तव में पटरी पर नहीं आ पाया है और यहां तक कि वर्ष 2017-18 में भी यह आंकड़ा अपेक्षाकृत कम 302.8 अरब डॉलर ही रहा, जबकि निर्यात की दृष्टि से इसे बेहतर साल माना जाता है।
यदि हम सांख्यिकीय दृष्टि से गौर करते हैं, तो हम पाते हैं कि निर्यात वृद्धि दर वर्ष 2012-13 में (-) 1.8% और वर्ष 2013-14 में (-) 4.7% ऋणात्मक थी। ये ऐसे साल थे जब रुपया धराशायी हो गया था। मार्च 2013 के आखिर तक रुपया 6.6% लुढ़क कर 54.35 रुपये के स्तर पर आ गया था तथा मार्च 2014 तक यह और भी निचले स्तर पर आ गया था। अगस्त 2013 में औंधे मुंह गिरकर 68.00 रुपये के स्तर पर आ जाने के बाद भारतीय मुद्रा मार्च 2014 तक सुधर कर 59.96 रुपये के स्तर पर पहुंच गई थी। मार्च 2014 में समाप्त वित्त वर्ष में रुपये के मूल्य में शुद्ध गिरावट काफी अधिक 10.32% आंकी गई थी, लेकिन इसके बावजूद निर्यात बढ़ाने में मदद नहीं मिली थी।
मोदी सरकार ने वर्ष 2014 में सत्ता की बागडोर संभाली थी, लेकिन निर्यात में गिरावट को थामने के लिए वह कुछ खास नहीं कर पाई। वर्ष 2015 की समाप्ति पर निर्यात में 1.3% की कमी दर्ज की गई थी, जबकि अगले वर्ष तो निर्यात इससे भी ज्यादा 15.5% लुढ़क गया था। हालांकि, इसके बाद किए गए कुछ उपायों से निर्यात के मोर्चे पर सुधार हुआ। निर्यात में वर्ष 2016-17 में 5.2% और मार्च 2018 में समाप्त वर्ष में 9.8% की वृद्धि दर्ज की गई। उधर, रुपये के गिरने का भी सिलसिला जारी रहा क्योंकि सरकार चालू खाता घाटे (सीएडी) में हो रही वृद्धि को थामने में असमर्थ रही थी। भारतीय मुद्रा मार्च 2015 तक 4.08% घटकर 62.41 रुपये तथा मार्च 2016 तक 6.1% और गिरकर 66.15 रुपये के स्तर पर आ गई थी। मार्च 2017 में समाप्त वर्ष में भारतीय मुद्रा 1.9% सुधर कर 64.86 रुपये के स्तर पर पहुंच गई। इसके बावजूद उस साल निर्यात में वास्तव में वृद्धि दर्ज की गई थी। अगले साल भारतीय मुद्रा 0.4% की सामान्य गिरावट के साथ 65.13 रुपये के स्तर पर आ गई। इन दोनों ही वर्षों के दौरान निर्यात विगत वर्षों की तुलना में अधिक आंका गया। इससे यह धारणा गलत साबित होती है कि केवल गिरती मुद्रा ही निर्यात बढ़ाने में मददगार साबित होती है।
प्रतिकूल वैश्विक परिस्थितियों या माहौल के अलावा सात ऐसे कारण हैं जो रुपये के मुक्त पतन (फ्री फॉल) के लिए जिम्मेदार हैं। प्रथम कारण को छोड़कर ज्यादातर अन्य कारणों या समस्याओं से निजात पाई जा सकती है। पहला कारण कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में हो रही वृद्धि है, जो हमारे हाथ में नहीं है। दूसरा कारण गैर आवश्यक आयात (तेल और गैस के अलावा) में दर्ज की जा रही बढ़ोतरी है जिसके कारण चालू खाता घाटा बढ़ गया है। तीसरा कारण बढ़ता व्यय है जिससे बजटीय घाटा चालू वित्त वर्ष के पहले छह महीनों में ही अपने निर्धारित वार्षिक स्तर पर पहुंच गया है। चौथा कारण चालू वर्ष में विनिवेश कार्यक्रम की धीमी गति है जो अपने निर्धारित समय से काफी पीछे चल रहा है। पांचवां कारण आधे-अधूरे मन से बैंकों का पुनर्पूंजीकरण करना या उन्हें नई पूंजी देना है जिससे एक बार फिर मुद्रा बाजारों में अनिश्चितता उत्पन्न हो रही है। छठा कारण पूंजी और बांड बाजारों में अनिश्चितता के चलते निजी निवेश का अभाव है जिसकी मुख्य वजह एक बार फिर यही है कि बैंकिंग क्षेत्र अपने तमाम विकल्पों पर नए सिरे से विचार कर रहा है। सातवां कारण गिरते रुपये को थामने के लिए आरबीआई द्वारा बाजार में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना है।
बढ़ता निर्यात बनाम गिरता रुपया |
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निर्यात वृद्धि दर | रुपया बनाम अमेरिकी डॉलर | |
2011-12 | 21.8% | -14.2% |
2012-13 | -1.8% | -6.6% |
2013-14 | -4.7% | -10.32% |
2014-15 | -1.3% | -4.08% |
2015-16 | -15.5% | -6.1% |
2016-17 | 5.2% | 1.9% |
2017-18 | 9.8% | -0.4% |
रुपये के मुक्त पतन को थामने की जरूरत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत निर्यात से कहीं अधिक आयात करता है। हालांकि, यह अब भी कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि मांग अभी भी अच्छी-खासी है। इसी तरह भारत की विकास गाथा अब भी आकर्षक है। यही कारण है कि निवेशक और अनिवासी भारतीय अब भी काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। यह ब्रिक्स देशों में पहली पसंद है। चीन दो दशकों में पहली बार अपनी अर्थव्यवस्था में कई तरह की कमजोरियों को दर्शा रहा है जैसे कि बढ़ता कर्ज, प्रतिबंध, व्यापार युद्ध, कमजोर पड़ते निर्यात बाजार और निरंतर कम होती घरेलू मांग। रूस धीमे विकास के संकेत दर्शा रहा है और अपनी अर्थव्यवस्था को उदार बनाने की इच्छा व्यक्त करने के बावजूद प्रतिबंधों के कारण वह आर्थिक दृष्टि से अलग-थलग पड़ता जा रहा है। ब्राजील बढ़ती महंगाई, बढ़ते कर्ज बोझ, घटती घरेलू मांग, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। यहां कराया गया चुनाव, जिसके नतीजे अक्टूबर के आखिरी रविवार को घोषित किए जाएंगे, दक्षिणपंथी दिग्गज कांग्रेसी जैर बोल्सोनारो को सत्ता दिला सकता है। वामपंथियों, जिनके कारण अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है, को अंदेशा है कि बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बन जाने पर उनमें से कई लोग भ्रष्टाचार और अन्य आरोपों के कारण जेल की सलाखों के पीछे जा सकते हैं। दक्षिण अफ्रीका की वर्तमान सरकार द्वारा अंधाधुंध ढंग से राष्ट्रीयकरण करने, भारी-भरकम राष्ट्रीय ऋण बोझ और घरेलू मांग के अभाव के कारण यह देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया है। ऐसे अंतरराष्ट्रीय हालात में तुलनात्मक रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था एक अच्छी पसंद है।
अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रबंधन कहीं बेहतर ढंग से किया गया है। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर एवं घरेलू मांग दोनों ही अच्छी-खासी है और राजकोषीय घाटा नियंत्रण में है। वैसे तो कच्चे तेल की बढ़ती कीमत चिंता का विषय है, फिर भी चालू खाता घाटा वर्ष 2013 की भांति बेकाबू नहीं हुआ है, जब यह जीडीपी के 4.5% को छू गया था। फंसे कर्जों का उपयुक्त समाधान निकालने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और फंसे कर्जों को हाल ही में बनाए गए दिवालियापन कानून के तहत बेचा जा रहा है। डूबत ऋणों के कारण एनपीए तेजी से बढ़ता रहा है, लेकिन एनसीएलटी द्वारा थोड़ा और प्रयास किए जाने से पश्चिमी देशों की ही भांति यहां भी इनसे जल्द निजात मिलने की उम्मीद की जा सकती है। यह उम्मीद की जा रही है कि आज बैंकों के जो भारी-भरकम फंसे कर्ज (एनपीए) हैं वे मार्च 2020 तक दृढ़तापूर्वक नियंत्रण में आ जाएंगे। इसी तरह बैंकिंग क्षेत्र में कुछ और विलय एवं अधिग्रहण होने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हालत अभी से कुछ ही वर्षों में और भी अच्छी हो जानी चाहिए।
हालांकि, ऐसी स्थिति में जरूरत इस बात की है कि कुछ क्षेत्रों में बड़ी तेजी से ठोस आर्थिक निर्णय लिए जाएं। गैर आवश्यक आयात की पहचान की जानी चाहिए और शुल्क दरें (टैरिफ) बढ़ाई जानी चाहिए। सोने व जैतून के तेल के आयात पर भारी-भरकम शुल्क लगाने की जरूरत है एवं डीजल पर देय टैक्स को और ज्यादा तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए। पूंजीगत सामान के क्षेत्र में आयात शुल्क को चुनिंदा रूप से बढ़ाया जाना चाहिए ताकि दूरसंचार, ऑटोमोबाइल और टिकाऊ उपभोक्ता सामान जैसे उद्योगों, जिनमें भारतीय उपभोक्ता ही खरीदार हैं, का तेजी से स्वदेशीकरण हो सके। ट्रम्प प्रशासन ने यह साबित कर दिखाया है कि यदि कोई सरकार किसी मुद्दे को गंभीरता से उठाती है तो तेजी से स्वदेशीकरण करने की काफी गुंजाइश है।
इसी प्रकार निर्यातकों द्वारा वैश्विक अधिग्रहण के लिए उन्हें टैक्स प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए। चीन ने यह साबित कर दिखाया है कि यदि कोई देश केवल निर्यात करने के उद्देश्य से विदेशी धरती पर किसी तीसरे पक्ष (थर्ड पार्टी) द्वारा अधिग्रहण किए जाने को प्रोत्साहित करती है तो निर्यात और ज्यादा बढ़ाने की गुंजाइश निश्चित तौर पर हो सकती है। चीन ने इसे एक अच्छी कला में तब्दील कर दिया है। आज यदि आप दूरसंचार या सौर ऊर्जा उपकरण का आयात करते हैं तो आपके पास चीन से बाहर स्थापित पूर्ण स्वामित्व वाली चीनी कंपनियों का भी विकल्प होगा जो आपूर्तिकर्ताओं के रूप में मलेशिया और सिंगापुर में स्थापित आंशिक स्वामित्व वाली चीनी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करती हैं। इन्फोसिस के विशाल सिक्का ने ठीक इसी तरह की योजना के सहारे इस दिग्गज भारतीय आईटी कंपनी को एक वैश्विक कंपनी के रूप में तब्दील करने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने तो इस उद्देश्य से यहां तक कि इजरायल और दक्षिण अमेरिका में कंपनियों का अधिग्रहण भी कर लिया था, ताकि उन देशों से अमेरिका को होने वाले निर्यात को ट्रम्प प्रशासन भारत से हुए निर्यात के रूप में नहीं समझे। हालांकि, अंतर्मुखी सोच वाले प्रबंधन ने विशाल सिक्का को उनके पद से हटाकर इस कंपनी की कमान संभालने के पश्चात इन्फोसिस को एक वैश्विक कंपनी समूह में बदलने से संबंधित 1 अरब डॉलर के रणनीतिक अधिग्रहण के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है।
न केवल सरकार, बल्कि निजी क्षेत्र को भी निर्यात को बड़ी तेजी से बढ़ाने के लिए अभिनव तरीकों को लागू करना चाहिए, ताकि निर्यात आय उत्साहजनक स्तर पर बनी रहे और इसकी बदौलत चालू खाता घाटा (सीएडी) निम्न स्तर पर ही बरकरार रहे। यह एक अशुभ व्यापार युद्ध के साथ विश्व व्यापार के लिए अत्यंत गंभीर संकट का समय है जो गहरी दरारें पैदा कर वैश्विक आर्थिक मंदी का कारण बन सकता है। इस तरह के हालात में निर्यात बढ़ाने के अवसरों को निश्चित तौर पर गंवाना नहीं चाहिए।
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Sandip Sen is an author and journalist writing on a vast range of subjects from economy to technology environment to lifestyle. He is a regular ...
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