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क्या संप्रभुता और सार्वभौम अधिकारों में अंतर साफ़ होने से दक्षिण चीन सागर में तनाव कम करने के उपायों में आसानी होगी?
चीन ने 1 मार्च को दक्षिण चीन सागर में 6 नॉटिकल मील के दायरे में एक और सैन्य अभ्यास पूरा किया. इस क्षेत्र में सैनिक अभ्यास, फिर दूसरे पक्ष द्वारा जवाबी अभ्यास, फ़ौजी तैयारियां, दूसरे की संप्रभुता वाले हवाई क्षेत्र में घुसपैठ- सामान्य और नियमित अंतराल पर दोहराए जाने वाले वाक़ये बन गए हैं. ज़ाहिर तौर पर इसके बाद निंदा और चेतावनियों का दौर शुरू हो जाता है. अगर निकट भविष्य में चीन को रूस के रास्ते पर जाने से रोकना है तो समुद्र से जुड़ी मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वैधानिक व्यवस्था को और ज़्यादा मज़बूत बनाना होगा ताकि कोई उसका उल्लंघन न कर सके.
अगर निकट भविष्य में चीन को रूस के रास्ते पर जाने से रोकना है तो समुद्र से जुड़ी मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वैधानिक व्यवस्था को और ज़्यादा मज़बूत बनाना होगा ताकि कोई उसका उल्लंघन न कर सके.
समुद्री इलाक़े पर प्रतिस्पर्धी दावों के चलते पिछले दशक में दक्षिण चीन सागर में निरंतर भारी उथलपुथल का दौर रहा है. चीन ने अपने सामुद्रिक दावों को लेकर बेहद आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर रखा है. नतीजतन हिंद-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र (ख़ासतौर से दक्षिण चीन सागर) में दिनोंदिन फ़ौजी दबदबा बढ़ता जा रहा है. ऐसे में ये इलाक़ा संभावित टकरावों का अड्डा बन गया है.
इस पूरे मसले की जड़ सामुद्रिक सरहदों को लेकर अलग-अलग धारणाओं में छिपी है. एक ओर अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों ने इनके दायरे तय कर रखे हैं तो दूसरी ओर ऐतिहासिक अधिकारों की बात आती है. इसके चलते संप्रभुता के घटक तत्वों और सार्वभौम अधिकारों से उसके भेद से जुड़ी समझ में फ़र्क पैदा होते हैं. इसके नतीजे के तौर पर पैदा हुई चुनौतियां संवैधानिक अधिकारों की हद, उनके इस्तेमाल और संप्रभुता से उसके रिश्तों से जुड़ते हैं. दरअसल चीन अपनी समझ के हिसाब से अपने “सार्वभौम अधिकारों” के दायरे को धीरे-धीरे विस्तार देने की क़वायदों में लगा है. इस कड़ी में उसने दूसरे तटवर्ती देशों की “संप्रभुता” को चुनौती दे डाली है. ऐेसे में संप्रभुता और प्रभुत्व से जुड़े अधिकारों के अंतर का ख़ाका खींचना ज़रूरी हो जाता है. ये दोनों ही दक्षिण चीन सागर से जुड़े मसले के अहम घटक हैं.
इस इलाक़े में पैठ बनाने की चीन की कोशिशों के पीछे आम तौर पर 2 दलीलें दी जाती हैं. पहला तर्क ऊर्जा हासिल करने के स्रोतों में विविधता लाने को लेकर है. दरअसल दक्षिण चीन सागर में प्रमाणित और संभावित भंडार के तौर पर 190 खरब घन फ़ीट प्राकृतिक गैस और 11 अरब बैरल तेल होने का आकलन किया गया है. इसके अलावा यहां हाइड्रोकार्बन के भी संभावित भंडार हो सकते हैं. हालांकि इनका अब तक ठीक-ठीक पता नहीं लग पाया है. चीनी क़वायदों की दूसरी वजह यहां के समुद्री इलाक़ों से होकर गुज़रने वाले सी लाइंस ऑफ़ कम्युनिकेशन (SLOCs) पर अपना प्रभाव क़ायम करना है. इनके ज़रिए चीन हिंद और प्रशांत महासागरों में वाणिज्यिक और नौसैनिक सामुद्रिक पैठ सुनिश्चित करना चाहता है. एक और वजह ये है कि दक्षिण चीन सागर पर चीन अपने ऐतिहासिक अधिकार का दावा करता है. घरेलू राजनीति और धारणाओं को लेकर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय आकांक्षाओं में इन जलीय इलाक़ों पर नियंत्रण की बात प्रमुखता से शामिल हैं.
पिछले दशक से वो यहां बिखरे तमाम टापुओं, छिछले जलीय इलाक़ों, प्रवाल द्वीपों और चट्टानी भू-क्षेत्रों पर अपनी भौतिक मौजूदगी का निरंतर विस्तार करता जा रहा है.
चीन प्राथमिक तौर पर दक्षिण चीन सागर के इलाक़े में अपने नियंत्रण का इज़हार करना चाहता है. पिछले दशक से वो यहां बिखरे तमाम टापुओं, छिछले जलीय इलाक़ों, प्रवाल द्वीपों और चट्टानी भू-क्षेत्रों पर अपनी भौतिक मौजूदगी का निरंतर विस्तार करता जा रहा है. इसे “सलामी स्लाइसिंग” रणनीति के तौर पर जाना जाता है, जिससे यहां लगातार प्रतिस्पर्धा का वातावरण बना रहता है. इसका यहां के संसाधनों और क्षेत्रीय सुरक्षा पर भारी दुष्प्रभाव पड़ा है.
दक्षिण चीन सागर के तटवर्ती देशों के साथ-साथ अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसी बाहरी ताक़तें टुकड़ों में प्रतिक्रियाएं जताती रही हैं और उनका रुख़ प्रतिक्रियावादी रहा है. इस इलाक़े में चीन ही अक्सर प्राथमिक तौर पर तनाव पैदा करता रहा है. इस सिलसिले में नाइन-डैश लाइन को चिन्हित करना, कृत्रिम द्वीप बनाना, नए कोस्ट गार्ड क़ानून की शुरुआत करना और अपने सामुद्रिक लड़ाकों की तादाद बढ़ाने जैसी हरकतों की मिसाल दी जा सकती है. हालांकि यहां के दूसरे तटीय देश भी छिटपुट रूप से और छोटे पैमाने पर ऐसे कारनामे दिखाते रहे हैं. ‘
अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक क़ानूनों में ‘सार्वभौम अधिकार’ की शब्दावली का अलग-अलग रूपों में इस्तेमाल 1970 के दशक से शुरू हुआ. तक़रीबन उसी समय समुद्र से जुड़े क़ानूनों पर संयुक्त राष्ट्र के तीसरे सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इसी सम्मेलन के नतीजे के तौर पर 1982 में समुद्र से जुड़े क़ानून पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन पर दस्तख़त हुए थे. आज की तारीख़ में भी महादेशीय दायरों और विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों (EEZ) पर तटवर्ती देशों के अधिकारों के नियमन के लिए यही क़ानून अंतरराष्ट्रीय तौर पर अहम वैधानिक सामुद्रिक ढांचा बना हुआ है. 1990 के दशक से इस शब्दावली को ऊर्जा के स्रोतों पर सार्वभौम अधिकारों के निर्धारण से जुड़े संदर्भों में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. बहरहाल EEZ के भीतर संसाधनों पर सार्वभौम अधिकार होने से उस भूक्षेत्र पर संप्रभुता की पुष्टि नहीं होती. लिहाज़ा EEZ और महादेशीय दायरों में संसाधनों के दोहन पर तटवर्ती राज्यसत्ता के सार्वभौम अधिकार (अधिकारों और शक्तियों के सीमित समूह) उन्हें उस इलाक़े पर संप्रभुता (सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता) जताने का हक़ नहीं देते.
दक्षिण चीन सागर के सामुद्रिक इलाक़े पर चीन की अपनी वैधानिक सामुद्रिक समझ उसके ‘ऐतिहासिक अधिकारों’ का सहज विस्तार है. लिहाज़ा इस क्षेत्र में चीन की तमाम कार्रवाइयां भले ही अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक क़ानून के ख़िलाफ़ हों लेकिन चीन की अपनी धारणा के हिसाब से समान रूप से जायज़ हैं.
दरअसल ठीक इसी बिंदु पर अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक क़ानून और अपनी सत्ता को लेकर चीन की घरेलू वैधानिक समझ के बीच का मतभेद सामने आता है. चीन की घरेलू धारणा अंतरराष्ट्रीय तौर पर क़ानून की परिभाषाओं से मेल नहीं खाती. चीन के लिए दक्षिण चीन सागर उसके बग़ल का और उसके लिए भारी प्रासंगिकता रखने वाला जलीय इलाक़ा है. बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से वैधानिक शब्दावलियों की पहचान नहीं होती. दक्षिण चीन सागर के सामुद्रिक इलाक़े पर चीन की अपनी वैधानिक सामुद्रिक समझ उसके ‘ऐतिहासिक अधिकारों’ का सहज विस्तार है. लिहाज़ा इस क्षेत्र में चीन की तमाम कार्रवाइयां भले ही अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक क़ानून के ख़िलाफ़ हों लेकिन चीन की अपनी धारणा के हिसाब से समान रूप से जायज़ हैं. इन क़दमों में कृत्रिम द्वीपों के निर्माण से लेकर कोस्टगार्ड क़ानून पारित करना और ऐसे ही बाक़ी तमाम हथकंडे शामिल हैं.
दक्षिण चीन सागर में प्रतिस्पर्धी और परस्पर-विरोधी दावों से अक्सर तनाव का माहौल बन जाता है. ये मुद्दा काफ़ी उलझ गया है. साथ ही इससे समुद्र से जुड़ी मौजूदा वैधानिक व्यवस्था की व्याख्या की पेचीदगियां भी रेखांकित हुई हैं. ख़ासतौर से अधिकार और हक़दारी की धारणाओं के उल्लंघन के संदर्भ में इस तरह का असमंजस दिखाई देता है. इससे इनके अध्ययन, पहचान और असर को हल्का करने की गुंज़ाइश सामने आती है.
दक्षिण चीन सागर के सामुद्रिक क्षेत्र के संदर्भ में संप्रभुता और सार्वभौम अधिकारों के बीच के अंतर की गहराई और होशियारी से पड़ताल करने की ज़रूरत है. इस सागर के इर्द-गिर्द के तमाम देशों के संदर्भ में ऐसा आकलन होना चाहिए. इससे समुद्र से जुड़ी मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था की ख़ामियों की पहचान हो सकेगी. ख़ासतौर से संप्रभुता और सार्वभौम अधिकारों से जुड़ी पेचीदगियों का हल निकल सकेगा. इससे इन संदर्भों में विशिष्ट अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों का साफ़-साफ़ ख़ाका खींचा जा सकेगा. अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक क़ानून का पालन सुनिश्चित कराने के लिए ज़रूरी राजनीतिक पहल किए जाने भी ज़रूरी हैं. इसके तहत क़ानूनों के उल्लंघन की सूरत में भारी जुर्मानों और दंड का प्रावधान किए जाने की दरकार है.
संप्रभुता और सार्वभौम अधिकारों के बीच का अंतर स्पष्ट होने से दक्षिण चीन सागर की गुत्थी सुलझाने में मदद मिलेगी. इस क़वायद से सामुद्रिक इलाक़े के सियासी भूगोल की समझ और साफ़ होगी. साथ ही तमाम किरदार इसकी अहमियत समझ सकेंगे. इससे समुद्री प्रशासन के मौजूदा ढांचे की ख़ामियों की पहचान में भी मदद मिलेगी. ज़ाहिर है इनसे जुड़ी अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए ज़रूरी समीक्षा भी मुमकिन हो सकेगी. आख़िरकार इससे नीति आधारित क्षेत्रीय रणनीतियों का निर्माण संभव होगा. ये ढांचा भविष्य में ऐसी ख़ामियों का बेहतर तरीक़े से निपटारा कर सकेगा.
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Pratnashree Basu is an Associate Fellow, Indo-Pacific at Observer Research Foundation, Kolkata, with the Strategic Studies Programme and the Centre for New Economic Diplomacy. She ...
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