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भारत और चीन, दोनों देशों ने अफ्रीका महाद्वीप में दो अलग-अलग तरह से अपना प्रभाव बढ़ाने का काम किया है.
भारत, 1960 के दशक से ही अफ्रीका के साथ विकास के क्षेत्र में सहयोग के लिए दो प्रमुख बातों पर ज़ोर देता आया है. ये हैं शिक्षा व्यवस्था का विस्तार और क्षमताओं का निर्माण. भारत ने 1960 के दशक में ही भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (ITEC) की शुरुआत की थी और तब से ही अफ्रीका के विकास में सहयोग देना शुरू किया था. हाल के वर्षों में भारत ने अफ्रीकी देशों के साथ सहयोग बढ़ाने के लिए कई नए उपायों की भी शुरुआत की है. जैसे कि रियायती दरों पर क़र्ज़ देना. लेकिन कैपेसिटी बिल्डिंग यानी अफ्रीकी देशों के विकास के लिए उनके यहां की क्षमताओं का विस्तार, अभी भी भारत और अफ्रीका के बीच सहयोग की धुरी बना हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युगांडा की संसद में कहा था कि, ‘क्षेत्रीय स्तर पर क्षमताओं का विकास और स्थानीय लोगों के लिए अवसरों का निर्माण, भारत और अफ्रीका के संबंधों के दस प्रमुख निर्देशक तत्वों में से एक है.’ हालांकि, अफ्रीकी देशों पर चीन के प्रभाव को ज़्यादातर व्यापार की व्यापकता और चीन से अफ्रीकी देशों को मिलने वाले क़र्ज़ के तौर पर ही मापा जाता है. लेकिन, चीन भी अफ्रीकी देशों में शिक्षा के विस्तार और क्षमताओं के निर्माण को हथियार बनाकर महाद्वीप में अपने प्रभाव का विस्तार कर रहा है. इस लेख में हम अफ्रीका को लेकर चीन और भारत के दृष्टिकोण के अंतर का आकलन करने की कोशिश करेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युगांडा की संसद में कहा था कि, ‘क्षेत्रीय स्तर पर क्षमताओं का विकास और स्थानीय लोगों के लिए अवसरों का निर्माण, भारत और अफ्रीका के संबंधों के दस प्रमुख निर्देशक तत्वों में से एक है.’
चीन की सबसे बड़ी सफलता ये रही है कि उसके यहां के विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में अफ्रीकी छात्रों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है. वर्ष 2015 में चीन में 49 हज़ार 792 अफ्रीकी छात्र पढ़ाई कर रहे थे. जो फ्रांस के बाद किसी अन्य देश में मौजूद अफ्रीकी छात्रों की सबसे अधिक संख्या है. साल 2003 से 2015 के दौरान चीन में अफ्रीकी छात्रों की तादाद प्रति वर्ष बीस प्रतिशत की दर से बढ़ती देखी गई है. चीन की तुलना में भारत में पढ़ने वाले अफ्रीकी देशों के छात्रों की संख्या को नगण्य ही कहा जाएगा. वर्ष 2003 में चीन के मुक़ाबले भारत में अफ्रीकी छात्रों की संख्या अधिक थी. लेकिन, 2015 के आते आते हालात एकदम बदल गए. 2015 में भारत में केवल 5 हज़ार 881 अफ्रीकी छात्र पढ़ रहे थे. जबकि, चीन में इससे लगभग दस गुना यानी पचास हज़ार के क़रीब अफ्रीकी छात्र पढ़ाई कर रहे थे.
अफ्रीकी छात्रों को अपने यहां आने के लिए आकर्षित करने को, भारत सरकार ने कई प्रयास किए हैं. लेकिन, इन प्रयासों के प्रति अफ्रीकी छात्रों की प्रतिक्रिया उम्मीद से काफ़ी कम रही है. इसकी एक वजह, भारत में अफ्रीकी छात्रों के कड़वे अनुभव रहे हैं.
अफ्रीकी छात्रों को अपने यहां आने के लिए आकर्षित करने को, भारत सरकार ने कई प्रयास किए हैं. लेकिन, इन प्रयासों के प्रति अफ्रीकी छात्रों की प्रतिक्रिया उम्मीद से काफ़ी कम रही है. इसकी एक वजह, भारत में अफ्रीकी छात्रों के कड़वे अनुभव रहे हैं. हालांकि, जब भी किसी अन्य देश में भारतीय छात्रों को नस्लवादी भेदभाव का सामना करना पड़ता है, तो भारत इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाने में देर नहीं करता. लेकिन, इस मामले में ख़ुद भारत का रिकॉर्ड बेहद ख़राब है. भारत में पढ़ने वाले अफ्रीकी छात्रों को अक्सर यहां भेदभाव का सामना करना पड़ता है. वो कई बार स्थानीय लोगों के हमले के शिकार होते हैं. उन्हें हिंसा और पुलिस के बुरे बर्ताव का सामना करना पड़ता है. यही कारण है कि उच्च शिक्षा के लिए भारत आने वाले लगभग 90 प्रतिशत अफ्रीकी छात्र अपने फ़ैसले पर अफ़सोस जताते हैं. इसी वजह से पढ़ाई के केंद्र के तौर पर भारत की छवि को काफ़ी धक्का लगा है. हालांकि, इस मामले में चीन का रिकॉर्ड भी कोई ख़ास अच्छा नहीं है. कोविड-19 की महामारी के दौरान, चीन के गुआंगझाऊ में बहुत से अफ्रीकी छात्रों को देश निकाला, ज़बरदस्ती क्वारंटीन किए जाने, ज़रूरी सामान ख़रीदने से भी रोक दिए जाने और दूसरे तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ा था. इस वजह से अफ्रीकी देशों और चीन के संबंधों में भी विवाद खड़ा हो गया था.
अफ्रीकी देशों के बीच चाइनीज़ भाषा और संस्कृति की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए चीन ने अफ्रीका में कनफ्यूशियस इंस्टीट्यूट (CI) के नेटवर्क का दायरा काफ़ी बढ़ाया है. जून 2019 चीन ने अफ्रीका महाद्वीप में ऐसे 59 संस्थान स्थापित कर लिए थे. कनफ्यूशियस इंस्टीट्यूट ने अफ्रीकी देशों में चीन की भाषा और संस्कृति की स्वीकार्यता बढ़ाने में काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इन्हीं के कारण आज अफ्रीकी देशों के छात्र, उच्च शिक्षा के लिए चीन जाने को तरज़ीह देने लगे हैं. इन प्रोजेक्ट से अफ्रीकी नागरिकों के लिए रोज़गार के नए अवसर भी पैदा हुए हैं. और इसी कारण से अफ्रीकी देशों में चीन में जानकर शिक्षा प्राप्त करने की मांग बढ़ी है. इन्हीं अवसरों का लाभ उठाकर युगांडा ने अपने यहां हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में चीनी भाषा पढ़ना अनिवार्य कर दिया है. वहीं, केन्या और दक्षिण अफ्रीका ने चीन की भाषा को एक विकल्प के तौर पर अपने यहां के सिलेबस का हिस्सा बनाया है.
कनफ्यूशियस इंस्टीट्यूट ने अफ्रीकी देशों में चीन की भाषा और संस्कृति की स्वीकार्यता बढ़ाने में काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इन्हीं के कारण आज अफ्रीकी देशों के छात्र, उच्च शिक्षा के लिए चीन जाने को तरज़ीह देने लगे हैं.
शिक्षा के क्षेत्र में भारत की कामयाबी का बड़ा आधार, ऑनलाइन शिक्षा रही है. पैन अफ्रीकन ई-नेटवर्क (PANe-NP) और ई-विद्या भारती व ई-आरोग्य भारती जैसी पहलों के माध्यम से भारत ने अपने यहां की तालीम को सीधे अफ्रीकी छात्रों के दरवाज़े तक पहुंचा दिया है. मार्च 2017 तक भारत, पैन अफ्रीकन ई-नेटवर्क के माध्यम से 22 हज़ार अफ्रीकी छात्रों को डिग्री प्रदान कर चुका था. इसके साथ साथ भारत अपने ITEC कार्यक्रम के ज़रिए अफ्रीकी लोगों को छोटे ऑनलाइन कोर्स कराता है, जिससे उन्हें नए हुनर सीखने में मदद मिलती है. अफ्रीकी देशों के लिए ऑनलाइन शिक्षा के ये माध्यम काफ़ी मददगार साबित हुए हैं. क्योंकि इनके ज़रिए उन्हें कम लागत पर इंटरनेशनल डिग्री प्राप्त करने में मदद मिलती है. इससे ज़्यादा संख्या में छात्र इस कोर्स में रजिस्ट्रेशन करा लेते हैं. और पढ़ाई करके डिग्री हासिल कर पाते हैं. इसके अलावा, ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई करने पर अफ्रीकी छात्रों को नस्लवादी हमलों से भी सुरक्षा मिल जाती है. ये एक ऐसा कारण है, जिसके चलते बहुत से अफ्रीकी छात्र भारत आने से परहेज़ करते हैं. ज़्यादातर अफ्रीकी देश आज ऑनलाइन शिक्षा को तरज़ीह दे रहे हैं. और वो ख़ुद भी अपने यहां ई-लर्निंग अफ्रीका और यूनीकैफ (Unicaf) जैसे कार्यक्रम लागू कर रहे हैं. अफ्रीका की क़रीब 39.3 प्रतिशत आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा पहुंच चुकी है. इसीलिए भारत के ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म के विस्तार की काफ़ी संभावनाएं हैं. कोरोना वायरस की मौजूदा महामारी और इसके कारण सोशल डिस्टेंसिंग व आवाजाही पर लगी पाबंदियों ने भी ऑनलाइन शिक्षा की स्वीकार्यता को बढ़ावा दिया है. ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई कराने के दौरान भारत को इस बात का भी अवसर मिलता है कि वो कम संसाधनों में अपना प्रभाव विस्तारित कर सके. क्योंकि, चीन के उलट भारत के पास इतने व्यापक वित्तीय संसाधन नहीं हैं कि वो अफ्रीकी देशों से आने वाले छात्रों को स्कॉलरशिप दे सके या अफ्रीका में नए शिक्षण संस्थान खोल सके
ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई कराने के दौरान भारत को इस बात का भी अवसर मिलता है कि वो कम संसाधनों में अपना प्रभाव विस्तारित कर सके. क्योंकि, चीन के उलट भारत के पास इतने व्यापक वित्तीय संसाधन नहीं हैं कि वो अफ्रीकी देशों से आने वाले छात्रों को स्कॉलरशिप दे सके या अफ्रीका में नए शिक्षण संस्थान खोल सके.
कुल मिलाकर कहें तो, अफ्रीका में अपना प्रभाव बढ़ाने की इस होड़ में चीन को भले ही शिक्षा के क्षेत्र में भारत पर बढ़त हासिल है. लेकिन, दोनों ही देशों ने बिल्कुल अलग अलग ज़रिए अपनाकर अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया है. चीन ने ऑफलाइन माध्यम से अफ्रीकी देशों में विकास और शिक्षा व्यवस्था के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का काम किया है. तो भारत की पहल ऑनलाइन माध्यम पर ज़ोर देने की रही है. और ये रणनीति भविष्य में और कारगर रहने वाली है. आज भले ही चीन को भारत पर बढ़त हासिल है. लेकिन, ऑनलाइन माध्यम का असरदार तरीक़े से इस्तेमाल करके भारत, अफ्रीकी महाद्वीप में अपने प्रभाव विस्तार का संतुलन अपने पक्ष में कर सकता है.
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