Author : Byron Chong

Published on Oct 24, 2020 Updated 0 Hours ago

अमेरिका को लेकर अलग-अलग क्षेत्र के लोगों की राय, असल में ट्रंप को लेकर राय पर आधारित है. और ट्रंप के बारे में ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि वो भरोसेमंद नेता और साझेदार नहीं हैं

दक्षिणी पूर्वी एशिया को लेकर डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन का रिकॉर्ड

अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद, दक्षिणी पूर्वी एशिया के अधिकांश देश, अपने क्षेत्र में अमेरिका की उपस्थिति को शांति और स्थिरता के प्रतीक के तौर पर देखते आए हैं. उनका मानना है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय नियम क़ायदों का पालन करेगा. और उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देगा. ये वही सिद्धांत हैं, जिन्होंने दक्षिणी पूर्वी एशिया को समृद्ध बनाया है. लेकिन, पिछले चार वर्षों के दौरान, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उथल पुथल भरी विदेश नीति के चलते, न केवल दक्षिणी पूर्वी एशिया में अमेरिका का प्रभुत्व कम हुआ है, बल्कि अमेरिका के नेतृत्व को लेकर इस क्षेत्र के लोगों का भरोसा भी कमज़ोर हुआ है.

हाल ही में ISEAS-यूसुफ़ इशाक इंस्टीट्यूट ने दक्षिणी पूर्वी एशिया के दस देशों में एक सर्वे किया था. इसमें पाया गया कि, ‘केवल 34.9 प्रतिशत लोगं को ही इस बात का पक्का भरोसा है कि अमेरिका उनका सामरिक साझीदार है. सर्वे में ये भी पता चला कि इन देशों में महज़ 24.3 प्रतिशत लोग ही ये मानते हैं कि अमेरिका, नियम क़ायदों पर आधारित विश्व व्यवस्था का संचालन कर सकेगा. और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन करा सकेगा.’ अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने में अब कुछ ही दिन बचे हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि हम पीछे मुड़ कर देखें कि दक्षिणी पूर्वी एशिया को लेकर डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन का रिकॉर्ड क्या रहा है? इसके साथ साथ ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि आख़िर अमेरिका के लिए हालात इस मोड़ तक पहुंचे तो कैसे?

डोनाल्ड ट्रंप का तूफ़ान

डोनाल्ड ट्रंप, 20 जनवरी 2017 को अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे. उसके बाद से ही अमेरिका ने संरक्षणवाद की नीति पर चलना शुरू कर दिया. अमेरिका की इस नीति का दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर सीधा असर पड़ा. डोनाल्ड ट्रंप ने जब ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से अमेरिका को अलग किया, तो इससे दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार समझौता बेकार हो गया. डोनाल्ड ट्रंप ने एक झटके में दक्षिणी पूर्वी एशिया के 11 देशों के साथ बड़ी मशक्कत के बाद हुए समझौते को ख़त्म कर दिया. सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियान लूंग ने इस फ़ैसले को लेकर अमेरिका की कड़ी आलोचना करते हुए सवाल किया कि, ‘आख़िर आप पर अब कौन भरोसा करेगा?’ जबकि, सिंगापुर के नेता आम तौर पर अमेरिका की सीधी आलोचना से बचते आए हैं. बात यहीं तक सीमित नहीं. डोनाल्ड ट्रंप ने इस क्षेत्र के कई देशों के ख़िलाफ़ व्यापारिक प्रतिबंध लगाने की भी धमकी दी. इसकी बस इतनी सी वजह थी कि इन देशों का अमेरिका के साथ व्यापार सरप्लस था. बार-बार व्यापार कर बढ़ाने को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करके डोनाल्ड ट्रंप ने दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई निर्यातकों को तगड़ा झटका दिया. ट्रंप के सनक भरे रवैये से न तो लोगों का अमेरिका में विश्वास बढ़ा, न ही उसके प्रति राय अच्छी बनी. यही नहीं, डोनाल्ड ट्रंप के फ़ैसलों ने वैश्विक व्यापार के नियमों को तोड़ने की दिशा में एक बुरी मिसाल पेश की. ये बात व्यापार पर आधारित दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए घातक साबित हो सकती है.

बहुपक्षीय समझौतों और संगठनों को लेकर ट्रंप की नफ़रत भरी नीतियों ने एक विश्व नेता के तौर पर अमेरिका की छवि को बहुत नुक़सान पहुंचाया है. डोनाल्ड ट्रंप ने ऐसे बहुपक्षीय संगठनों को क्षति पहुंचाने के लिए लगातार क़दम उठाए हैं. वैश्विक संगठनों को एक मज़बूत नेतृत्व प्रदान करने के बजाय, ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र से संवाद समाप्त कर दिया. उसे पैसे देने बंद कर दिए. विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था में अपने सदस्य नियुक्त करने से इनकार कर दिया. यही नहीं, जिस समय पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी का क़हर बरस रहा था, उस समय डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाला अमेरिका सभी देशों को एकजुट करके एक वैश्विक अभियान की अगुवाई करने में भी नाकाम रहा. इसके बजाय, डोनाल्ड ट्रंप लगातार चीन पर आरोप लगाते रहे. मदद के लिए अपने सहयोगी देशों पर ही दबाव बनाते रहे. उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन से भी अमेरिका को अलग कर लिया.

इस क्षेत्र के लोगों के लिए सबसे बड़ी परेशानी, चीन को लेकर अमेरिका की नीति रही है. ये नीति लगातार टकराव वाली ही रही है. ट्रंप प्रशासन ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के तहत, चीन को अमेरिका का ‘सामरिक प्रतिद्वंदी’ घोषित कर दिया है. 

दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों के लिए ऐसे बहुपक्षीय संगठन बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि इन्हीं की मदद से दुनिया को नियम क़ायमों पर चलने वाली व्यवस्था दी जा सकती है. और इन्हीं की मदद से दक्षिणी पूर्वी एशिया के देश अपने यहां किसी बाहरी दखल को रोक सकते हैं. ख़ुद को आर्थिक तौर पर समृद्ध बना सकते हैं. लेकिन, जान बूझकर इन संस्थाओं को कमज़ोर बनाकर डोनाल्ड ट्रंप ने न केवल लंबी अवधि में इस क्षेत्र की स्थिरता को चोट पहुंचाई है. बल्कि, अमेरिका के नेतृत्व में लोगों का भरोसा भी कमज़ोर किया है.

अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव का क्या असर होगा?

वैसे तो अमेरिका ने आधिकारिक रूप से मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद-प्रशांत क्षेत्र (FOIP) की रणनीति अपनाई हुई है. और इसी नीति के तहत दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ संबंधों को आगे बढ़ाया है. पर ज़मीनी सच्चाई ये है कि राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप ने इस क्षेत्र के लिए न तो कोई सम्मान दिखाया है और न ही दिलचस्पी ज़ाहिर की है. ट्रंप के पूर्ववर्ती बराक ओबामा नियमित रूप से आसियान (ASEAN) देशों की शिखर बैठकों में शामिल होते थे. लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप अपने पूरे कार्यकाल में ऐसी शिखर वार्ताओं से नदारद ही रहे हैं. बल्कि, ट्रंप ने तो आसियान देशों का अपमान भी किया था. जब उन्होंने पिछले साल अमेरिका-आसियान की वार्षिक बैठक के लिए एक निम्न स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजा था. जिसके बाद आसियान के कई नेताओं ने इस बैठक का बहिष्कार कर दिया था. हालांकि ट्रंप प्रशासन के बड़े अधिकारी अमेरिका और आसियान देशों के बीच मज़बूत संबंधों की वक़ालत करते रहे हैं. लेकिन, अमेरिका का बर्ताव ऐसा नहीं रहा है कि उस पर भरोसा किया जा सके. इस क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता पर विश्वास किया जा सके.

बहुत से ग़लत क़दम उठाने के बावजूद, अमेरिका की मौजूदा सरकार ने इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों और सामरिक साझीदार देशों से संवाद स्थापित करने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए, एशिया रिअश्योरेंस इनीशिएटिव एक्ट (ARIA) के तहत अमेरिका इस क्षेत्र के देशों के साथ अपना राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक संपर्क बढ़ाने के लिए 1.5 अरब डॉलर ख़र्च करता है. 

इस क्षेत्र के लोगों के लिए सबसे बड़ी परेशानी, चीन को लेकर अमेरिका की नीति रही है. ये नीति लगातार टकराव वाली ही रही है. ट्रंप प्रशासन ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के तहत, चीन को अमेरिका का ‘सामरिक प्रतिद्वंदी’ घोषित कर दिया है. इसके अलावा डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को लेकर बेहद आक्रामक रणनीति अपनाई हुई है. जिसके कारण, कई दशकों बाद चीन के साथ अमेरिका के संबंध बेहद निचले स्तर पर पहुंच गए हैं. चीन के ख़िलाफ़ ट्रंप प्रशासन द्वारा उठाए गए क़दमों में उसके साथ व्यापार युद्ध, साउथ चाइना सी में फ़्रीडम ऑफ़ नेवीगेशन ऑपरेशन (FONOPs) की गश्त बढ़ाने और चीन के ऐप और तकनीकी कंपनियों पर प्रतिबंध जैसे फ़ैसले शामिल हैं.

हालांकि, दक्षिणी पूर्वी एशिया के देश लगातार आक्रामक हो रहे चीन का भी दबाव झेल रहे हैं. लेकिन, उन्हें ये बिल्कुल मंज़ूर नहीं है कि इस क्षेत्र में दो महाशक्तियों में टकराव हो. क्योंकि इससे पूरे क्षेत्र की स्थिरता पर बुरा असर पड़ेगा. जो किसी के भी हित में नहीं होगा. इसके अलावा अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष बढ़ा तो, इस क्षेत्र के देशों को किसी एक पक्ष का चुनाव भी करने को मजबूर होना पड़ सकता है. जिससे दक्षिणी पूर्वी एशिया का कोई भी देश बचना चाहेगा. क्योंकि, दक्षिणी पूर्वी एशिया के लिए तो अमेरिका की भी अहमियत है और उनके लिए चीन भी महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते टकराव के बावजूद दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों ने इस मामले पर या तो चुप्पी साध ली. या बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी. फिर चाहे साउथ चाइना सी में चीन की बढ़ती गतिविधियां हों या अमेरिका का फ़्रीडम ऑफ़ नेवीगेशन ऑपरेशन (FONOPs) की गश्त बढ़ाना हो.

दक्षिणी पूर्वी एशिया के नज़रिए से देखें, तो चीन के बढ़ते प्रभाव का प्रबंधन करने का सबसे अच्छा तरीक़ा ये है कि इसे आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठन के साथ जोड़ लिया जाए. पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन और आसियान रीजनल फोरम जैसी व्यवस्थाओं की मदद से चीन इन क्षेत्रीय ताक़तों से संवाद करता रहा है. इससे चीन का आक्रामक रुख़ भी नरम पड़ा है और इन देशों पर उसका प्रभाव भी सीमित हो सका है. जबकि, आसियान देशों की केंद्रीय भूमिका बनाए रखी जा सकी है. ऐसे बहुपक्षीय संगठन में अमेरिका अपनी मज़बूत उपस्थिति से आसियान देशों को अपने समर्थन को दिखा सकता है. इस क्षेत्र में चीन की ताक़तवर स्थिति से संतुलन बनाने के लिए ये ज़रूरी भी है. लेकिन, इन संगठनों को लेकर डोनाल्ड ट्रंप की उपेक्षा को या तो आसियान के रुख़ को लेकर ट्रंप की अनभिज्ञता ज़ाहिर होती है. या फिर ट्रंप को लगता है कि उन्हें इसकी कोई परवाह ही नहीं.

2018 में अमेरिका ने एशिया में ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के विकास के कई प्रोजेक्ट के लिए 11.3 करोड़ डॉलर के त्वरित भुगतान का एलान किया था. इसके अलावा अमेरिका ने बेटर यूटिलाइज़ेशन ऑफ़ इन्वेस्टमेंट लीडिंग टू डेवेलपमेंट (BUILD) एक्ट भी पारित किया था. जिससे, विकासशील देशों में मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़े प्रोजेक्ट में निजी क्षेत्र के निवेश को समर्थन दिया जा सके.

फिर भी, केवल इन्हीं उदाहरणों से ही हम दक्षिणी पूर्वी एशिया को लेकर ट्रंप की नीति की उचित समीक्षा नहीं कर सकते.

उम्मीद की किरण

बहुत से ग़लत क़दम उठाने के बावजूद, अमेरिका की मौजूदा सरकार ने इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों और सामरिक साझीदार देशों से संवाद स्थापित करने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए, एशिया रिअश्योरेंस इनीशिएटिव एक्ट (ARIA) के तहत अमेरिका इस क्षेत्र के देशों के साथ अपना राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक संपर्क बढ़ाने के लिए 1.5 अरब डॉलर ख़र्च करता है. अमेरिका के इस क़ानून में ये व्यवस्था विशेष तौर पर की गई है कि अमेरिका और आसियान के संबंध को सामरिक साझेदारी के स्तर तक ले जाया जाए. और इसके साथ साथ, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और वियतनाम के साथ आर्थिक और सुरक्षा संबंधी साझेदारी को और मज़बूत बनाया जाए. एशिया-पैसिफिक इकॉनमिक को-ऑपरेशन, ईस्ट एशिया समिट और ग्रुप ऑफ-20 जैसे बहुपक्षीय संगठनों में सक्रियता बढ़ाने के अलावा अमेरिका का ये क़ानून ये बात भी ज़ोर देकर कहता है कि आसियान देशों के साथ उसके व्यापारिक संबंध बेहद महत्वपूर्ण हैं. इस एक्ट के तहत एक ‘व्यापक आर्थिक संपर्क फ्रेमवर्क’ बनाए जाने का भी प्रस्ताव है. ARIA एक्ट के ज़रिए अमेरिका ने लोअर मीकॉन्ग इनिशिएटिव को लेकर भी अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है. और कम्बोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड व वियतनाम को आर्थिक मदद और विकास में सहयोग प्रदान किया है.

इसके अतिरिक्त ट्रंप प्रशासन ने इस क्षेत्र में विकास संबंधी आर्थिक पूंजी निवेश की बढ़ती मांग को भी समझा है. 2018 में अमेरिका ने एशिया में ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के विकास के कई प्रोजेक्ट के लिए 11.3 करोड़ डॉलर के त्वरित भुगतान का एलान किया था. इसके अलावा अमेरिका ने बेटर यूटिलाइज़ेशन ऑफ़ इन्वेस्टमेंट लीडिंग टू डेवेलपमेंट (BUILD) एक्ट भी पारित किया था. जिससे, विकासशील देशों में मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़े प्रोजेक्ट में निजी क्षेत्र के निवेश को समर्थन दिया जा सके. और संबंधित देशों को विदेशी क़र्ज़ से संबंधित जोखिमों की पहचान करके उनसे निपटने में मदद की जा सके.

चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट से ठीक उलट, अमेरिका तमाम प्रोजेक्ट की फंडिंग में निजी क्षेत्र के पूंजी निवेश को बढ़ावा देता है. इसका ये अर्थ होता है कि किसी भी प्रोजेक्ट के स्थायित्व और मुनाफ़े पर ज़ोर दिया जाता है. हालांकि, इसका ये मतलब भी होता है कि अमेरिका ख़ुद कम पैसों का निवेश करता है. लेकिन, इससे ये आशंका भी दूर होती है कि जिन देशों में ये प्रोजेक्ट लगाए जाएंगे, उन पर क़र्ज़ का भारी बोझ होगा. जबकि चीन के BRI से जुड़े तमाम प्रोजेक्ट के साथ ये समस्या होती ही है.

अमेरिका ने इन देशों को अन्य क्षेत्रों में भी मदद मुहैया कराई है. अमेरिका-आसियान स्मार्ट सिटीज़ पार्टनरशिप का मक़सद दक्षिणी पूर्वी एशिया के शहरी क्षेत्रों का डिजिटल परिवर्तन करना है. वहीं, इंडो-पैसिफिक ट्रांसपैरेंसी इनिशिएटिव के माध्यम से अमेरिका, इस क्षेत्र के देशों को प्राइवेट सेक्टर से पूंजी प्राप्त करने, भ्रष्टाचार से निपटने और अच्छा प्रशासन देने में मदद करता है. इसके अलावा अन्य प्रावधानों, जैसे कि अमेरिकी सपोर्ट फॉर इकॉनमिक ग्रोथ इन एशिया (US-SEGA) की मदद से एशिया प्रशांत के आर्थिक सहयोग के क्षेत्रीय संगठन (APEC) के देशों को उच्च मानक वाली व्यापक व्यापारिक और निवेश की नीतियां अपनाने में मदद की जाएगी.

वैसे, डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका और दक्षिणी पूर्वी एशिया के बीच रक्षा के क्षेत्र में संबंध पहले की ही तरह जारी रहे हैं. दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों को समुद्र की तरफ़ से आने वाले ख़तरे से निपटने के लिए, अमेरिका वहां के सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराता है. इसके लिए अमेरिका, साउथ ईस्ट एशिया मैरीटाइम सिक्योरिटी इनिशिएटिव (SAMSI) चलाता है. इसके अलावा, अमेरिका हर साल अपने सुरक्षा सहयोगियों, जैसे कि सिंगापुर के साथ साझा युद्धाभ्यास करता है. पिछले साल, आसियान-अमेरिका के बीच पहला समुद्री अभ्यास (ASEAN-US Maritime Exercise AUMX) आयोजित किया गया था. इसमें अमेरिका के साथ साथ पहली बार दक्षिण एशियाई देशों की नौसेनाएं शामिल हुई थीं.

दृष्टिकोण का संघर्ष

इन क़दमों से ये ज़ाहिर है कि अमेरिका, दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों के साथ अपने आर्थिक और सामरिक संबंधों को मज़बूत बनाने में जुटा है और उनका दायरा भी बढ़ा रहा है. इस संदर्भ में ट्रंप प्रशासन भी उसी नीति पर चल रहा है, जो डोनाल्ड ट्रंप से पहले की अमेरिकी नीति रही है.

लेकिन, जैसा कि पहले के सर्वे बताते हैं, अब दक्षिण एशिया के देशों के बीच एक सामरिक साझेदार के तौर पर अमेरिका पर भरोसा कम हुआ है. वास्तविकता और लोगों की धारणा के बीच इस फ़र्क़ की बड़ी वजह ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं. एक तरफ़ तो उनके राज में अमेरिका ने इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने और दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों की मदद के लिए बहुत सोच समझकर व्यापक नीतियां बनाईं और लागू की हैं. जिससे दक्षिणी पूर्वी एशिया में अमेरिका के हितों की रक्षा करते हुए, उसकी छवि को बेहतर किया जा सके. लेकिन, राष्ट्रपति ट्रंप के अचानक दिए जाने वाले बेसिर-पैर के बयानों और सनक भरे फ़ैसलों के शोर में अमेरिका की असली नीतियां कहीं गुम हो जाती हैं. यही कारण है कि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में अमेरिका के बारे में जो छवि बनी है, वो असल में डोनाल्ड ट्रंप की अपनी इमेज का नतीजा है. और ट्रंप को दुनिया एक ऐसा नेता मानती है, जो न तो भरोसेमंद साझीदार हैं और न ही भरोसे के लायक़ नेता.

अमेरिका के लिए दिक़्क़त इस बात की है कि इस क्षेत्र के अधिकतर नेता, अपनी नीतियां सामने वाले की छवि के आधार पर बनाते हैं. ऐसे में किसी की छवि अगर नकारात्मक है, तो उसके आधार पर कोई देश ऐसी नीतियां बनाएगा, जो अमेरिका के हितों के विपरीत होंगी और उनसे इस इलाक़े में अमेरिका का प्रभाव कम होगा. हालांकि, अभी भी अमेरिका अपनी साख बचा सकता है. उसके हाथ से सब कुछ निकला नहीं है. जिस सर्वे का हमने शुरुआत में ज़िक्र किया था, उसी सर्वे में ये भी पाया गया है कि इन देशों को अगर अमेरिका या चीन में से किसी एक का चुनाव करना पड़ा, तो ज़्यादातर सदस्य देशों की जनता यही चाहेगी कि आसियान (ASEAN) देश चीन के बजाय अमेरिका के नज़दीक जाएं. हालांकि चीन पर अमेरिका की ये बढ़त बहुत मामूली (महज़ 53.6 प्रतिशत) है. इसके अलावा सर्वे में शामिल 60.3 प्रतिशत लोगों ने संकेत दिया कि अमेरिका पर उनका भरोसा तब बढ़ेगा, जब अमेरिका में नेतृत्व परिवर्तन होगा. ज़ाहिर है, लोगों को ट्रंप नापसंद हैं. अमेरिका नहीं.

अब नवंबर में होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, नए अमेरिकी राष्ट्रपति को अमेरिका के प्रति दुनिया का भरोसा जीतने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. अमेरिका की मौजूदा नीतियां, नए राष्ट्रपति के लिए इस काम में मददगार होंगी. इन्हीं की बुनियाद पर वो विश्व का भरोसा जीतने का काम कर सकेंगे. लेकिन, इससे इतर, अमेरिका के नए राष्ट्रपति का बर्ताव और उनके द्वारा उठाए जाने वाले क़दम भी काफ़ी महत्वपूर्ण होंगे. क्योंकि उन्हीं के आधार पर ये तय होगा कि क्या अमेरिका, दक्षिण एशिया के देशों का भरोसा दोबारा जीत सकेगा? और दोबारा इस क्षेत्र का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकेगा.

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