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यदि एजेंडे में स्थिरता को शामिल कर लिया जाए है तो भारत की विकास भागीदारी संभावित रूप से कथानक को बदलने वाली यानी गेम चेंजर साबित हो सकती हैं.
दुनियाभर में कोविड-19 महामारी के बढ़ने के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय खासतौर पर विकासशील देशों की महामारी से लड़ने की क्षमता और उनके कमज़ोरियों के बीच सतत विकास को ले कर बहस लगातार तेज़ हुई है. भविष्य में महामारी की चपेट में आने के ख़तरे और उसके ख़िलाफ़ अपनी कमजोरियों और असफलताओं को लेकर यह देश अब इस बात पर लगातार विचार कर रहे हैं कि उनके तौर तरीके किस हद तक लचीले हैं और सतत विकास को बढ़ावा दे सकते हैं. सहकारी संबंधों और भागीदारी को बढ़ावा देना, निस्संदेह रूप से विकास की व्यापक बहस के केंद्र में रहा है. यहां, विकास संबंधी भागीदारी (development partnerships) सकारात्मकता को अधिक से अधिक बढ़ाने और संबंधित जोखिमों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. इस संदर्भ में, कई दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी देशों के विकास में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए, भारत की विकास भागीदारी (development partnerships) बड़े स्तर पर सहायता संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. सही मायनों में भारत की विकास सहयोग संबंधी पहलों ने इसकी स्थिति को उस स्तर तक बढ़ावा दिया है जहां वह बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय विकास के वैश्विक ढांचे को नया रूप दे सकता है.
सही मायनों में भारत की विकास सहयोग संबंधी पहलों ने इसकी स्थिति को उस स्तर तक बढ़ावा दिया है जहां वह बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय विकास के वैश्विक ढांचे को नया रूप दे सकता है.
साल 1947 में आज़ादी से पहले, भारत अपने पड़ोसी देशों और अफ्रीका के साथ प्रभावी साझेदारी बनाने में लगा हुआ था. इसके अलावा, भारत की विकास भागीदारी को इसकी समग्र विकास सहयोग रणनीति (development cooperation strategy) का एक अनिवार्य पहलू कहा जा सकता है. शुरुआत से ही, नई दिल्ली का रुख इस मायने में स्पष्ट रहा है: अंतरराष्ट्रीय समुदाय सभी देशों के आर्थिक विकास के लिए ज़िम्मेदार है, जिसे ग़रीबों के लिए दान या सहायता के रूप में नहीं, बल्कि विश्व की शांति और समृद्धि के लिए बनाई गई एक साझेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए, और यही अंतरराष्ट्रीयता का मुख्य विचार है. स्वयं एक विकासशील देश होने के अलावा, भारत ने एशिया और अफ्रीका में नए स्वतंत्र देशों के सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की दिशा में अपने अनुभवों को आगे बढ़ाया है. यदि हम 1950 के दशक की शुरुआत में अपने पड़ोस में सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर नई दिल्ली की विकास भागीदारी की जांच करते हैं, तो यह देखा गया है कि अप्रत्यक्ष रूप से, भारत ने, कई तरह के स्थिरता और सतत विकास संबंधी लक्ष्यों के लिए योगदान दिया. उदाहरण के लिए, नेपाल, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और भूटान में, इसने भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (आईटीईसी) कार्यक्रम के तहत शिक्षा (एसडीजी 4) जैसे विभिन्न क्षेत्रों में क्षमता निर्माण, स्वास्थ्य (एसडीजी 3) और तकनीकी प्रशिक्षण (एसडीजी 17) में मदद की. भारत ने इन राष्ट्रों को जलविद्युत संयंत्रों, रोडवेज़ और परिवहन लिंक के निर्माण के रूप में ढांचागत सहायता (एसडीजी 9) भी प्रदान की, जिससे व्यापार के लिए नए बाज़ार खुले.
स्वयं एक विकासशील देश होने के अलावा, भारत ने एशिया और अफ्रीका में नए स्वतंत्र देशों के सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की दिशा में अपने अनुभवों को आगे बढ़ाया है.
साल 2000 में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य, एमडीजी (Millennium Development Goals, MDGs) की पृष्ठभूमि में, जलवायु परिवर्तन के लिए वित्तपोषण और अधिक व्यापक रूप से देखें तो सतत विकास, वैश्विक स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक बन कर उभरा. इसे विकास क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सहयोग का उत्प्रेरक भी माना जा सकता है. वास्तव में, इस बात को लेकर भी व्यापक रूप से सहमति व्यक्त की गई है कि चूंकि अधिकांश दाताओं द्वारा दी गई सहायता के वितरण के लिए एक आयोजन ढांचे के रूप में अपनाया गया था, इसने आधिकारिक विकास सहायता, ओडीए (official development assistance, ODA) को सुव्यवस्थित करने में मदद की. इसके अलावा, “अंतरराष्ट्रीय सहयोग और आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) दोनों एक साथ, एक मज़बूत प्रतिचक्रीय प्रवाह यानी बदलाव के कारकों के रूप में काम कर सकते हैं, ख़ासतौर पर दुनियाभर में फैली महामारी के प्ररिप्रेक्ष्य में“. यहां तक कि आधिकारिक विकास सहायता में “विकासशील देशों में रोकथाम को लेकर सही व सटीक तौर तरीके अपनाने, मार्गदर्शन करने, नवाचार को बढ़ावा देने, विश्वसनीयता और भविष्य को ले कर सटीक आकलन करने की क्षमता है“. आधिकारिक विकास सहायता के सबसे प्रेरक चालकों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगातार बढ़ना नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सार्वजनिक समर्थन व लामबंदी, मानवीय और विकास की ज़रूरतों की बदलती प्रकृति और बढ़ते पैमाने को समझना, एकजुटता और वैश्विक विकास और प्रगति में पारस्परिक हितों को समझना है.
आधिकारिक विकास सहायता के सबसे प्रेरक चालकों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगातार बढ़ना नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सार्वजनिक समर्थन व लामबंदी, मानवीय और विकास की ज़रूरतों की बदलती प्रकृति और बढ़ते पैमाने को समझना, एकजुटता और वैश्विक विकास और प्रगति में पारस्परिक हितों को समझना है.
2000 के दशक के दौरान भारतीय विकास सहयोग साधनों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले प्राथमिक लक्ष्यों में सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों यानी एमडीजी को कोई विशेष उल्लेख नहीं मिला. भारत की सहयोग संबंधी पहल इस दौरान लगातार स्थिरता और सतत विकास के लक्ष्यों से संबंधित क्षेत्रों से जुड़ी रहीं लेकिन सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का स्पष्ट उल्लेख फिर भी ग़ायब था. सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों की विफलता के साथ, स्थिरता का कथानक अपने दृष्टिकोण में और अधिक दृढ़ व लक्षित हो गया, जिसने साल 2015 में वर्तमान सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को आकार दिया. वर्तमान में, भारत का विकास भागीदारी प्रशासन, डीपीए (India’s Development Partnership Administration, DPA) अपने निकट पड़ोस में द्विपक्षीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी यानी जुड़ाव व परस्पर सहयोग को खासतौर पर तरहजीह देता है जो एसडीजी 8, एसडीजी 9 और एसडीजी 11 के तहत एक कारक है. विशेष रूप से, इसे रणनीतिक प्रमुखता हासिल करने और ‘मदद पाने वाले’ देशों व अन्य दाताओं की नज़र में भारत को मज़बूती से स्थापित करने के नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए. इसके अलावा, मौजूदा दौर में महामारी के संदर्भ में, भारत द्वारा वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं यानी जीपीजी (global public goods, GPGs) जैसे स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य सामान तक आसान पहुंच सुनिश्चित करने की क्षमता भी खुलकर सामने आई है.
भारत की विकास संबंधी भागीदारी, द्विपक्षीय पहलों के अलावा, कई बहुपक्षीय मंचों पर भी मौजूद हैं. भले ही कोविड-19 की महामारी के बाद बहुपक्षवाद की अवधारणा में लगातार गिरावट आई है, लेकिन विशेष रूप से भारत के लिए सहयोग और विश्वास–निर्माण को बढ़ावा देना, एजेंडा-2030 के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हो गया है. एसएससी के व्यापक दायरे में विभिन्न बहुपक्षीय मंचों पर एक भागीदार के रूप में भारत, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन व विकास सहायता समिति (OECD-DAC) की संरचना के समकक्ष, वैकल्पिक तरीक़े और वित्त जुटाने के नए रास्ते भी स्थापित कर रहा है. यह वैश्विक मान्यता के लिए भारत की अंतर्निहित इच्छा को भी दर्शाता है. इस मायने में भारत की गतिविधियां, खासतौर से 2015 के बाद, अन्य विकासशील देशों के साथ साझेदारी (एसडीजी 17) बनाने की दिशा में तेज़ी से निर्देशित की गई हैं; उदाहरण के लिए, आईबीएसए (भारत ब्राजील दक्षिण अफ्रीका) पहल या भारत–संयुक्त राष्ट्र विकास भागीदारी कोष. हालांकि, यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि भारतीय डीपीए के पास भले ही सतत विकास लक्ष्यों पर कोई अलग कार्यक्षेत्र नहीं है, लेकिन इनमें से अधिकतर पहलों का उद्देश्य “विकासशील दुनिया में दक्षिणी स्वामित्व वाली और नेतृत्व वाली, मांग–संचालित और परिवर्तनकारी सतत विकास परियोजनाओं का समर्थन करना” है. यह सतत विकास लक्ष्यों पर भारतीय विकास सहायता समिति के संदेश और संस्थागत ढांचे के बिल्कुल विपरीत है, जिसका कहीं भी कोई ठोस उल्लेख नहीं मिलता है.
कम लागत वाले प्रौद्योगिकी समाधान और सस्ते मानव श्रम प्रदान करते हुए, भारत ने वैश्विक सहायता कैनवास में लाभ प्राप्त करने के लिए इस लक्ष्य बड़े ही कुशलता से उपयोग किया है.
भारत ने 2015 में फ्रांस के साथ अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन यानी आईएसए (International Solar Alliance, ISA) और 2019 में आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे यानी सीडीआरआई (Coalition for Disaster Resilient Infrastructure, CDRI) के लिए गठबंधन के माध्यम से एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों के साथ अपने जुड़ाव को और बढ़ावा दिया है. यह एक बार फिर से केंद्रित रूप से भारत की स्थिरता संबंधी महत्वाकांक्षाओं को दर्शाता है जो एसडीजी लक्ष्य 7 और एसडीजी लक्ष्य 13 की ओर एक क़दम है. कम लागत वाले प्रौद्योगिकी समाधान और सस्ते मानव श्रम प्रदान करते हुए, भारत ने वैश्विक सहायता कैनवास में लाभ प्राप्त करने के लिए इस लक्ष्य बड़े ही कुशलता से उपयोग किया है. यह नोट करना आवश्यक है कि ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) द्वारा शुरू किए गए न्यू डेवलपमेंट बैंक को “ब्रिक्स और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बुनियादी ढांचे और सतत विकास परियोजनाओं का समर्थन करने के लिए संसाधन जुटाने” की दिशा में भी निर्देशित किया गया है. फिर भी, बहुपक्षीय विकास सहयोग पहलों में एक लक्ष्य के रूप में सतत विकास का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है जहां भारत एक प्रमुख भागीदार है.
अब तक, भारत की विकास सहायता समिति के कथानक ने पारंपरिक दाताओं द्वारा छोड़े गए शून्य को भरने का प्रयास किया है. कोविड-19 संकट ने सामाजिक–आर्थिक और वित्तीय अस्थिरताओं को उजागर किया है क्योंकि महामारी के बाद लगातार सीमाएं बंद थीं और तालाबंदी लागू की गई. हालांकि, एजेंडा 2030 की ओर बढ़ते क़दमों के साथ साल 2020 का दशक, भारतीय विकास सहायता समिति नीति निर्माताओं द्वारा अपनी संस्थागत संरचना में महत्वपूर्ण सुधारों के बारे में सोचने का एक अवसर हो सकता है. नई दिल्ली के हस्तक्षेपों में सतत विकास और स्थिरता की ओर झुकाव को देखते हुए, भारत ने भले ही ऐतिहासिक रूप से टिकाऊ विकास को लगातार अपने फैसलों में शामिल किया है, लेकिन यह नीतिगत बदलाव होने के बजाय अल्पावधि में लिए जाने वाले त्वरित फैसलों की तरह अधिक रहा है. इसके अलावा, जबकि सतत विकास लक्ष्य भले ही साल 2015 में खुलकर सामने आए हों लेकिन इस मायने में नई दिल्ली की आकांक्षाएं साल 2015 से पहले भी स्थिरता के एजेंडा को प्रतिबिंबित करती रही हैं. सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में और एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था होने के नाते, भारत संभावित रूप से सतत विकास लक्ष्यों को लेकर “समाधान प्रदान करने और दूसरों का मार्गदर्शन करने वाले” कथानक को आगे बढ़ा सकता है. यदि नई दिल्ली सतत विकास से जुड़े अपने लक्ष्यों को भारतीय विकास सहायता समिति की प्राथमिकताओं के साथ सफलतापूर्वक पुन: स्थापित कर सकती है, तो आने वाले दशक में स्थिरता के “भारतीय मॉडल” की कल्पना करना काफी हद तक संभव है.
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Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...
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