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भारत में कार्यकारी प्रणाली द्वारा लिए जा रहे फैसलों पर नज़र रखने और उन्हें नियंत्रित करने की आखिरी उम्मीद अब स्वतंत्र व प्रभावी न्यायपालिका से ही है
यूरोपीय देश स्वीडन स्थित वी-डेम संस्थान के माध्यम से हाल ही में जारी की गई ‘डेमोक्रेसी रिपोर्ट 2020’ ने भारत के नीतिगत हलकों में काफ़ी हलचल पैदा करने का काम किया. इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत, एक लोकतंत्र के रूप में अपनी पहचान और अपना वर्चस्व खोने के कगार पर है. निरंकुशता की दिशा में भारत के बढ़ते क़दमों को ध्यान में रखते हुए, स्वीडन आधारित यह रिपोर्ट जो दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के कलेवर को लेकर सबसे व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करती है, भारत में नागरिक स्वतंत्रता, विशेष रूप से मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन को लेकर लगातार सामने आ रहे रुझानों का हवाला देती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में विरोध के स्वरों को दबाने की प्रवृत्ति इसके ख़राब प्रदर्शन का प्रमुख़ कारण है.
भारत में मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर आई गिरावट, विशेष रूप से कई नागरिक समाज से जुड़े कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार की रक्षा करने वालों की ग़िरफ्तारी, और सरकार द्वारा स्वतंत्र रूप से बोलने पर अंकुश लगाने और स्वतंत्र मीडिया को अपने पक्ष में करने से संबंधित प्रयासों पर ज़ोर देने की कार्रवाई का हवाला देते हुए ध्यान इंगित किया गया है.
यह रिपोर्ट इस मायमें में इकलौती नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार परिषद की उच्चाधिकारी (United Nations High Commissioner for Human Rights-UNHCR) मिशेल बैशलेट का हालिया बयान इस मामले में और भी गंभीर और आलोचना भरा है, जिसके तहत उन्होंने, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के हनन के बारे में अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है. भारत में मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर आई गिरावट, विशेष रूप से कई नागरिक समाज से जुड़े कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार की रक्षा करने वालों की ग़िरफ्तारी, और सरकार द्वारा स्वतंत्र रूप से बोलने पर अंकुश लगाने और स्वतंत्र मीडिया को अपने पक्ष में करने से संबंधित प्रयासों पर ज़ोर देने की कार्रवाई का हवाला देते हुए ध्यान इंगित किया गया है. बैशलेट ने विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान, आतंकवाद विरोधी क़ानून- गैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 (Unlawful Activities Prevention Act) यानी यूएपीए (UAPA) के बढ़ते प्रयोग की ओर दिलाने की कोशिश की. इस तरह की चिंताओं को कई दूसरी वैश्विक इकाईयां और लोकतंत्र के प्रहरी माने जाने वाले निकायों में माध्यम से भी ज़ाहिर किया जा चुका है. इस लेख के ज़रिए हम, आतंकवाद विरोधी क़ानून यूएपीए (UAPA) और इसके तहत दर्ज किए जाने वाले मामलों पर न्यायपालिका की प्रतिक्रिया का जायज़ा लेने और इसका लेखाजोखा तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं.
यूएपीए (UAPA) यानी ‘अनलॉफुल एक्टिविटी प्रिवेंशन एक्ट’ मुख्य़ रूप से और व्यापक स्तर पर एक आतंकवाद विरोधी कानून है जिसे केवल दुर्लभ मामलों में ही लागू किया जाना चाहिए. हालांकि, पिछले कुछ सालों में यूएपीए (UAPA) से संबंधित अनुभव बताता है कि सरकार द्वारा इसका अंधाधुंध व अविवेकपूर्ण उपयोग किया जा रहा है- संघ और राज्य दोनों स्तरों पर. यह उपयोग अलग अलग मामलों में हो सकता है लेकिन इसका कलेवर लगभग समान है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, साल 2019 में यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज किए गए मामलों में सबसे बड़ा उछाल देखा गया. इन आंकड़ों के मुताबिक, इस विवादास्पद आतंकवाद-विरोधी क़ानून के तहत 1,226 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है जो साल 2016 के मुक़ाबले 33 प्रतिशत अधिक है. ध्यान देने वाली बात यह है कि साल 2019 में ही इनमें से लगभग 11 प्रतिशत मामलों को पुलिस ने सबूतों के अभाव में बंद कर दिया था. यानी यूएपीए क़ानून के तहत दर्ज किए गए मामलों में सज़ा दर बेहद कम है और यूएपीए (UAPA) को पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को हिरासत में लिए जाने, उसे परेशान करने व डराने के लिए उपयोग किया जा रहा है.
साल 2019 में यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज किए गए मामलों में सबसे बड़ा उछाल देखा गया. इन आंकड़ों के मुताबिक, इस विवादास्पद आतंकवाद-विरोधी क़ानून के तहत 1,226 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है जो साल 2016 के मुक़ाबले 33 प्रतिशत अधिक है.
पिछले दो वर्षों में, विशेष रूप से, कई प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, नागरिक समाज से जुड़े नेताओं, आंदोलनकारी नेताओं और यहां तक कि विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले छात्रों को भी यूएपीए (UAPA) और देशद्रोह संबंधी क़ानूनों के अंतर्गत गिरफ़्तार किए जाने से संबंधित मामलों में लगातार वृद्धि देखी गई है. इनमें सुधा भारद्वाज, वर्नोन गोंसाल्विस, अरुण फरेरा, वरवरा राव, आनंद तेलतुमडे, गौतम नवलखा जैसे नाम शामिल हैं. एक जनवरी 2018 को आयोजित भीमा-कोरेगांव स्मारक कार्यक्रम में उनकी कथित संलिप्तता के कारण इन कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया है. इस मायने में हाल ही में यूएपीए (UAPA) के तहत की गई गिरफ़्तारियों की सूची में सबसे नया नाम 83 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी का है जो एक जेसुइट पुजारी हैं और झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले एक प्रमुख कार्यकर्ता हैं.
इसके अलावा ऐसे दर्जनों कार्यकर्ता, शिक्षाविद और सूचना के अधिकार से जुड़े लोग हैं जिन्हें यूएपीए (UAPA) और देशद्रोह क़ानूनों के अंतर्गत मामला दर्ज कर गिरफ़्तार किया गया है- जैसे असम के अखिल गोगोई, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की सफूरा ज़रगर और पिंजरा तोड़ से जुड़ी छात्र कार्यकर्ताएं जो विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में शामिल रही हैं. इसके अलावा, हाल ही में छात्र कार्यकर्ता उमर खालिद को भी साल 2020 के शुरू में हुए दिल्ली दंगों में उनकी कथित भूमिका के कारण गिरफ़्तार किया गया था.
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज किए गए मामलों में तेज़ी से वृद्धि देखी गई है, फिर भी यूएपीए (UAPA) का दुरुपयोग लंबे समय से और सभी शासन कालों में हुआ है, जिनमें सरकार के कई महकमे (केंद्र व राज्य स्तर पर) शामिल रहे हैं.
यूएपीए (UAPA) क़ानून को 1967 में राष्ट्रीय एकीकरण (national integration) को बढ़ावा देने और उसे सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लागू किया गया था. साल 2004 में, बेहद कुख्य़ात रहे इस आतंकवाद निरोधक अधिनियम (Prevention of Terrorism Ordinance-POTA) 2002 (जिसे इस के बाद ‘पोटा’ के रूप में समझा जाए) के लगातार दुरुपयोग के चलते, कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, यूपीए (United Progress Alliance-UPA) की सरकार ने निरस्त कर दिया. इस के स्थान पर उन्होंने साल 1967 में पारित गैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, यूएपीए (UAPA) को संशोधित कर लागू किया ताकि आतंकवाद से निपटने और गैरक़ानूनी गतिविधियों का मुक़ाबला करने के प्रावधानों को शामिल कर एक ऐसा क़ानून बनाया जा सके जिसके ज़रिए आतंकवाद निरोधी क़ानून के दुरुपयोग को रोका जा सके और इस कानून को बेहतर ढंग से लागू किया जा सके. पोटा वह क़ानून था जिसे, संयुक्त राज्य अमेरिका में 11 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद साल 2001 में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, राजग (National Democratic Alliance-NDA) की सरकार के द्वारा अमल में लाया गया था. इस क़ानून में टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) के कई प्रावधानों को बरक़रार रखा गया था जो भारत में अमल में लाए गए सबसे कठोर व नृशंस क़ानूनों में से एक था. पिछले क़ानूनों के समान, पोटा ने “आतंकवादी” और “आतंकवादी गतिविधियों” को अस्पष्ट रूप से परिभाषित किया और इसने पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को इस बात की छूट दी कि वो अंधाधुंध व अविवेकपूर्ण रुप से इस क़ानून का प्रयोग कर सकें.
केंद्र में नियुक्त हुई सरकारों जिसमें यूपीए और एनडीए दोनों की सरकारें शामिल हैं, ने इस विवादास्पद यूएपीए (UAPA) क़ानून का दायरा बढ़ा कर इस के अंतर्गत ऐसी कई चीज़ों को शामिल करने को अपने लिए सुविधाजनक माना, जो निरस्त किए गए पोटा क़ानून की प्रमुख विशेषताएं रही हैं
हालांकि, टाडा और पोटा क़ानूनों के बड़े पैमाने पर नागरिक समाज द्वारा किए गए बहिष्कार और सरकारों को लगी कड़ी न्यायिक फटकार के बाद निरस्त कर दिया गया था, लेकिन केंद्र में नियुक्त हुई सरकारों जिसमें यूपीए और एनडीए दोनों की सरकारें शामिल हैं, ने इस विवादास्पद यूएपीए (UAPA) क़ानून का दायरा बढ़ा कर इस के अंतर्गत ऐसी कई चीज़ों को शामिल करने को अपने लिए सुविधाजनक माना, जो निरस्त किए गए पोटा क़ानून की प्रमुख विशेषताएं रही हैं. उदाहरण के लिए, साल 2004 में पोटा को निरस्त करने वाली यूपीए सरकार ने 1967 के यूएपीए (UAPA) क़ानून में संशोधन कर इसे सर्वव्यापी निरोध हिरासत क़ानून (omnibus preventive detention law) के रूप में मान्यता दी. इस के तहत यूएपीए (UAPA) क़ानून ने, पोटा में शामिल ‘आतंकवादी अधिनियम’ और ‘आतंकवादी संगठन’ को यूएपीए में शामिल करने के लिए ‘गैरकानूनी गतिविधि’ की परिभाषा का विस्तार किया. यह दोनों ही घटक पोटा क़ानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक थे. साल 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद, यूपीए सरकार ने यूएपीए (UAPA) में पोटा और टाडा के समान कई और प्रावधान जोड़े जिन के तहत किसी व्यक्ति को अधिकतम अवधि के लिए पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है, और उसे आरोप पत्र दाखिल किए बिना आरोपित किया जा सकता है. इसके अलावा यूएपीए (UAPA) क़ानून में ज़मानत पर प्रतिबंध जैसे प्रावधान भी शामिल कर लिए गए हैं, जो इसे पोटा और टाडा के समकक्ष बनाते हैं.
इस के बाद एनडीए सरकार ने जुलाई 2019 में इस अधिनियम में अतिरिक्त संशोधन किए, जिसके तहत राज्य और इसकी सुरक्षा एजेंसियों को अधिक विस्तृत रूप से ताक़त प्रदान की गई. हालांकि, इस कानून में ‘आतंकवादी’ की परिभाषा अब भी अस्पष्ट है, लेकिन साल 2019 में हुए संशोधनों ने केंद्र सरकार को इस बात का अधिकार दिया कि वह किसी भी व्यक्ति को बिना जांच या परीक्षण के “आतंकवादी” के रूप में नामित करने की ताक़त रखे. इसके अलावा, उन व्यक्तियों को भी आतंकवादी के रूप में नामित किया जा सकता है, जिनका यूएपीए (UAPA) की पहली अनुसूची में सूचीबद्ध 36 आतंकवादी संगठनों के साथ कोई संबंध या संबद्धता न हो. इसके तहत विशेष रूप से चिंताजनक यह है कि यूएपीए (UAPA) के अंतर्गत इस तरह नामित किए गए लोगों को इन आरोपों को चुनौती देने का कोई न्यायिक तंत्र प्रदान नहीं किया गया है. इस मामले में अपना बचाव करने यानी ‘डिनोटिफिकेशन’ के लिए, केंद्र सरकार को एक आवेदन किया जाना चाहिए. इस के बाद, इस तरह के एक आवेदन पर कोई फैसला लेने के लिए एक समीक्षा समिति गठित की जाती. इस समिति की अध्यक्षता, हालांकि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश करते हैं, लेकिन उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा ही की जाती है. इस प्रकार, समीक्षा की यह प्रक्रियाएं जो पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष परीक्षण का हिस्सा होनी चाहिए और जिन्हें इस रूप में मान्यता प्राप्त है, वह भी परोक्ष रूप से इन पक्षपाती संस्थानों का विस्तार भर हो कर रह गई हैं, जो प्रथम रूप से किसी व्यक्ति की गिरफ़्तारी के लिए जिम्मेदार हैं. कुल मिलाकर, यूएपीए (UAPA) क़ानून के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि यह किसी व्यक्ति को बिना उस पर मुक़दमा चलाए आतंकवादी बना देता है, और उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है, जिसे ज़मानत नहीं दी जा सकती क्योंकि वे समाज के लिए ख़तरा पैदा कर सकते हैं.
इस कानून में ‘आतंकवादी’ की परिभाषा अब भी अस्पष्ट है, लेकिन साल 2019 में हुए संशोधनों ने केंद्र सरकार को इस बात का अधिकार दिया कि वह किसी भी व्यक्ति को बिना जांच या परीक्षण के “आतंकवादी” के रूप में नामित करने की ताक़त रखे.
इसके अलावा, यूएपीए (UAPA) क़ानून पुलिस और राज्य के अधिकारियों को गिरफ़्तार व्यक्ति की जांच और उस पर मुक़दमा चलाने के लिए एक लंबी अवधि का समय प्रदान करता है, जो त्वरित रूप से और निष्पक्ष परीक्षण के उद्देश्य को पूरी तरह से पराजित करता है. जबकि जांच पूरी करने के लिए 90 दिन का समय दिया जाता है, किसी व्यक्ति को चार्जशीट दाखिल किए बिना भी 180 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है. हिरासत में रखे जाने की अवधि को कुछ ऐसे सबूतों की खोज पर आधारित होना चाहिए जो हिरासत में लिए गए व्यक्ति और उसके माध्यम से अंजाम दिए गए किसी काम के बीच संबंध को दर्शाए और इस मामले में सबूत पेश करे, न कि यह मामले की जांच में हो रही प्रगति के संकेतों पर आधारित हो. निचले और उच्चतर दोनों स्तरों पर अदालतें, लगातार इन लोगों को ज़मानत के अधिकार से वंचित कर रही हैं, उन मामलों में भी जहां हिरासत में लिया गया व्यक्ति वृद्ध और बीमार हो जैसे वरवरा राव, स्टेन स्वामी और सुधा भारद्वाज सहित अन्य कुछ लोग जिन्हें अभी तक ज़मानत नहीं दी गई है. यह किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला है, क्योंकि हिरासत की अवधि में यह विस्तार किसी भी तरह से सबूतों की खोज से संबंधित नहीं है, या फिर उनके किसी आतंकवादी कार्य के लिए सीधे जुड़ाव को नहीं दर्शाता है. यह पूरी तरह से ‘जांच की प्रगति’ पर आधारित है- जो एक अत्यंत अस्पष्ट अवधारणा है और न्यायिक तंत्र में आरोपी के पास इसका कोई सुरक्षित बचाव नहीं है क्योंकि जांच में हुई प्रगति की कोई न्यूनतम सीमा भी तय नहीं की गई है.
न्यायपालिका, जो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में निवारण और सुरक्षा प्रदान करने वाली सबसे महत्वपूर्ण संस्था है, हाल के दिनों में यूएपीए (UAPA) के तहत आने वाले मामलों को लेकर कड़ी निंदा की शिकार रही है. सुप्रीम कोर्ट के कई सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने नए यूएपीए (UAPA) क़ानून को लागू किए जाने के बाद से नागरिक स्वतंत्रता के उल्लंघनों पर रोक लगाने को लेकर उच्च न्यायालयों की उदासीनता पर अपनी आवाज़ उठाई है. न्यायपालिका के ख़िलाफ़ इस तरह के रोष की वाजिब वजह और पुख्त़ा आधार भी हैं. उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों ने यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज किए गए मामलों में ज़मानत देने को लेकर कम से कम तत्परता दिखाई है, यहां तक कि उन मामलों में भी जिनमें पुलिस जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है, या फिर अभियोजन पक्ष मामले में कोई प्रगति नहीं कर पाया है. उच्चतम न्यायालय, जिसने 2011 में श्री इंद्र दास बनाम असम राज्य के मामले में की गई अंधाधुंध गिरफ़्तारियों और लोगों को अविवेकपूर्ण रूप से आतंकवादी के रूप में नामित किए जाने को लेकर एक बड़ा निर्णय दिया था, ने साल 2019 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाम ज़हूर अहमद शाह वटाली के मामले में बिल्कुल उलट फैसला दिया. पहले मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि टाडा की धारा 3 (5) और यूएपीए की धारा 10, जो किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्यों होने मात्र से किसी को दोषी करार देती है, उसे केवल शाब्दिक रूप से नहीं पढ़ा जा सकता है, और इन धाराओं को संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ मिलाकर एक परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए. इस व्याख्या के अनुसार, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक प्रतिबंधित संगठन की मात्र सदस्यता किसी व्यक्ति को तब तक स्वचालित रूप से दोषी नहीं मान सकती और उसके साथ भेदभाव नहीं करेगी जब तक कि वह हिंसा का समर्थन नहीं करता है, या आसन्न हिंसा के लिए लोगों को उकसाता हुआ पाया जाता है. संक्षेप में, ‘इंद्र दास मामले में’ कोर्ट ने स्पष्ट रूप से इस बात को खारिज किया कि ‘किसी व्यक्ति/ परिस्थिति के साथ संबद्ध होने भर से कोई दोषी’ करार नहीं दिया जा सकता.
यूएपीए (UAPA) क़ानून के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि यह किसी व्यक्ति को बिना उस पर मुक़दमा चलाए आतंकवादी बना देता है, और उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है, जिसे ज़मानत नहीं दी जा सकती क्योंकि वे समाज के लिए ख़तरा पैदा कर सकते हैं.
फिर भी, इसी अदालत ने 2019 के फैसले में एक नया सिद्धांत जोड़कर मामले में पूरी तरह से यू-टर्न ले लिया, जिसके तहत राज्य सरकारों व पुलिस को मुक़दमे की अवधि के दौरान किसी अभियुक्त को हिरासत में रखने की पूरी तरह से अनुमति दी जा सकती है. ज़मानत की अर्ज़ी पर फैसला सुनाते हुए, खानविल्कर और रस्तोगी ने कहा कि यूएपीए (UAPA) के मामलों में, अदालत यह मानकर अपना फैसला सुनाएगी कि एफआईआर में लगाया गया हर आरोप सही है. इसके अलावा, ज़मानत दिया जाना इस बात पर टिका होगा कि आरोपित अपने बचाव में किस तरह की सामग्री या सबूतों को पेश कर सकता है, जो उस पर लगाए गए आरोपों को खारिज कर सकते हैं. इस प्रकार, खुद को निर्दोष साबित करने का पूरा बोझ अभियुक्त पर डाला गया है. ऐसा करने में, अदालत ने अनिवार्य रूप से ज़मानत के स्तर पर साक्ष्य की स्वीकार्यता के सवाल को बाहर रखा है. उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का आरोपित व्यक्तियों को निचली अदालतों द्वारा दी जा रही ज़मानत पर सीधा और बेहद विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.
यूएपीए (UAPA) मामलों में ज़मानत देने को लेकर निचली अदालतें भी अब अतिरिक्त सावधानी दिखा रही हैं. इसका सबसे बेहतर उदाहरण, एल्गर परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में हुई गिरफ़्तारियां हैं जहां दो साल से अधिक समय जेल में बिताने के बाद भी लोगों को ज़मानत देने में बॉम्बे हाईकोर्ट की अनिच्छा स्पष्ट रूप से सामने आई है. महाराष्ट्र पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने नए सबूत खोजने के बहाने एक के बाद एक लगातार अतिरिक्त समय लिया, इस के बाद भी बॉम्बे हाईकोर्ट अभी भी आरोपियों की ज़मानत पर सुनवाई नहीं कर पा रहा है. यहां तक कि गंभीर चिकित्सा ज़रूरतों की परिस्थितियों वाले मामले, जैसे कि वरवरा राव और सुधा भारद्वाज के मामले में भी अदालत ने एक के बाद एक किसी प्रक्रिया का हवाला देते हुए उन्हें ज़मानत देने से इनकार किया है. वहीं, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाएं दायर करने वाले लोगों को उस वक्त निराशा हुई व कड़ा झटका लगा जब सिद्दीक कप्पन मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश ने इस बात को स्वीकार किया की न्यायपालिका के स्तर पर अनुच्छेद 32 के अंतर्गत दायर की जाने वाली याचिकाओं को हतोत्साहित करने की नीति अपनाई जाती है. संयोग से, अनुच्छेद 32 एक मौलिक अधिकार है, जिसे संविधान के निर्माता बी.आर. अंबेडकर ने एक बार संविधान का “दिल और आत्मा” कहा था.
सरकारों द्वारा आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के अंधाधुंध इस्तेमाल के बढ़ते चलन के साथ विरोधियों व असंतुष्ट आवाज़ों को शांत करने के लिए इन क़ानूनों का बढ़ता इस्तेमाल एक समस्या है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों के हनन के प्रति न्यायिक उदासीनता भारत की लोकतांत्रिक साख़ को तेज़ी से कम कर रही है
कुल मिलाकर इस सब का नतीजा यह निकलता है कि कई वैश्विक रिपोर्टों और अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि भारत का लोकतंत्र गहरे संकट में है. भारत में मौजूद शासन तंत्र जो इस गणतांत्रिक राज्य के प्रत्येक प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थान पर हावी होने की मंशा के साथ-साथ देश के राजनीतिक कथानक पर भी नियंत्रण रखने का इरादा रखता है (एक प्रभावी राजनीतिक विपक्ष के अभाव में), उसे अपनी सीमाओं से बाहर आने से रोकने के लिए एक मज़बूत, स्वतंत्र और प्रभावी न्यायपालिका ही अब एक आख़िरी उम्मीद है. सरकारों द्वारा आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के अंधाधुंध इस्तेमाल के बढ़ते चलन के साथ विरोधियों व असंतुष्ट आवाज़ों को शांत करने के लिए इन क़ानूनों का बढ़ता इस्तेमाल एक समस्या है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों के हनन के प्रति न्यायिक उदासीनता भारत की लोकतांत्रिक साख़ को तेज़ी से कम कर रही है. भारत और उसकी न्यायपालिका के लिए अब वर्षों की मेहनत से कमाई गई विश्वसनीयता को फिर से बहाल करने के लिए बेहद कम समय बचा है.
निरंजन साहू ORF में सीनियर फेलो हैं और जिब्रान खान रिसर्च इंटर है.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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