Author : Lydia Powell

Published on Aug 17, 2020 Updated 0 Hours ago

व्यापक स्तर पर अगर इस तरह का संतुलन नहीं बनाया जाता तो ग्रिड फेल हो सकते थे और देश भर में बिजली के लाखों महत्वपूर्ण उपकरण जिनमें अस्पतालों में मौजूद मेडिकल उपकरण भी शामिल हैं, ख़तरे में पड़ जाते.

बिजली की मांग और आपूर्ती में तालमेल बिठाने की चुनौतियां

इस साल पांच अप्रैल के दिन भारत में अधिकांश घरों में नौ मिनट के लिए यानी रात 21.00 बजे से 21.09 तक बिजली की रोशनी बंद कर दी गई. इतने बड़े स्तर पर, देशभर में अचानक बिजली बंद किए जाने के बावजूद , ग्रिड की स्थिरता बनी रही और बिजली व्यवस्था के मापदंड गड़बड़ाए नहीं. यह, राज्य, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय भार प्रेषण केंद्रों (SLDC, RLDC और NLDC) और बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के बीच सही तालमेल और योजनाबद्ध तरीके से किए गए काम के चलते संभव हो पाया. व्यापक स्तर पर अगर इस तरह का संतुलन नहीं बनाया जाता तो ग्रिड फेल हो सकते थे और देश भर में बिजली के लाखों महत्वपूर्ण उपकरण जिनमें अस्पतालों में मौजूद मेडिकल उपकरण भी शामिल हैं, ख़तरे में पड़ जाते.

5 अप्रैल 2020 को मांग और आपूर्ती

Source: POSOCO

मांग के स्तर पर

राष्ट्रीय लोड डिस्पैच सेंटर- पोसोको (पावर सिस्टम ऑपरेशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड) ने तय तारीख़ से पिछले रविवार यानी 29 मार्च को बिजली की मांग के आधार पर, अगले रविवार 5 अप्रैल को लाइट बंद होने पर, बिजली की मांग में संभावित कमी का आकलन किया. 29 मार्च को, देश व्यापी स्तर पर शाम 18.07 बजे (घरों में रोशनी जलने से पहले) बिजली की मांग 101,207 मेगावाट थी. रात 21.00 बजे (जब ज़्यादातर घरेलू लाइट चालू हो जाती हैं) यह बढ़कर 112,551 मेगावाट हो गई. एनएलडीसी (NLDC) ने 11,433 मेगावाट यानी इन दोनों आंकड़ों के बीच के अंतर को ‘अपेक्षित प्रकाश भार’ के रूप में लिया. एनएलडीसी ने आकलन के लिए देश के कुल घरों की संख्या का भी इस्तेमाल किया ताकि बिजली की मांग में आने वाली कमी को सही तौर पर आंका जा सके. अनुमान लगाया गया कि प्रति घर के हिसाब से शहरी घरेलू लोड (100 वॉट) और ग्रामीण घरेलू लोड (50 वॉट) का 80 फीसदी हिस्सा ‘लाइटिंग’ संबंधी लोड है. यह आंकड़ा 12,452 मेगावाट था. प्रत्येक एसएलडीसी (SLDC) ने अपने संबंधित राज्य के लिए अपेक्षित लोड में कमी की गणना की और सभी राज्यों के लिए यह कुल 15,085 मेगावाट निकल कर आया.

पांच अप्रैल को नौ मिनट की इस अवधि में देशभर में बिजली की मांग में आई कमी, असल में 31 गीगावॉट रही, यानी लगाए गए अनुमान के दुगने से भी अधिक. आकलन के गलत साबित होने की कई वजहें हो सकती हैं.

इस आकलन और गणना के मुताबिक व्यापक स्तर पर लाइट बंद किए जाने के उन नौ मिनट के दौरान बिजली की संभावित मांग में कमी, 12-14 गीगावॉट तक मापी गई. पांच अप्रैल को नौ मिनट की इस अवधि में देशभर में बिजली की मांग में आई कमी, असल में 31 गीगावॉट रही, यानी लगाए गए अनुमान के दुगने से भी अधिक. आकलन के गलत साबित होने की कई वजहें हो सकती हैं. मुमकिन है कि कुछ घरों में लाइट के अलावा बाकी उपकरण भी बंद कर दिए गए क्योंकि लोगों को वोल्टेज गड़बड़ाने और बिजली के उपकरण ख़राब होने का डर रहा. ‘सौभाग्य’ (प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना) के आंकड़ों के आधार पर घरों की संख्या को 214.47 मिलियन आंका गया था. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देशभर में घरों की कुल संख्या 246.74 मिलियन थी. सालाना होने वाली दो फीसदी बढ़ोत्तरी को ध्यान में रखें तो 2020 तक यह संख्या बढ़कर 300 मिलियन हो जाती है. यह भी संभव है कि कुल घरों की इस संख्या में शहरी और ग्रामीण घरों के बंटवारे का आंकड़ा भी असल संख्या से अलग हो.मांग में कमी का अनुमान लगाने के लिए इस्तेमाल किए गए आंकड़ों के अनुसार, तमिलनाडु, पुडुचेरी, गोवा, पश्चिम बंगाल, सिक्किम और त्रिपुरा में कोई शहरी घर नहीं थे जबकि पंजाब में 11 शहरी घर थे. कुल मिलाकर, बिजली की मांग में कमी के आकलन के लिए इस्तेमाल किए गए डेटा के मुताबिक केवल 20 फीसदी घर ही शहरी हैं. हालांकि, पोसोको (POSOCO) ने यह स्पष्ट किया कि कई राज्यों के घरों का डेटा ‘सौभाग्य’ डेटाबेस पर उपलब्ध नहीं था और अंदाज़ के तौर पर लिए गए आंकड़े वास्तविकता से दूर हैं. यह भी संभव है कि शहरी और ग्रामीण परिवारों के लिए लगाया गया क्रमश: 100 वॉट और 50 वॉट का अंदाज़ा सही नहीं हो. ध्यान रहे, यहां महत्वपूर्ण बिंदु यह नहीं है कि मांग को असल से कम आंका गया, ज़रूरी बात ये है कि ग्रिड स्थिर रहा और कम आकलन के बावजूद कोई गड़बड़ी नहीं हुई.

आपूर्ति के स्तर पर

नौ मिनट की इस अवधि के दौरान तेज़ी से बदलती मांग के साथ आपूर्ति का तालमेल बिठाने के लिए, एनएलडीसी (POSOCO) ने थर्मल और अंतरराज्यीय उत्पादक स्टेशनों (ISGS) को उनके तकनीकी न्यूनतम यानी 60 फीसदी तक कम करने और हाइड्रो और गैस उत्पादन बढ़ाकर लोड बढ़ने का संतुलन बनाए रखने की योजना बनाई. हाइड्रो और गैस उत्पादन को शाम 18.10 बजे से बढ़ाकर 20.00 बजे तक किया गया ताकि लोड में आने वाले अंतर के लिए लचीलेपन को बनाए रखा जा सके. नौ मिनट की इस अवधि में रात 20.46 बजे से 21.10 बजे के बीच पनबिजली उत्पादन में 68 फीसदी की कमी आई जबकि रात 20.53 बजे से 21.10 बजे के बीच गैस आधारित उत्पादन में 28 फीसदी की कमी आई. जैसे ही प्रकाश भार लौटा, थर्मल उत्पादन रात 21.08 बजे के अपने निम्नतम स्तर से बढ़ गया और 22.00 बजे तक यह 112,551 मेगावाट पर लौट आया, जो उस समय का मानदंड था. इसके अलावा और भी कई तकनीकी हस्तक्षेप किए गए जिनमें, वायु-बिजली उत्पादन को रोकने, ग्रिडफ्रीक्वेंसी के बढ़ने की संभावना को ध्यान में रखते हुए उसे कम रखने, वितरण उप-स्टेशनों को बंद न करने, वोल्टेज का संतुलन बनाए रखने के लिए रिएक्टर चालू रखने जैसी कुछ कोशिशें शामिल थीं. पनबिजली विद्युत उत्पादन ने अपनी असाधारण भार क्षमता के चलते ‘फ्लेक्सिबिलिटी चार्ट’ को बनाए रखने में सबसे बड़ा योगदान दिया.

नौ मिनट की इस अवधि के दौरान तेज़ी से बदलती मांग के साथ आपूर्ति का तालमेल बिठाने के लिए, एनएलडीसी (POSOCO) ने थर्मल और अंतरराज्यीय उत्पादक स्टेशनों (ISGS) को उनके तकनीकी न्यूनतम यानी 60 फीसदी तक कम करने और हाइड्रो और गैस उत्पादन बढ़ाकर लोड बढ़ने का संतुलन बनाए रखने की योजना बनाई.

मांग जनित प्रतिक्रिया 

बिजली की मांग में आई इस स्वैच्छिक कमी का आर्थिक पहलू भी था क्योंकि फ्रीक्वेंसी में आए बदलाव तकनीकी सीमा से अधिक थे. इसका मतलब था, अनिवार्य रूप से उपकरणों को नुकसान, क्योंकि 50 हर्ट्ज की ऑपरेटिंग फ्रीक्वेंसी में एक फीसदी का बदलाव भी उपकरणों और आधारभूत ढांचे को नुकसान पहुंचा सकता है.

उन नौ मिनट के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर लोड में आई कमी पोस्ट-लॉक लोड की लगभग 27 फीसदी थी. लोड में सबसे अधिक कमी यानी 46 फीसदी की कमी उत्तर पूर्वी ग्रिड में और उसके बाद 41 फीसदी की कमी पूर्वी ग्रिड में रही. उत्तरी ग्रिड में 32 फीसदी की कमी रही, जबकि पश्चिमी ग्रिड में 27 फीसदी की कमी दर्ज की गई. दक्षिणी ग्रिड में कमी रही लगभग 17 फीसदी. ‘लाइट-ऑफ इवेंट’ की प्रतिक्रिया में सामने आई यह क्षेत्रीय भिन्नता दर्शाती है कि अलग-अलग इलाकों में सामूहिक आह्वान का असर, विभिन्न क्षेत्रों का तापमान, और बिजली के उपकरणों का उपयोग (ख़ासतौर पर एयर-कंडीशनर के उपयोग) अलग-अलग है.

दक्षिण में संभवतः सबसे कम मांग हानि हुई क्योंकि अधिकांश घरेलू भार घरों को ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों का था जिन्हें बंद नहीं किया गया. देश के बाकी हिस्सों में उस वक्त इतनी गर्मी नहीं थी, इसका मतलब है कि घरेलू भार का एक बड़ा हिस्सा प्रकाश व्यवस्था के लिए ही था. सामान्य तौर पर, घरेलू भार में प्रकाश व्यवस्था का हिस्सा अधिक होना, घर में अन्य बिजली के सामानों की कम पैठ को दर्शाता है और घर के आय स्तर का सूचक है. यह कारक पूर्वी और उत्तर पूर्वी ग्रिड में लोड में आई बड़ी कमी को समझने में मदद कर सकते हैं.

‘डिमांड ऑन डिमांड’

नौ मिनट की अवधि को लेकर की गई मांग को पूरा किया गया. हालांकि, मांग में आई कमी की अवधि कम थी और इसका उपभोक्ताओं पर या उनको मिलने वाली सेवाओं पर कोई असर नहीं हुआ. अगर लंबे समय तक चलने वाली इस “मांग की कमी” को अमल में लाना है तो उसके लिए उपभोक्ताओं को वित्तीय या गैर-वित्तीय प्रोत्साहन देने की आवश्यकता होगी.

पीक अवधि के दौरान मांग में कमी से डिस्कॉम को अपनी उत्पादन संपत्ति का अनुकूलन करने में मदद मिलेगी, जिससे उनकी लागत में कमी आएगी. आने वाले समय में उत्पादन के लिए ज़रूरी संसाधनों की आवश्यकता में कमी से कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी. ये वांछनीय परिणाम हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना उतना आसान नहीं है. उदाहरण के लिए, दिल्ली में सालाना भार का 50 फीसदी, तापमान पर निर्भर है. यह आंकड़ा दुनियाभर के बड़े शहरों में सबसे अधिक है, यहां तक की उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मौजूद शहरों में भी अधिकतम है. मुमकिन है कि तापमान संबंधित मांग में उपभोक्ताओं को प्रोत्साहन देने के बाद भी कमी न आए. घरों में प्रकाश या शीतलन के लिए उपयोग की जाने वाली बिजली की मांग को उपभोक्ताओं के अनुभव को प्रभावित किए बगैर या उनके द्वारा समझौता किए जाने के बगैर ‘बदलना’ या ‘ख़त्म करना’ मुमकिन नहीं. इसे “शिफ्टेबल” और “शेडेबल” लोड के रूप में समझा जा सकता है.

उन नौ मिनट के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर लोड में आई कमी पोस्ट-लॉक लोड की लगभग 27 फीसदी थी. लोड में सबसे अधिक कमी यानी 46 फीसदी की कमी उत्तर पूर्वी ग्रिड में और उसके बाद 41 फीसदी की कमी पूर्वी ग्रिड में रही. उत्तरी ग्रिड में 32 फीसदी की कमी रही, जबकि पश्चिमी ग्रिड में 27 फीसदी की कमी दर्ज की गई.

समृद्ध घरों में, संभावित “शिफ्टेबल” लोड है वाशिंग मशीन या रसोई के उपकरण; और “शेडेबल” लोड हैं स्टैंड-बाय लोड यानी उपकरणों के इस्तेमाल में आने से पहले और उसके बाद भी उन्हें बिजली से जोड़े रखना. बहुत मुमकिन है कि ये “शिफ्टेबल” और “शेडेबल” लोड वर्तमान में भारत में इतने बड़े नहीं हैं कि पीक मांग पर कोई फर्क पड़े. भविष्य में इलेक्ट्रिक वाहन (EV) चार्जिंग में लोड शिफ्टिंग और ऊर्जा भंडारण की विस्तृत संभावना है. ऑफ-पीक घंटों के दौरान इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग, मांग के वक्र यानी ‘डिमांड-कर्व’ को समतल करेगी और उत्पादन से जुड़े संसाधनों की कार्यक्षमता को बहुत हद तक बढ़ाएगी.

पूरी तरह विकसित बिजली बाजारों में, मूल्य आधारित और प्रोत्साहन आधारित- मांग प्रतिक्रिया कार्यक्रम (demand response programmes) पीक समय में बिजली की मांग को कम करने में मदद करते हैं. मूल्य आधारित प्रतिक्रिया में उपयोग का समय यानी टीओयू (TOU), टैरिफ, रीयल टाइम प्राइसिंग यानी वास्तविक समय मूल्य निर्धारण (RTP) और महत्वपूर्ण शिखर मूल्य निर्धारण (CPP) शामिल हैं, जो बिजली उपभोक्ताओं को टैरिफ कम होने और ऊर्जा खर्चों को बचाने के लिए लोड को गैर-पीक अवधि में स्थानांतरित करने की छूट देते हैं. प्रोत्साहन आधारित कार्यक्रम, ग्रिड विश्वसनीयता की समस्या या बिजली की बढ़ती कीमतों के कारण, लोड कम करने की योजनाओं में भाग लेने वाले उपभोक्ताओं को भुगतान कर लाभान्वित करते हैं.

भारत में, बिजली दरों का आधार है, बिजली की औसत लागत. यही वजह है कि भारत में बिजली का शुल्क उत्पादन की वास्तविक लागत से कम संबंध रखता है, क्योंकि ये लगात समय के साथ बदलती रहती है. क्रेडिबल डिमांड-रिस्पॉंस यानी विश्वसनीय मांग प्रतिक्रिया बनाए रखने के लिए, टैरिफ ऐसा होना चाहिए जो उपभोक्ताओं को बिजली की कीमत में बदलाव के अनुसार खपत को बदलने के लिए प्रेरित करे. देश भर में स्मार्ट मीटर लगाए जाने से उपयोगकर्ता वास्तविक समय में ऊर्जा के उपयोग को मापकर अपनी खपत की निगरानी कर सकेंगे और डिस्कॉम को प्रति घंटे के आधार पर यह जानकारी भेज सकेंगे. स्मार्ट मीटर, टीओयू मूल्य निर्धारण यानी उपयोग के समय के आधार पर शुल्क चुकाने की दिशा में पहला कदम है, जिसमें मांग के कम होने पर कम और मांग के अधिक होने पर अधिक शुल्क चुकाना होगा.

टीओयू मूल्य निर्धारण को लेकर विकसित बिजली बाज़ारों के अनुभव मिश्रित रहे हैं. उदाहरण के लिए, अमेरिका में केवल चार प्रतिशत उपभोक्ताओं ने टीओयू मूल्य निर्धारण के लिए हस्ताक्षर किए हैं, हालांकि, 80 फीसदी लोग स्मार्ट मीटर का इस्तेमाल कर रहे हैं. यूरोपीय संघ और यूके में, टीओयू मूल्य निर्धारण में हिस्सा लेने वाले घरेलू उपभोक्ताओं की संख्या 15-20 फासदी के बीच है. ग्रिड में रिन्यूएबल एनर्जी यानी अक्षय ऊर्जा के बढ़ते हिस्से को देखते हुए टीओयू टैरिफ को अपवाद के बजाय सामान्य नीति बनाने की आवश्यक होगी. आपूर्ति और मांग में तालमेल बैठाना चुनौती भरा काम है क्योंकि बिजली समय, विस्तार और लीड-टाइम पर आधारित एक हेट्रोजेनियस यानी विजातीय पदार्थ है. बिजली के विभिन्न स्रोत अलग-अलग हेट्रोजेनिटी और सीमांत मूल्य पर आधारित बिजली पैदा करते हैं. समय और विस्तार के स्तर पर बिजली की मांग और आपूर्ती में अनुकूल तालमेल बिठाने से संसाधनों का औचित्यपूर्ण व्यय होता है और उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है.

आपूर्ति और मांग में तालमेल बैठाना चुनौती भरा काम है क्योंकि बिजली समय, विस्तार और लीड-टाइम पर आधारित एक हेट्रोजेनियस यानी विजातीय पदार्थ है. बिजली के विभिन्न स्रोत अलग-अलग हेट्रोजेनिटी और सीमांत मूल्य पर आधारित बिजली पैदा करते हैं.

पोसोको द्वारा आईएसजीएस (ISGS) के लिए कार्यान्वित, सुरक्षा अवरोधित आर्थिक प्रेषण कार्यक्रम (SCED) आपूर्ति के स्तर पर बिजली उत्पादन के संसाधनों (जनरेशन-एसेट्स) का अनुकूलन करता है. एससीईडी (SCED) के तहत, पश्चिमी व पूर्वी क्षेत्र में पिटहेड प्लांट्स से कम परिवर्तनीय लागत से उत्पादन में वृद्धि होती है और दक्षिण, उत्तर व पूर्व में उच्च परिवर्तनीय लागत में कमी होती है. मांग के स्तर पर अनुकूलन अधिक कठिन है. इसके लिए ज़रूरी है कि बिजली के थोक और खुदरा मूल्य, हेट्रोजेनिटी यानी विविधता के सभी आयामों (घंटों, जगहों आदि के बीच), ट्रांसमिशन लागत, लेन-देन की लागत, सीमांत मूल्य और लाभों को प्रतिबिंबित करे. उद्योग मूल्य संकेतों पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं लेकिन घरेलू उपभोक्ताओं को मूल्य परिवर्तन की व्यवस्था में ढालना एक चुनौती रहेगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.