Published on Oct 09, 2017 Updated 0 Hours ago

शरणार्थी आबादी की बार-बार आमद का मेजबान देश पर कई स्तर पर असर पड़ता है और यह प्रभाव कई दशकों तक रहता है।

चकमा-हाजोंग शरणार्थियों संबंधी चुनौती

पिछले हफ्ते केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हाजोंग शरणार्थियों की नागरिकता के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।

हालांकि चकमा-हाजोंग समुदाय दुविधा की स्थिति में है क्योंकि जहां देश की वृहद सीमाएं उन्हें अपनाने को तैयार हैं, लेकिन जिस इलाके में वो रहते हैं, उसकी मूल आबादी दशकों के उनके अस्तित्व के बाद भी उन्हें अब तक बाहरी ही मानती है।

भारत 1947 में आजाद होने के बाद से ही अत्याचार का शिकार हो कर भागने वालों का सुरक्षित ठिकाना रहा है। लेकिन यह भी सच है कि इसके बावजूद भारत में इनको ले कर बहुत से असमंजस मौजूद हैं और इसकी वजह है स्पष्ट आप्रवास या शरणार्थी नीति का अभाव। शरणार्थी आबादी की बार-बार आमद का मेजबान देश पर कई स्तर पर असर पड़ता है और यह प्रभाव कई दशकों तक रहता है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मानवीयता संबंधी सवाल जुड़े होते हैं जो ना सिर्फ शरण के लिए आए लोगों से जुड़े होते हैं, बल्कि जिन लोगों ने उनके ठिकाने के लिए जगह दी होती है, उनसे भी जुड़े होते हैं। पहले के पूर्वी पाकिस्तान स्थित चिटगांव हिल के मूल निवासी चकमा और हाजोंग के सामने भी यही समस्याएं हैं।


चकमा और हाजोंंग शरणार्थियों के आने की शुरुआत पहली बार 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों में हुई, जब वे कर्णफूली नदी पर कपताई बनबिजली परियोजना के लिए बांध बनने की वजह से विस्थापित हुए। वे आज के मिजोरम के लुशाई हिल जिले से हो कर आए।


बौद्ध धर्म के अनुयायी चकमा और हिंदू हाजोंग समुदाय के लोग 1960 के दशक के बाद के वर्षों में बड़ी संख्या में भारत में शरण लेने के लिए आए। वे पूर्वी पाकिस्तान में उनके खिलाफ हो रहे धार्मिक अत्याचार की वजह से भाग रहे थे। मिजोरम की स्थानीय आबादी के साथ किसी टकराव से बचने के लिए केंद्र सरकार ने चकमा-हाजोंग आबादी को नार्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के तिरप संभाग में टिकाया। यह इलाका अरुणाचल केंद्र शासित प्रदेश के गठन (1972) के पहले असम के प्रशासनिक इलाके में आने वाला बहुत झीनी आबादी वाला इलाका था। बाद में यह 1987 में अरुणाचल प्रदेश राज्य में बदल गया। अब इन शरणार्थियों का यह इलाका अरुणाचल प्रदेश राज्य के पापुम पारे जिले में कोकिला और चांगलांग जिले के बोर्दुमसा-दियुन इलाके में आता है। एक तरफ चकमा-हाजोंग शरणार्थी आबादी की संख्या 14,888 से बढ़ कर आज लगभग एक लाख पहुंच चुकी है, तो दूसरी ओर अरुणाचल प्रदेश का राजनीतिक स्वरूप काफी बदल चुका है। इस वजह से इन शरणार्थियों को नागरिकता दिए जाने का विरोध हो रहा है।

चकमा-हाजोंग भारत में पिछले पांच दशक से ज्यादा समय से रह रहे हैं, लेकिन इन्हें लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है। पहली बार औपचारिक तौर पर उनका उल्लेख 1972 में भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्रियों के साझा बयान में आया। इसमें कहा गया था कि चकमा शरणार्थियों को नागरिकता कानून 1955 की धारा 5(1) (अ) के तहत नागरिकता दी जाएगी। उसी साल नेफा के इलाके को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया। इस नए क्षेत्र के लोगों ने अपनी पहचान की रक्षा के इरादे से इस समुदाय को नागरिकता दिए जाने का विरोध किया, क्योंकि वे उन्हें बाहरी समझते थे।

इस तरह इन शरणार्थियों को नागरिकता मुहैया करवाने का प्रावधान 2015 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आने तक अधर में लटका रहा। इस दौरान अरुणाचल प्रदेश की मूल आबादी और शरणार्थियों के बीच आपसी झगड़ा और बढ़ गया। 1987 में अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा मिलने के बाद यहां चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को इस इलाके में बसाने के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू हो गया। ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट यूनियन (आपसू) ने इस आंदोलन को और बल दिया। इसका कहना है कि इन्हें यहां बिना स्थानीय समुदाय की सहमति और रजामंदी के ही बसा दिया गया है।


वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का जो आदेश जारी किया है, वह मौजूदा भाजपा सरकार की ओर से प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) कानून 2016 के अनुकूल ही है।


यह बिल 1955 के नागरिकता कानून में बदलाव कर देगा और दक्षिण एशियाई देशों से गैर कानूनी तरीके से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों को नागरिकता के लिए योग्य बना देगा। हालांकि चकमा और हाजोंग लोगों को नागरिकता देने के मामले में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट की सोच एक जैसी है, लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्यों में इसको ले कर काफी रोष है।

अरुणाचल प्रदेश की सभी राजनीतिक पार्टियां इन्हें नागरिकता दिए जाने का यह कह कर विरोध कर रही हैं कि इससे आबादी की संरचना प्रभावित हो जाएगी, स्थानीय लोगों की पहचान और संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी और साथ ही पहले से कम पड़ रहे संसाधन और बंट जाएंगे। अरुणाचल प्रदेश के लोगों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने चकमा और हाजोंग आबादी को ‘सीमित नागरिकता’ देने का प्रस्ताव किया है। इसके तहत भारतीय नागरिकता पाने वाले शरणार्थियों को जमीन पर स्वामित्व के अधिकार और अनुसूचित जनजाति की मान्यता से वंचित रखा जाएगा।


जहां चकमा और हाजोंग ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से अनुरोध किया है कि उन्हें बलपूर्वक निकाले जाने के खतरे से बचाया जाए और जीवन व स्वतंत्रता की रक्षा की जाए, वहीं आपसू जोर दे रहा है कि शरणार्थियों की मौजूदगी और उन्हें नागरिकता दिए जाने का प्रस्ताव बंगाल पूर्वी फ्रंटियर रेगुलेशन (1873) की ओर से स्थापित आंतरिक परमिट को कमजोर करता है और साथ ही ये मांग करते हैं कि शरणार्थियों को किसी और राज्य में बसाया जाए।


मौजूदा स्थिति इसलिए पैदा हुई है, क्योंकि भारत में शरणार्थियों को बसाने और उनको राष्ट्रीय ताने-बाने में समाहित करने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है। भारत की आजादी के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा था, इसके बाद भी मनने अब तक इस लिहाज से कोई नीति तैयार नहीं की है। ऐसे विभिन्न समूहों के साथ किस तरह का बर्ताव होगा इस लिहाज से मनमानी स्थिति होने की वजह से ऐसा माहौल बनता है जिसमें शरण लेने वाली आबादी और उस इलाके के आम लोग दोनों के लिए ही अनिश्चितता बनी रहती है।

स्थानीय आबादी और शरणार्थियों के बीच मौजूद मन-मुटाव के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने इस इलाके में 50 साल से ज्यादा का समय बिताया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए धीरे-धीरे माहौल बनाने और उसके साथ ही राज्य के लिए एक विशेष आर्थिक पैकेज की व्यवस्था करने से यह मतभेद दूर हो सकते हैं। पैकेज में भी खास तौर पर छात्रों के हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए।

एक व्यापक व्यवस्था तैयार करना इस लिहाज से ज्यादा जरूरी है, ताकि अलग-अलग तरह के ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाए यह देश की एक नीति के तहत और तार्किक समय सीमा के अंदर पूरा किया जा सके।


लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक रिसर्च इंटर्न है।

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