Published on Dec 11, 2020 Updated 0 Hours ago

कृषि सेक्टर में 60 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएं हैं जिनमें से 28 प्रतिशत का काम चला जाएगा यानी कृषि, मछली पालन और वन उद्योग में शामिल क़रीब 40 लाख महिलाओं के काम-काज पर ख़तरा है.

भारत में ऑटोमेशन और महिला रोज़गार: आंकड़े क्या कहते हैं?

पूरे 21वीं शताब्दी के दौरान भारत की श्रम शक्ति में महिलाओं की कम भागीदारी (LFPR) की दर 2018 में और गिरकर 18.6 प्रतिशत पर पहुंच गई. तेज़ रफ़्तार दुनिया में जहां ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को ज़्यादातर संगठन अपना रहे हैं, वहां महिला रोज़गार पर इनके असर को ज़रूर देखना चाहिए और इसका विश्लेषण होना चाहिए.

ऑटोमेशन पूरी तरह (जहां एक मशीन हाथ से श्रम की जगह ले सकती है) होने के साथ-साथ आंशिक (जहां मशीन हाथ से श्रम को पूरी तरह बदलने की जगह सार्थक रूप से काम बदलती है) भी हो सकती है.

महिला और पुरुष अलग-अलग ढंग से ऑटोमेशन से प्रभावित हुए हैं और मैकेंज़ी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2030 तक ऑटोमेशन श्रम बाज़ार में ज़बरदस्त रूप से बदलाव लाएगा. 

महिला और पुरुष अलग-अलग ढंग से ऑटोमेशन से प्रभावित हुए हैं और मैकेंज़ी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2030 तक ऑटोमेशन श्रम बाज़ार में ज़बरदस्त रूप से बदलाव लाएगा. नतीजतन महिलाओं को मुश्किल समय का सामना करना पड़ेगा क्योंकि वो अलग-अलग मजबूरियों का सामना करती हैं. ये लेख इस बात की चर्चा करता है कि महिलाएं कैसे अपने हुनर में बदलाव लाएं ताकि वो नौकरी के बदलते परिदृश्य के मुताबिक़ ख़ुद को तैयार करें, ख़ास तौर पर भारत में.

ऑटोमेशन की वजह से महिलाओं की नौकरियों का नुक़सान

ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि 2030 तक भारत में एक करोड़ 20 लाख महिलाओं की नौकरी पर ऑटोमेशन की वजह से ख़तरा है. महिला श्रमिकों का बड़ा हिस्सा प्राइमरी सेक्टर में काम करता है. कृषि सेक्टर में 60 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएं हैं जिनमें से 28 प्रतिशत का काम चला जाएगा यानी कृषि, मछली पालन और वन उद्योग में शामिल क़रीब 40 लाख महिलाओं के काम-काज पर ख़तरा है. कृषि के बाद शिल्प और उससे जुड़े व्यापार (30 लाख) और गोदाम (20 लाख) में काम करने वाली महिलाओं के जॉब पर ख़तरा है.

भारत की समस्या बढ़ जाती है क्योंकि कृषि के अलावा दूसरे सेक्टर में महिलाओं की बेहद कम हिस्सेदारी है. आशंका है कि महिलाएं काम-काज का बड़ा हिस्सा गंवाएंगी- कुल महिला कामगारों में से 45 प्रतिशत की नौकरी जा सकती है जबकि पुरुषों के लिए ये आंकड़ा 26 प्रतिशत है. इसके कारण श्रम शक्ति से महिलाओं का बड़ा हिस्सा पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा. कृषि में अपेक्षाकृत ज़्यादा नौकरियां गंवाने के बावजूद पुरुषों की भागीदारी दूसरे सेक्टर में ज़्यादा है और इस तरह उन्होंने कृषि में नुक़सान की भरपाई कर ली है. 2030 तक पुरुषों के लिए सबसे ज़्यादा नौकरी की बढ़ोतरी मध्यम दर्जे की कमाई वाले सेक्टर में होगी जबकि महिलाओं के लिए नौकरी में सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी ज्यादा कमाई वाले सेक्टर में होगी. महिलाओं के लिए ज़्यादा कमाई वाली नौकरियां संभवत: कमाई में अंतर को भरेंगी. लेकिन ये तभी संभव है जब महिलाएं नये हुनर को विकसित कर “बदलाव” करेंगी.

ये संभावना भी जताई जा रही है कि अलग-अलग सेक्टर में नौकरियों में बढ़ोतरी होगी. भारत में नौकरियों में कुल बढ़ोतरी में से लगभग 74 प्रतिशत मैन्युफैक्चरिंग (1 करोड़ 10 लाख), आवास और खाने की सेवा (20 लाख), रिटेल और होलसेल (10 लाख) और कंस्ट्रक्शन (30 लाख) जैसे सेक्टर में होगी. विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में ऑटोमेशन की रफ़्तार के धीमा होने की संभावना है.

विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में ऑटोमेशन की रफ़्तार के धीमा होने की संभावना है. लेकिन ऑटोमेशन की धीमी रफ़्तार और नौकरियों में बढ़ोतरी के बाद भी भारत की श्रम शक्ति में असमानता बरकरार रहेगी.

लेकिन ऑटोमेशन की धीमी रफ़्तार और नौकरियों में बढ़ोतरी के बाद भी भारत की श्रम शक्ति में असमानता बरकरार रहेगी. इस बात की गवाही इस आंकड़े से मिलती है कि 2030 तक पुरुषों के लिए 9 करोड़ 10 लाख नौकरियों के मुक़ाबले महिलाओं के लिए 2 करोड़ 30 लाख नौकरियां जुड़ने की उम्मीद है. भारत में श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ़ 18.6 प्रतिशत है जबकि पुरुषों के लिए ये आंकड़ा 50 प्रतिशत से ज़्यादा है. लेकिन इसके बावजूद मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे सेक्टर में 3 नौकरियों के छूटने के बदले पुरुष और महिला- दोनों को 1-1 नौकरी मिलेगी. नौकरी मिलने और नौकरी छूटने का अनुपात पुरुषों और महिलाओं के लिए समान है लेकिन ये श्रम शक्ति में उनकी भागीदारी के अनुरूप नहीं है. इससे श्रम शक्ति में महिलाओं की घटती संख्या का पता चलता है.

शिक्षा, यातायात की सुविधा और तकनीकी पहुंच के कारण रोज़गार में दिक्कतें

ज़्यादा संभावना वाले क्षेत्रों जैसे मैन्युफैक्चरिंग और पर्यटन तक महिलाओं की पहुंच को आसान बनाने की सुविधा में बहुत कम या बिल्कुल भी विकास नहीं हुआ है. महिलाएं जो वोकेशनल कोर्स करती हैं, उनमें से लगभग तीन-चौथाई कपड़ा, स्वास्थ्य देखभाल, सौंदर्य और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (IT) जैसे सेक्टर से जुड़े हैं. गांवों में रहने वाली महिलाओं के हुनर को सफलतापूर्वक बढ़ाने के लिए ग्रामीण पहल और महिलाओं के आने-जाने में आसानी पर ध्यान देने की ज़रूरत है.

जैसे-जैसे नौकरियां बनेंगी और ख़त्म होंगी वैसे-वैसे अलग-अलग सेक्टर की तरफ़ “बदलाव” होगा जिसके लिए बिल्कुल अलग तरह के हुनर को अपनाने की ज़रूरत होगी. पुरुषों के लिए ऑटोमेशन के थोड़े ज़्यादा ख़तरे के साथ भी (महिलाओं के 20 प्रतिशत के मुक़ाबले 21 प्रतिशत) नौकरी के बाज़ार में इस बदलाव का फ़ायदा उठाया जा सकता है. इसके लिए महत्वपूर्ण कौशल की ज़रूरत होगी जो लचीलेपन, आने-जाने और पहुंच की आसानी की वजह से मांग में होगी. यही वो चीज़ है जहां महिलाएं, ख़ासतौर पर गांवों में रहने वाली, अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक बाधाओं से मुक़ाबला करती हैं.

भारत में इंटरनेट तक सिर्फ़ 29 प्रतिशत महिलाओं की पहुंच है. एशिया पैसिफिक में डिजिटल समावेशन के मामले में महिला-पुरुष के बीच ज़्यादा अंतर में भारत दूसरे नंबर पर है. 2016 में ग्रामीण क्षेत्रों की सिर्फ़ 25 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की 40 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट का इस्तेमाल करती थीं और सिर्फ़ 46 प्रतिशत के पास मोबाइल फ़ोन था. 

भारत में कृषि के क्षेत्र में लगी महिलाओं के लिए ज़रूरी है कि वो अपने हुनर को बढ़ाएं क्योंकि सेकेंडरी शिक्षा से कम वाली नौकरियों की मांग कम होने की आशंका है. तकनीक और शिक्षा ज़्यादातर महिलाओं के लिए पहुंच से बाहर की चीज़ हैं क्योंकि भारत में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की साक्षरता दर कम है. एंट्री लेवल पर श्रम शक्ति में शामिल होने वाली महिलाओं की संख्या कुल ग्रैजुएट (43 प्रतिशत) नौकरियों में सिर्फ़ 25 प्रतिशत है. इसलिए ये महिलाओं के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण बनता जा रहा है कि वो अपनी शिक्षा पूरी करें और उसके बाद श्रम शक्ति में शामिल हों. शिक्षा में अंतर के अलावा महिला जिन समस्याओं का सामना करती हैं, उनमें आने-जाने की समस्या भी बड़ी है क्योंकि महिलाओं को काम की जगह तक आने-जाने में ख़तरे का सामना करना पड़ता है, इससे उनका आवागमन कम होता है. महिलाएं अपने समय का एक बड़ा हिस्सा बिना भुगतान वाले देखभाल के काम में देती हैं- महिलाएं जहां 1.1 ट्रिलियन घंटे हर साल इसमें देती हैं वहीं पुरुष 400 अरब घंटे से भी कम. इसके अलावा घरेलू काम भी ज़्यादातर महिलाएं ही करती हैं जहां वो हर रोज़ 352 मिनट समय देती हैं जो पुरुषों (52 मिनट) के मुक़ाबले 577 प्रतिशत ज़्यादा है. इसकी वजह से महिलाओं पर “दोहरा बोझ” पड़ जाता है यानी पैसे के लिए काम के साथ-साथ घर में बिना पैसे के काम.

जहां ऑटोमेशन की वजह से नौकरियों पर ख़तरा है, वहां डिजिटल बंटवारे को पार करना ज़्यादातर महिलाओं के लिए ज़रूरी है. भारत में इंटरनेट तक सिर्फ़ 29 प्रतिशत महिलाओं की पहुंच है. एशिया पैसिफिक में डिजिटल समावेशन के मामले में महिला-पुरुष के बीच ज़्यादा अंतर में भारत दूसरे नंबर पर है. 2016 में ग्रामीण क्षेत्रों की सिर्फ़ 25 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की 40 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट का इस्तेमाल करती थीं और सिर्फ़ 46 प्रतिशत के पास मोबाइल फ़ोन था. ग्लोबल सिस्टम्स फॉर मोबाइल कम्युनिकेशन एसोसिएशन के द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चला कि 35 प्रतिशत महिलाओं और 26 प्रतिशत पुरुषों के पास इंटरनेट की जानकारी का अभाव है और इसे बाधा के तौर पर माना गया. वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा में भी सिर्फ़ 35 प्रतिशत STEM (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथमेटिक्स) के विद्यार्थी महिलाएं हैं क्योंकि एप्लाइड साइंस के बदले नैचुरल साइंस की तरफ़ उनका रुझान ज़्यादा है. तकनीक से जुड़ी नौकरियों में महिलाओं का अनुपात भी बेहद ख़राब पाया गया है. विकसित देशों में ये संख्या 20 प्रतिशत से कम है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़ ऑनलाइन माध्यम में 95 प्रतिशत आक्रामक व्यवहार और उत्पीड़न महिलाओं के ख़िलाफ़ होता है. भारत में हुए एक सर्वे से पता चला कि 18-32 साल के बीच के ऑनलाइन उत्पीड़न के शिकार लोगों में से ज़्यादातर महिलाएं हैं. 

उभरती अर्थव्यवस्था के तौर पर भारत को ये ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए कि श्रम शक्ति में पहले से कम महिलाओं की भागीदारी की दर की समस्या पर ऑटोमेशन का असर कम हो. महिलाओं की डिजिटल हिस्सेदारी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि अगर दुनिया नई और ज़्यादा आधुनिक नौकरियों की तरफ़ महिलाओं के जाने का समर्थन करने में सक्षम नहीं हुई तो वैश्विक और राष्ट्रीय आंकड़े परेशान करने वाले भविष्य की लकीर खींचते हैं. निर्णायक रूप से कहा जा सकता है कि महिलाओं के डिजिटल हुनर को विकसित करने के साथ तकनीक और इंटरनेट तक महिलाओं की ज़्यादा पहुंच ज़रूर होनी चाहिए. शायद डिजिटल बंटवारे को भरने के लिए ये सबसे महत्वपूर्ण पुल है. इसके बाद महिलाओं की शिक्षा पर अवश्य ज़ोर देना चाहिए और उन्हें STEM और IT की शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. ये दीर्घकालीन समाधान है जो बेहतर ढंग से लैस महिलाओं की पीढ़ी सुनिश्चित करेगा. ऐसी महिलाएं जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली नौकरी करेंगी.

महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह की भी ज़रूरत है. इसमें शारीरिक सुरक्षा के साथ-साथ ऑनलाइन सुरक्षा भी ज़रूरी है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़ ऑनलाइन माध्यम में 95 प्रतिशत आक्रामक व्यवहार और उत्पीड़न महिलाओं के ख़िलाफ़ होता है. भारत में हुए एक सर्वे से पता चला कि 18-32 साल के बीच के ऑनलाइन उत्पीड़न के शिकार लोगों में से ज़्यादातर महिलाएं हैं. इन मुद्दों का निपटारा ज़रूर होना चाहिए ताकि इंटरनेट वाली नई तरह की नौकरियां महिलाओं को मिल सके और वो वहां काम कर सकें.

अंत में, कंपनियां महिला केंद्रित नीतियों की शुरुआत ज़रूर करें. इनमें मातृत्व अवकाश, बच्चों की देखभाल की छुट्टी, डे-केयर की सुविधा, इत्यादि शामिल हैं. चूंकि महिलाएं बिना पैसे वाले काम असाधारण रूप से करती हैं, ऐसे में इन ज़रूरतों पर ध्यान देना आवश्यक है. महिलाओं के मामले में प्रगतिशील सेक्टर का उदाहरण “गिग इकोनॉमी” है. “गिग इकोनॉमी” अर्ध-कौशल या बिना प्रोफ़ेशनल डिग्री वाली महिलाओं को कई तरह के अवसर मुहैया कराती है. “गिग इकोनॉमी” में महिलाओं और पुरुषों की लगभग बराबर संख्य़ा है और औपचारिक अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले वेतन में अंतर भी कम है. यहां महिलाओं के लिए अपनी सुविधा के मुताबिक़ काम के घंटे चुनने और दफ़्तर से दूर काम करने की सुविधा भी है. लेकिन इंटरनेट की सुविधा में कमी, आमदनी की असुरक्षा और सुरक्षा के मुद्दों का समाधान “गिग इकोनॉमी” में भी करने की ज़रूरत है. श्रम शक्ति में महिलाओं की समान भागीदारी के लिए भारत को अभी लंबा रास्ता तय करना है और अगर जल्दी उचित बदलाव नहीं किए गए तो इससे महिला-पुरुष और उनके वेतन में बड़ा अंतर हो सकता है.

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