Published on May 17, 2017 Updated 0 Hours ago

ईरान द्वारा बेलिस्टिक मिसाइल का प्रक्षेपण करने पर ट्रम्प प्रशासन ने इस साल 3 फरवरी को बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए उस पर नए प्रतिबंध लगा दिए।

भारत-ईरान संबंधों पर अमेरिकी छाया

1959 में अमेरिकी राष्ट्रपति ईसेनहौर का ईरान दौरा

फोटो: सेलेस्टी रेमसे/फ़्लिकर

नई सहस्त्राब्दि में ईरान के साथ भारत के रिश्तों को स्पष्ट रूप से दो चरणों — ‘भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते’ से पूर्व की अवधि (जून 2005 तक) और ‘2005 के बाद की अवधि’ में बांटा जा सकता है। 2005 से पहले, भारत और ईरान दोनों एक दूसरे के साथ, किसी भी अन्य देश के साथ रिश्तों से मुक्त होकर, दो सम्प्रभु देशों की तरह व्यवहार करते थे। भारत, ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चे तेल का आयात करता था, क्योंकि वह खाड़ी के किसी अकेले एक स्रोत पर निर्भर नहीं रहना चाहता था। हालांकि हम सबसे ज्यादा मात्रा में कच्चे तेल का आयात सऊदी अरब से करते थे और ईरान हमारा दूसरा ​सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता था और अपने शीर्षतम दौर में 12 बिलियन डॉलर से 14 बिलियन डॉलर के सालाना बिल के लिए उत्तरदायी था। इससे हमें पश्चिम एशिया में शक्ति के दो प्रतिद्वंद्वी केंद्रों से समान दूरी बनाए रखने में भी मदद मिली। हम उनके आपसी तनाव और साथ ही साथ प्रभाव के दायरे से भी बाहर रहे। इनमें से जहां एक सुन्नी साम्राज्य था, तो दूसरा शिया गणराज्य था, हमारे देश में उन दोनों के ही प्रबल समर्थक थे। दोनों के साथ ही हमारे अच्छे रिश्ते थे।

 राष्ट्रपति ​बुश और असैन्य परमाणु समझौता

अमेरिका के साथ हमारे असैन्य परमाणु समझौते के बाद सब कुछ बदल दिया। अचानक हमारे क्षेत्र में हमारी स्थिति बदल गई। अब हमें अच्छे या बुरे के लिए स्पष्ट तौर पर अमेरिका के सहयोगियों के तौर पर देखा जाने लगा। हालांकि हमें ताकत के रूप में, और तो और उभरती ताकत के रूप में भी नहीं देखा गया।

भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के बाद हमारे शुरूआती कार्यों में से एक सितम्बर, 2005 में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी — आईएईए महा सभा में ईरान के खिलाफ मतदान करना रहा। यह हमारे पिछले सभी मतों के विपरीत रहा और अंतत: हमने एक ऐसे प्रस्ताव को समर्थन दिया, जो ईरान द्वारा अपनी परमाणु सुविधाओं का आईएईए निरीक्षण कराने में नाकाम रहने पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को डॉसियर भेजने से संबंधित था। यह दरार पड़ने की शुरूआत थी।

इसके तत्काल बाद, भारत ने ईरान-पाकिस्तान-भारत (आईपीआई) तेल पाइपलाइन को कम महत्व देना शुरू कर दिया। इस पाइपलाइन के कार्यान्वित होने की संभावना बहुत कम थी, क्योंकि उसके मार्ग का ज्यादातर हिस्सा पाकिस्तान के उग्र भारत-विरोधी, आतंकवाद बहुल क्षेत्र से होकर गुजरना था। लेकिन यह हमारे नेताओं को समान रूप से अभिशप्त एक अन्य गैस पाइपलाइन समझौते तुर्कमेनिस्तान-पाकिस्तान-भारत (तापी) का गंभीरतापूर्वक अनुसरण (अमेरिका के प्रोत्साहन के अंतर्गत से कम कुछ वर्षों के लिए) करने से नहीं रोक सका।इसके पीछे का आइडिया भारतीय बाजार को ईरान पहुंचने से रोकना था और हमने उसके आगे झुक गए, यहां तक कि पाकिस्तान जो अपने वजूद के लिए हमसे कहीं ज्यादा अमेरिका पर आश्रित था, काफी ज्यादा अर्से तक पाइपलाइन पर अडिग रहा, जब तक कि वह अपने यहां होने वाले पाइपलाइन के निर्माण का खर्च वहन करने के लिए किसी को भी तलाश पाने में नाकाम रहा।

राष्ट्रपति ओबामा और ईरान

उसके बाद, जैसे ही ओबामा प्रशासन ने 2011 में ईरान पर प्रतिबंध कड़े किए, हम धीरे-धीरे ईरान से तेल के आयात में कटौती करने लगे और 2014 के आसपास यह आयात घटकर सालाना 4 अरब डॉलर से भी कम रह गया। इस अवधि के दौरान, अमेरिकियों ने हमें बताया कि सऊदी अरब हमारी जरूरते पूरी करने के लिए अतिरिक्त तेल देने को तैयार है। हमने समझदारी दिखाते हुए इराक और वेनेजुएला पर अपनी निर्भरता बढ़ा दी। ईरान के साथ हमारे रिश्तों को जिसने चोट पहुंचायी वह थी उस समय ईरान को तेल आयात का भुगतान अमेरिकी डॉलर में करने में हमारी अक्षमता। अमेरिकी खजाने ने बड़े ही व्यवस्थित रूप से हमारे सभी बैंकिंग विकल्पों को बंद कर दिया, पहले जर्मन बैंक और उसके बाद टर्किश बैंक ने जब तक कि हमने तुर्की को नकदी में भुगतान करना शुरू कर दिया, जिसने उस समय सोने की सिल्लियां खरीद कर सीमा पार ईरान को भेजना शुरू कर दिया। इसके अलावा हमने आंशिक भुगतान भारतीय रुपये में भी करना और ईरान को चुकता करने के लिए किसी तीसरे देश को आंशिक भुगतान करना शुरू कर दिया।

ईरानियों ने बार-बार हमारे सामने सवाल उठाया कि अमेरिका किस तरह किसी विशुद्ध द्विपक्षीय व्यापार में दखल दे सकता है। समस्या केवल भुगतान में कठिनाई भर ही नहीं थी, बल्कि आयात घटाने के लिए डाला जा रहे जबरदस्त दबाव की भी थी। ईरान के साथ हमारे रिश्तों में खटास उस समय और भी बढ़ गई जब 13 फरवरी, 2012 को मध्य दिल्ली में एक इस्राइली राजनयिक की कार पर मैग्नेट बम से हमले का संदेह एक ईरानी नागरिक पर किया गया। इस्राइल ने सार्वजनिक प्रचार अभियान के जरिए हमारी सरकार को दोषी के खिलाफ कार्रवाई करने पर मजबूर कर दिया। यह एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके ईरानी न्यायिक प्रणाली की जटिलताओं के कारण कामयाब होने के कोई आसार न थे। संदिग्ध को हमारे हवाले करने के लिए ईरान के साथ की गई तमाम राजनयिक कार्यवाहियों का अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है।

हालांकि इस बात का पूरा श्रेय राष्ट्रपति ओबामा को ही जाता है कि कांग्रेस में रिपब्लिकन सदस्यों, साथ ही इस्राइली और सऊदी लॉबी की ओर से ईरान पर बमबारी करने के लिए डाले जा रहे तमाम तरह के दबावों के बावजूद उन्होंने कभी भी ईरान के परमाणु मसले का बातचीत के जरिए समाधान तलाशने की कोशिशें नहीं रोकीं। ईरान में शांति के नए युग का आगाज करने के लिए ईरान तथा पी-5 प्लस वन देशों यानी सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य और जर्मनी के बीच 16 जनवरी, 2016 को संयुक्त समग्र कार्रयोजना (जेसीपीओए)पर हस्ताक्षर किए गए, लेकिन समृद्धि का आना अभी तक बाकी है।

भारत ने हालांकि ईरान के साथ पश्चिम के मेल-मिलाप का लाभ उठाना शुरू कर दिया और जल्द ही हमारे तेल आयात में वृद्धि होने लगी। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने रुकी हुई चाबहार परियोजना को दोबारा शुरू कर दिया, जिसे ग्वादर में चीन की मौजूदगी के लिए भारत के जवाब के रूप में प्रचारित किया जाता है। हमारे कई मंत्रियों ने तेहरान का दौरा किया और ईरान में अनेक परियोजनाएं लगाने के कई वादे किये । ईरान ने भी बदले में काफी हिचकिचाहट के बाद तेल और प्राकृतिक गैस आयोग-ओएनजीसी के नेतृत्व वाले संघ को अन्वेषण के लिए फरज़ाद बी गैस क्षेत्र प्रदान किया है।

राष्ट्रपति ट्रम्प और ईरान

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के व्हाइट हाउस में कदम रखने के साथ ही ईरान के साथ हमारे संबंधों में अनिश्चितता के नए दौर की शुरूआत हो गई। ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ही ईरान के साथ परमाणु समझौते को ‘बुरा समझौता’ करार देते हुए उसे रद्द करने की सीधे तौर पर धमकी दी थी। अब वे राष्ट्रपति पद पर आसीन हैं, ऐसा लगता है कि किसी उन्हें सलाह दी होगी कि ‘समझौते को रद्द करना’ अच्छा कदम साबित नहीं होगा, क्योंकि उस पर हस्ताक्षर करने वाले बाकी देश (ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस और चीन) शायद ऐसा न करें। इसके बाद भी राष्ट्रपति ट्रम्प और उनके रिप​ब्लिकन सहयोगी पूर्ववर्ती ओबामा द्वारा किए गए अच्छे काम को बिगाड़ने से बाज़ नहीं आए। सीनेट ने ईरान को बोइंग और एयरबस कमर्शियल विमानों की बिक्री पर रोक लगा दी, फिर उसके बाद ‘ईरान प्रतिबंध कानून’ और 10 और वर्ष के लिए नया रूप दे दिया।

इस साल 27 जनवरी को राष्ट्रपति ट्रम्प ने ‘राष्ट्र का विदेशी आतंकवादी से बचाव’ शीर्षक वाले एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए और ईरान का नाम उन सात देशों की सूची में शामिल कर दिया, जिनके नागरिकों के अमेरिका में दाखिल होने पर प्रतिबंध है। राष्ट्रपति ट्रम्प के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि सूची में शामिल इन 7 देशों (ईरान, इराक, सीरिया,लीबिया, यमन, सूडान और सोमालिया)में से किसी भी देश के एक भी नागरिक ने पिछले तीन दशकों में अमेरिका में दाखिल होकर एक भी अमेरिकी नागरिक को मौत के घाट नहीं उतारा। जबकि वह देश, जिसने अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले में सबसे ज्यादा आत्मघाती हमलावर भेजे थे, उसका नाम इस सूची से नदारद है।

ईरान द्वारा बेलिस्टिक मिसाइल का प्रक्षेपण करने पर ट्रम्प प्रशासन ने इस साल 3 फरवरी को बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए उस पर नए प्रतिबंध लगा दिए। यह बहुत स्पष्ट संदेश है कि ईरान में ‘प्रतिबंधों के बाद का दौर’ अभी शुरू नहीं हुआ है और वे राष्ट्रपति ओबामा जैसे ‘दयालु’ नहीं साबित होने वाले हैं।

भारत ने ईरान के प्रति अपनी नीति दोबारा रद्दोबदल किया

भारत सरकार ने चाबहार बंदरगाह में फिर से दिलचस्पी दिखाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मई 2016 की ईरान यात्रा से पहले कई मंत्रियों को वहां भेजा। भारत द्वारा चाबहार मुक्त व्यापार क्षेत्र — एफटीज़ेड में — एलुमिनियम भट्ठियों से लेकर यूरिया संयंत्र जैसे उद्योगों की स्थापना के जरिए अरबों डॉलर की प्रतिबद्धता व्यक्त किए जाने से द्विपक्षीय संबंधों को काफी बल मिला। हमारे शिपिंग मंत्री नितिन गडकरी ने एक अवसर पर घोषणा की कि ”चाबहार एफटीज़ेड में हम 1 लाख करोड़ से ज्यादा रकम का निवेश कर सकते हैं।”

ये सब कुछ ट्रम्प के राष्ट्रपति पर आसीन होने से पहले का घटनाक्रम है। इस साल जनवरी में ट्रम्प के शपथ ग्रहण करते ही विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार — एनएसए ने कांग्रेस के प्रमुख रिपब्लिकन सदस्य जॉन मैक्केन और जॉन बर्र जैसे अमेरिकी समकक्ष अधिकारियों से भेंट की। जनवरी में ही, हमारे एनएसए अजित डोभाल ने अपने अमेरिकी समकक्ष माइकल फ्लिन (जिन्होंने रूसियों के साथ कथित रिश्तों के कारण एक महीने के भीतर ही इस्तीफा दे दिया) से मुलाकात की। 26 मार्च को डोभाल ने अमेरिका जाकर अपने नए समकक्ष एच आर मैक्मास्टर और गृह सुरक्षा प्रमुख जॉन केली से मुलाकात की। उन्होंने नए रक्षा मंत्री जॉन मैतिस से भी भेंट की।ट्रम्प द्वारा नियुक्त किए गए ज्यादातर अधिकारी इस्राइल समर्थक, ईरान विरोधी रिपब्लिकन हैं। जॉन मैतीस ने हाल ही में ईरान को धमकी दी थी वह अब कोई नया मिसाइल परीक्षण करके नए प्रशासन को उकसाए नहीं, जैसा कि माइकल फ्लिन ने कहा है कि ईरान ‘को नोटिस दे दिया गया है’। हालांकि उन्होंने यमन के बदनसीब लोगों पर सऊदी अरब की अकारण उग्रता (वॉर ऑफ अग्रेशन)के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा है, जबकि उन्होंने बेहद शत्रुतापूर्ण वातावरण में अपनी रक्षा को चाक-चौबंद करने का प्रयास करने वाले ईरान की निंदा करने और उसे चेतावनी देने में बिल्कुल देर नहीं लगाई।

हैरतंगेज रूप से डोभाल के दिल्ली लौटने के तत्काल बाद, विदेश मंत्रालय ने संबंधित विभागों से चाबहार एफटीज़ेड के लिए नियोजित परियोजनाओं पर काम की गति धीमी करने को कहा। विदेश मंत्रालय ने ऊर्वरक विभाग से (29 मार्च को) सरकारी राष्ट्रीय कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स को प्रस्तावित यूरिया संयंत्र के लिए ईरानी साझेदार का चयन करने के काम में धीमापन लाने को कहा। इसी तरह का संदेश एलुमिनियम भट्ठी संयंत्र के लिए प्रस्तावित 3 अरब डॉलर के निवेश के लिए भी भेजा गया। ईरान में इस संयंत्र की स्थापना नेशनल एलुमिनियम कंपनी (नाल्को) द्वारा की जानी है।

जहां एक ओर इस फैसले ने इस बात की संभावना जताई है कि भारतीय निवेश, ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों की क्रॉसफायरिंग में उलझ गया है, वहीं अपने द्विपक्षीय संबंधों को हमारे क्षेत्र में अमेरिकी नीतियों के मनमानेपन से न बचा पाने में हमारी असमर्थता हैरतंगेज है।यकीनन अगर रूस और चीन ईरान के साथ कारोबार कर सकते हैं, तो हमें भी ऐसा करने में समर्थ होना चाहिए।

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