जैसे-जैसे अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय तबाही बढ़ रही है, वैसे-वैसे तालिबान और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने एक-दूसरे के साथ भागीदारी बढ़ा दी है. जहां तालिबान ने अपनी इस बातचीत का इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय वैधता और सहायता हासिल करने के लिए शुरू कर दिया है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इसे एक दायित्व के तौर पर समझ रहा है.
इसके बाद संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने 4.4 अरब अमेरिकी डॉलर की मदद की अपील की है जो किसी एक देश के लिए सबसे ज़्यादा है. अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान की सहायता के लिए 3.5 अरब अमेरिकी डॉलर जारी करेगा और यूरोपीय संघ (ईयू) ने 570 मिलियन अमेरिकी डॉलर का वादा किया है. विश्व बैंक ने भी 280 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ज़ब्त फंड को अफ़ग़ानिस्तान की मदद के लिए जारी किया है और इस्लामिक देशों के संगठन और खाड़ी सहयोग परिषद ने भी संसाधन जुटाने और अफ़ग़ानिस्तान की मदद करने का भरोसा दिया है. फिलहाल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्राथमिकता मानवीय त्रासदी को कम करना, एक समानांतर प्रशासन के ज़रिए सहायता करना और तालिबान तक इन संसाधनों की पहुंच रोकना है. लेकिन ये मानवीय कोशिशें आधे-अधूरे मन से की गई हैं और इसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. अफ़ग़ानिस्तान को अभी अपनी आर्थिक समस्याओं के समाधान और दीर्घकालीन भागीदारी की ज़रूरत है. लेकिन ये समाधान अभी दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि इसमें सभी संबंधित पक्षों के लिए राजनीतिक क़ीमत काफ़ी ज़्यादा है.
अफ़ग़ानिस्तान को अभी अपनी आर्थिक समस्याओं के समाधान और दीर्घकालीन भागीदारी की ज़रूरत है. लेकिन ये समाधान अभी दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि इसमें सभी संबंधित पक्षों के लिए राजनीतिक क़ीमत काफ़ी ज़्यादा है.
संकट का फ़ायदा उठाना
मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तालिबान के कब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान के लिए आर्थिक समस्याओं के समाधान से झिझक रहा है क्योंकि तालिबान ने अभी तक सुधार का रास्ता नहीं चुना है. ये माना जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की मदद से तालिबान की दौलत में बढ़ोतरी हो सकती है, उसको वैधता मिल सकती है, अफ़ग़ानिस्तान के ऊपर तालिबान का नियंत्रण मज़बूत हो सकता है और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियां बढ़ सकती हैं.
इसलिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मांग की है कि महिलाओं के अधिकार और मानवाधिकार को बचाने के लिए एक संगठन का गठन किया जाए, समानता सुनिश्चित की जाए, अफ़ग़ानिस्तान के सभी नागरिकों की रक्षा की जाए, एक समावेशी सरकार का गठन किया जाए, लोगों को आम माफ़ी दी जाए, सीमा के पार अपराधों को सीमित किया जाए और अफ़ग़ानिस्तान में किसी आतंकवादी समूह को शरण नहीं दिया जाए.
लेकिन इन मांगों की राजनीतिक क़ीमत तालिबान के लिए काफ़ी ज़्यादा है. मानवाधिकार, लड़कियों की शिक्षा, रोज़गार और उनके घर से बाहर निकलने के अलावा दूसरे आतंकी संगठनों के साथ जुड़ाव को लेकर तालिबान की राय बंटी हुई है. संगठन के भीतर आंतरिक फूट और वैचारिक संघर्ष के बारे में तालिबान सोच भी नहीं सकता है, ख़ास तौर पर तब जब आईएसकेपी (इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रॉविंस) एक नये विकल्प के तौर पर उभर रहा है. इसी तरह तालिबान के द्वारा बाग़ियों को इकट्ठा करने की चाल इस तरह के किसी भी सुधार को जटिल कर सकती है जिससे राजनीतिक क़ीमत में और बढ़ोतरी होगी. इसके बावजूद तालिबान सुधार के खोखले वादे करने में लगा है और उसे उम्मीद है कि अंतर्राष्ट्रीय वैधता और सहायता मिल जाएगी.
बेशक ईरान, पाकिस्तान, रूस, उज़्बेकिस्तान और चीन जैसी क्षेत्रीय शक्तियों ने पश्चिमी देशों के सामने अफ़ग़ानिस्तान की ज़ब्त संपत्ति से नियंत्रण हटाने और ज़्यादा-से-ज़्यादा मानवीय सहायता पहुंचाने की बात लगातार की है. लेकिन इनमें से किसी भी देश ने तालिबान के साथ दीर्घकालीन भागीदारी में दिलचस्पी नहीं दिखाई है.
आधा-अधूरा जवाब
अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोस में स्थित ज़्यादातर क्षेत्रीय शक्तियों के लिए मानवीय संकट एक दुविधा की स्थिति भी है. ये देश अफ़ग़ानिस्तान से लोगों के पलायन, आर्थिक अराजकता और क्षेत्रीय अस्थिरता से परहेज करने के लिए मानवीय सहायता करने को उत्सुक हैं. बेशक ईरान, पाकिस्तान, रूस, उज़्बेकिस्तान और चीन जैसी क्षेत्रीय शक्तियों ने पश्चिमी देशों के सामने अफ़ग़ानिस्तान की ज़ब्त संपत्ति से नियंत्रण हटाने और ज़्यादा-से-ज़्यादा मानवीय सहायता पहुंचाने की बात लगातार की है. लेकिन इनमें से किसी भी देश ने तालिबान के साथ दीर्घकालीन भागीदारी में दिलचस्पी नहीं दिखाई है. इसकी वजह ये है कि उन्हें तालिबान पर भरोसा नहीं है. इन देशों को लगता है कि बग़ल के देश में बिना बदलाव वाले तालिबान के मज़बूत होने से आतंकवाद, तस्करी और चरमपंथी चुनौतियां बढ़ेंगी. इन देशों के लिए आधे-अधूरे मन से मानवीय सहायता में मदद देना फिलहाल के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है.
यही वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान के सबसे धनी पड़ोसी चीन ने अमेरिका से आर्थिक पाबंदी हटाने की अपील करने और अफ़ग़ानिस्तान में निवेश के लिए दिलचस्पी दिखाने के बावजूद मानवीय सहायता के नाम पर सिर्फ़ 31 मिलियन अमेरिकी डॉलर की पेशकश की है. इसी तरह ईरान, पाकिस्तान, रूस और ताजिकिस्तान ने दोहरी चाल जारी रखी है और दूसरे ग़ैर-तालिबानी किरदारों के साथ भागीदारी कर रहे हैं. वो उम्मीद कर रहे हैं कि तालिबान पर दबाव बनाने से उनकी आशंकाएं कम होंगी, ऐसा करने से तालिबान के ख़िलाफ़ कुछ हद तक परिस्थितियों का फ़ायदा उठा सकेंगे और तालिबान को सुधार के लिए मजबूर कर सकेंगे.
पश्चिमी विश्व व्यवस्था को चुनौतियां
इसी तरह पश्चिमी देशों के लिए तालिबान हुकूमत को मान्यता देने या उसे मज़बूत करने से उनके मूल्य आधारित विश्व व्यवस्था को तगड़ा झटका लगेगा जो अफ़ग़ानिस्तान में उनके अव्यवस्थित ढंग से बाहर जाने, चीन की हठधर्मिता और यूक्रेन में रूस की ताज़ा गतिविधियों के कारण पहले से ही बोझ के तले दबी हुई है. पश्चिमी देशों में इस बात को लेकर भी कम दिलचस्पी है कि अफ़ग़ानिस्तान पर फिर से ध्यान लगाया जाए. इस बात की भी पूरी संभावना है कि तालिबान के साथ फिर से किसी तरह की भागीदारी से उन देशों की सरकारों को घरेलू राजनीति और मतदाताओं के बीच आलोचना का शिकार होना पड़ेगा. इसलिए पश्चिमी देश अफ़ग़ानिस्तान से दूर रहने के नज़रिए का चुनाव कर रहे हैं जो उनके द्वारा सीमित मात्रा में ग़ैर-तालिबानी किरदारों के साथ बातचीत की वजह भी है.
पश्चिमी देश एक दुविधा में हैं. वो न तो मौजूदा तालिबानी हुकूमत को मज़बूत करना चाहते हैं, न ही ये चाहते हैं कि अफ़गान शासन व्यवस्था ध्वस्त हो जाए. दोनों में से कोई भी स्थिति पश्चिमी देशों की नाकामी को उजागर करेगा.
दूसरी तरफ़ मानवीय त्रासदी पर ध्यान नहीं देने से अफ़ग़ानिस्तान में शासन व्यवस्था ध्वस्त होने की नौबत आ जाएगी. इससे अफ़ग़ानी नागरिकों के देश छोड़कर बाहर जाने, तस्करी और आतंकवाद के रूप में पश्चिमी देशों की समस्या बढ़ जाएगी. इसके अलावा, धन से संपन्न होने के बावजूद ग़रीब अफग़ानियों की मदद करने में पश्चिमी देशों की नाकामी उनकी प्रतिबद्धता और सहयोगियों एवं साझेदारों के लिए उनके मूल्यों पर सवाल खड़े करेगी. ये सवाल इसलिए भी है क्योंकि पश्चिमी देशों ने विकास में सहायता का वादा किया था और संस्थानों को बनाने में योगदान दिया था. इस तरह पश्चिमी देश एक दुविधा में हैं. वो न तो मौजूदा तालिबानी हुकूमत को मज़बूत करना चाहते हैं, न ही ये चाहते हैं कि अफ़गान शासन व्यवस्था ध्वस्त हो जाए. दोनों में से कोई भी स्थिति पश्चिमी देशों की नाकामी को उजागर करेगा. पश्चिमी देशों के सामने एकमात्र दांव है और ज़्यादा मानवीय सहायता प्रदान करना और तालिबान को सुधार के लिए मजबूर करना.
गतिरोध
इस तरह अफ़ग़ान समस्या को लेकर सभी किरदारों के अलग-अलग रुख़ और राजनीतिक क़ीमत ने अभी तक वहां टिकाऊ समाधान से रोक रखा है. सुधारों को लेकर तालिबान अभी भी तैयार नहीं है और वहां के संकट की आड़ में तालिबान झूठी उम्मीदें और वादे करके मान्यता और मदद हासिल करना चाहता है. दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोस की शक्तियां और पश्चिमी देश तालिबान के साथ भागीदारी को लेकर मतभेद के बावजूद इस बात की उम्मीद कर रहे हैं कि तालिबान बदल जाएगा. ऐसे में मानवीय सहायता से आगे एक टिकाऊ समाधान निकलना तब तक मुश्किल है जब तक कि अलग-अलग देशों की सुरक्षा चिंताओं में बदलाव नहीं होगा या तालिबान किसी एक देश या कुछ देशों के हितों को ध्यान में रखते हुए कुछ हद तक सुधार नहीं करता है.
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