पिछले महीने अफगानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्लाह मोहिब नई दिल्ली में थे. इस दौरान उन्होंने रायसीना डायलॉग को संबोधित किया और एक बात शांत और संपन्न अफगानिस्तान के विजन को साझा करते हुए भारत को अपने देश का प्रमुख सहयोगी बताया. इसके बाद उन्होंने व्यक्तिगत रूप भारत से आग्रह किया कि वह अफगानिस्तान में भारतीय सुरक्षा बलों की शांति सेना के रूप में तैनाती पर विचार करें, क्योंकि तालिबान और अमेरिका के बीच शांति वार्ता एक बार फिर गति पकड़ रही है.
यह विडंबना है कि एक देश जो अपने रणनीतिक पड़ोसी के यहां कोई सैनिक तैनात नहीं करना चाहता, लेकिन अफगानिस्तान से हजारों मील दूर स्थित राष्ट्र की इसके लिए आलोचना करता है.
यह वह बहस है, जिसे नई दिल्ली में कोई नहीं चाहता है. भारत के कूटनीति समुदाय में एक तरह की सहमति नजर आती है कि यह भारत के लिए न जाने वाला क्षेत्र है. आधिकारिक रूप से भारत लगातार अफगानिस्तान में सेना भेजने से इनकार करता रहा है और उसका कहना है कि वह अफगानिस्तान को आर्थिक और मानवीय मदद देता रहेगा. लेकिन, पूर्व में ऐसे आग्रह अमेरिका की ओर से आ रहे थे. उन्हें नकारना आसान था. जब तक अमेरिकी नीति अफगानिस्तान में भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक उपस्थिति का समर्थन करती है, तब तक उसका स्वागत है. लेकिन, जब अमेरिका भारत से इस युद्ध प्रभावित देश में कठोर प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए कहेगा तो वह कोई और रास्ता देख सकता है. अफगानिस्तान में भारत की मौजूदा स्थिति अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी सेना पर निर्भर रहने की रही है. तथ्य यह है कि भारत वहां पर एक प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी के रूप में उभर सकता है और उसे सामान्य अफ़ग़ानों द्वारा पसंद भी किया जाता है. इस असामान्य स्थिति का परिणाम यह है कि जब भी ऐसा लगता है कि अमेरिका यहां से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा है, भारतीय प्रतिष्ठान अमेरिका से कहता है कि यह कदम कितना अदूरदर्शी है और इसकी क्षेत्र को क्या कीमत चुकानी पड़ेगी ? यह विडंबना है कि एक देश जो अपने रणनीतिक पड़ोसी के यहां कोई सैनिक तैनात नहीं करना चाहता, लेकिन अफगानिस्तान से हजारों मील दूर स्थित राष्ट्र की इसके लिए आलोचना करता है.
अब आग्रह सीधे अफगान सरकार से हो रहा है. गनी सरकार तालिबान और अमेरिका के बीच शांति समझौते की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है. इस बारे में कोई भ्रम नहीं है कि अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान अपनी पूर्व की संप्रभुता को हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर गड़बड़ी करेंगे और पिछले दो दशकों में जो हासिल हुआ है उसे खत्म करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में भारत के सहयोगियों को भारतीय सेना के संरक्षण और समर्थन की जरूरत होगी. तालिबान के पतन के बाद वहां पर भारत द्वारा किए गए महत्वपूर्ण निवेश को बचाना भी जरूरी है. भारत में अफगानिस्तान पर बहस आज भी पुरातन बातों में उलझी है. वास्तव में यह कहने के सिवाय कि अफगानिस्तान में भारतीय सैनिक कदम नहीं रखेंगे, कोई नीति नहीं है. हालांकि, भारतीय सेना को अफगानिस्तान न भेजने के कई कारण हैं. पहली बात यहाँ पर कोई भी विदेशी सेना सफल नहीं रही है. दूसरे भारतीय सेना को यहां आने पर पाकिस्तान के छद्म आतंकियों के बीच फंसने के अलावा सैन्य स्तर पर कुछ भी हासिल नहीं होगा. इन सभी बातों में कुछ सत्यता है, लेकिन जिस देश की विदेश नीति पिछले दो दशकों में तेजी से उभरी हो, उसके लिए क्या ये कारण काफी हैं ? इस समय अफगानिस्तान में ज़मीनी हालात तेजी से बदल रहे हैं.
तालिबान के पतन के बाद वहां पर भारत द्वारा किए गए महत्वपूर्ण निवेश को बचाना भी जरूरी है. भारत में अफगानिस्तान पर बहस आज भी पुरातन बातों में उलझी है. वास्तव में यह कहने के सिवाय कि अफगानिस्तान में भारतीय सैनिक कदम नहीं रखेंगे, कोई नीति नहीं है.
2001 में तालिबान के पतन के बाद भारत, अफगानिस्तान को तीन अरब डॉलर यानी करीब 210 अरब रुपए की आधिकारिक मदद दे चुका है. कई अन्य क्षेत्रों में भी वह अफगानिस्तान की मदद कर रहा है. हालांकि, सैन्य क्षेत्र में भारत सिर्फ अफगान सेना व पुलिस को कुछ प्रशिक्षण और चार एमआई 15 हेलीकॉप्टर देने तक ही सीमित रहा है. 2013 में तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने भारत को सैन्य उपकरणों की एक सूची भी दी थी और अब मोहिब ने भारतीय सैनिकों की मांग की है. लेकिन, भारत वहां किसी भी सैन्य भूमिका न निभाने के अपने रुख पर डटा है. जो सरकार पुरानी धारणाओं को तोड़ने में भरोसा करती है, उसके लिए भारत को एक क्षेत्रीय सुरक्षा प्रादाता के रूप में उभारने का यह मौका है. अगर अफगानिस्तान में आंतकी और पाकिस्तान के पिठू हावी हो गए तो इससे भारत को ही सबसे ज्यादा नुकसान होगा. यह समय है जब भारत के नीति निर्धारकों को अफगानिस्तान में सक्रिय न होने की कीमत का आकलन करना चाहिए.
यह लेख मूलरूप से दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है.
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