Published on Apr 12, 2022

जब तक भारत आत्म निर्भर नहीं हो जाता, या वो कम से कम व्यापार के दूसरे विकल्प विकसित नहीं कर लेता है, तब तक फ़ौरी तौर पर कुछ भी नहीं बदलने वाला है. भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की हिफ़ाज़त करनी ही होगी. 

यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर भारत द्वारा कूटनीतिक संतुलन बनाने की जी-तोड़ कोशिश!

यूक्रेन में युद्ध को लेकर भारत ज़बरदस्त कूटनीतिक दबाव में है. अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय अर्थ मामलों के उप सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह, ब्रिटेन की विदेश मंत्री एलिज़ाबेथ ट्रस और रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव कुछ दिनों के अंतर पर भारत का दौरा कर चुके हैं.

जहां तक दलीप सिंह और लिज़ ट्रस के दौरों का सवाल है, तो माना जा रहा है कि इनका मक़सद ये कूटनीतिक दबाव बनाना था कि भारत, यूक्रेन पर आक्रमण को लेकर रूस के ख़िलाफ़ और सख़्त रवैया अपनाए. वहीं, रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव के दौरे का मक़सद ये था कि भारत, अपने ऐतिहासिक रिश्तों को देखते हुए, पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बावजूद, रूस के साथ व्यापार बढ़ाए.

ब्रिटेन की विदेश मंत्री लिज़ ट्रस ने कहा था कि वो इसलिए नहीं आई हैं कि भारत को ये बताएं कि वो क्या करे. मगर उन्होंने भारत से अपील की कि एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते वो अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलकर काम करे, जिससे रूस को इस हमले की भारी क़ीमत चुकानी पड़े.

भारत ने रूस की आलोचना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र में लाए गए तमाम प्रस्तावों पर मतदान से दूरी बनाई है. इसके बजाय, भारत लगातार युद्ध को फ़ौरन रोकने और विवाद का समाधान बातचीत से निकालने की अपील करता रहा है. हालांकि, भारत के रुख़ में कुछ बदलाव ज़रूर आया है. क्योंकि, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पुराने रुख़ में ये बातें जोड़ी थीं कि, ‘विवादों और मतभेदों का समाधान अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों, संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और सभी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए संवाद और कूटनीति से निकाला जाना चाहिए’. भारत ने यूक्रेन के बुचा क़स्बे में आम नागरिकों की हत्या की ‘बेहद परेशान करने वाली ख़बरों’ की स्वतंत्र रूप से जांच की मांग का भी समर्थन किया है. हालांकि, इस बात की संभावना कम ही है कि रूस को लेकर भारत अपने इस रुख़ से आगे बढ़ेगा और यूक्रेन पर आक्रमण की खुलकर निंदा करेगा. इसकी वजह साफ़ है. रूस के साथ मौजूदा और ऐतिहासिक रिश्ते, भारत के लिए सबसे अहम सामरिक प्रासंगिकता है.

अमेरिका के उप सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह ने साफ़ तौर पर चेतावनी दी थी कि भारत समेत जो भी देश, पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों का सक्रिय रूप से उल्लंघन करने की कोशिश करते हैं, तो इसके गंभीर नतीजे होंगे. वहीं, ब्रिटेन की विदेश मंत्री लिज़ ट्रस ने कहा था कि वो इसलिए नहीं आई हैं कि भारत को ये बताएं कि वो क्या करे. मगर उन्होंने भारत से अपील की कि एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते वो अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलकर काम करे, जिससे रूस को इस हमले की भारी क़ीमत चुकानी पड़े. पिछले एक महीने में क्वॉड में भारत के दो साझीदार देशों, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत से अपील की थी कि वो यूक्रेन संकट को लेकर और स्पष्ट रवैया अपनाए.

अगर भारत पूरी तरह से पश्चिमी देशों के साथ खड़ा होता है, तो इससे रूस नाराज़ हो जाएगा और फिर वो चीन के और भी क़रीब हो जाएगा. भारत ऐसा बिल्कुल नहीं चाहेगा; इसके अलावा, रूस के साथ एक स्थिर दोस्ताना संबंध बनाए रखने से, ज़रूरत पड़ने पर भारत के लिए चीन के साथ अपने विवादों से निपटने के लिए संवाद का एक रास्ता खुला रहेगा.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनीतिक संतुलन अहम्

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत को इस वक़्त अंतरराष्ट्रीय मामलों में कई देशों के साथ अपने रिश्तों में पेचीगियों का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह मौजूदा मुश्किल स्थिति और ख़ुद भारत के हालात हैं. हालांकि, बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद, ऐसा लगता है कि भारत के नीति निर्माताओं को रूस के साथ रिश्तों की व्यापक अहमियत का बख़ूबी अंदाज़ा है और वो इसका पूरा ध्यान रख रहे हैं.

रूस के साथ भारत के क़रीबी रिश्ते सात दशक से ज़्यादा पुराने हैं. आज भी भारत के आधे से ज़्यादा सैन्य साज़-ओ-सामान रूस से ही आते हैं. अप्रैल 2020 में लद्दाख में हिंसक झड़प के चलते आज जब भारत और चीन के रिश्ते बहुत बिगड़े हुए हैं, तो भारत के लिए अच्छी क़ीमत पर रूस से मिल रहे हथियारों की सामरिक अहमियत और भी बढ़ गई है. ये इसलिए भी क्योंकि आला दर्ज़े के हथियार भारत को देने के मामले में पश्चिमी देशों का रवैया बहुत उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है. एक और पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ भी भारत के तल्ख़ रिश्ते रहे हैं जो आज भी बने हुए हैं. ऐसे में भारत की सैन्य तैयारी मज़बूत बनाए रखने में रूसी हथियारों की भूमिका और भी अहम हो जाती है.

इसके अलावा, वैसे तो अमेरिका पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत का क़रीबी साझीदार बन गया है. वहीं, अमेरिका के साथ अपने बिगड़ते रिश्तों की वजह से भू-राजनीतिक संतुलन बनाने के लिए रूस ने चीन के साथ नज़दीकी गठबंधन बना लिया है. हालांकि, इस बात का असर भारत और रूस के रिश्तों पर नहीं पड़ा है. क्योंकि दोनों ही देशों ने बार बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि एक दूसरे के साथ उनके रिश्ते पर, भू-राजनीतिक कारणों से अन्य देशों के साथ बने रिश्तों का असर क़तई नहीं पड़ता है. अगर भारत पूरी तरह से पश्चिमी देशों के साथ खड़ा होता है, तो इससे रूस नाराज़ हो जाएगा और फिर वो चीन के और भी क़रीब हो जाएगा. भारत ऐसा बिल्कुल नहीं चाहेगा; इसके अलावा, रूस के साथ एक स्थिर दोस्ताना संबंध बनाए रखने से, ज़रूरत पड़ने पर भारत के लिए चीन के साथ अपने विवादों से निपटने के लिए संवाद का एक रास्ता खुला रहेगा. क्योंकि, चीन और रूस का एक दूसरे के साथ आना तो तय है.

अपनी ऊर्जा संबंधी ज़रूरतों के लिए भारत की अन्य देशों पर निर्भरता भी, रूस के साथ सामरिक संबंधों की अहमियत बढ़ा देती है. क्योंकि ख़बर ये है कि रूस आला दर्ज़े का कच्चा तेल भारत को बेहद रियायती दरों (35 डॉलर प्रति बैरल) पर बेचने को तैयार है. भारत, ऐसे पहले सौदे के तहत 1.5 करोड़ बैरल तेल रूस से ख़रीदना चाहता है. रूस से तेल ख़रीदने के इस फ़ैसले की पश्चिमी देशों द्वारा आलोचना के जवाब में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि रूस से जितना तेल और गैस यूरोप के बड़े ख़रीदार देश ले रहे हैं, उसकी तुलना में भारत का कच्चे तेल का सौदा एक फ़ीसद भी नहीं है. जयशंकर ने कहा कि मार्च में भारत ने जितना तेल और गैस ख़रीदा, उसके पंद्रह फ़ीसद ज़्यादा तो यूरोपीय देशों ने रूस से ख़रीदा है. भारत की विदेश मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को उजागर करते हुए साफ़ कहा था कि भारत ने रूस से पहले ही तेल ख़रीदना शुरू कर दिया था और आगे भी ऐसे सौदे करते वक़्त भारत के राष्ट्रीय हितों का ख़याल रखा जाएगा.

ऐतिहासिक और सामरिक कारण

मौजूदा सामरिक कारणों को छोड़ भी दें, तो भारत और रूस के बीच राजनीतिक रिश्ते ऐतिहासिक रूप से बेहद गर्मजोशी भरे रहे हैं. दोनों ही देश कश्मीर और क्राइमिया जैसे जटिल राजनीतिक मुद्दों पर वैश्विक मंचों पर एक दूसरे के रुख़ का समर्थन करते आए हैं. शीत युद्ध के दौरान भी जब अमेरिका ने भारत के क्षेत्रीय विरोधी पाकिस्तान के साथ नज़दीकी रिश्ते बनाकर रखे थे, तब सोवियत संघ लगातार भारत के साथ मज़बूती से खड़ा रहा था.

भारत और सोवियत संघ के बीच लंबे समय से वैचारिक समानता भी रही है और इतिहास में चुनौती भरे भू-राजनीतिक हालात के बावजूद अब ये ख़ास सामरिक साझेदारी में तब्दील हो गई है. दोनों देशों के प्रतिनिधि बार बार इस बात को दोहराते रहे हैं.

जब यूक्रेन के मानवीय संकट पर रूस, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव लेकर आया था, तब भी भारत उस पर मतदान से ग़ैरहाज़िर रहा था. फिर भी इस संकट को लेकर अपने रुख़ से इतर भारत को सबसे पहले अपने सामने खड़ी भू-राजनीतिक हक़ीक़तों और चुनौतियों को समझना होगा.

यहां ये बात ध्यान देने वाली है कि भारत ने रूस का साथ नहीं दिया है, बल्कि उसने यूक्रेन युद्ध में निरपेक्ष रुख़ अपनाया है. जब यूक्रेन के मानवीय संकट पर रूस, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव लेकर आया था, तब भी भारत उस पर मतदान से ग़ैरहाज़िर रहा था. फिर भी इस संकट को लेकर अपने रुख़ से इतर भारत को सबसे पहले अपने सामने खड़ी भू-राजनीतिक हक़ीक़तों और चुनौतियों को समझना होगा.

अगर ठोस आंकड़ों की बात करें, तो भारत और रूस के बीच कारोबार बेहद कम (11 अरब डॉलर से भी कम) रहा है. मगर भारत अपने हथियारों के लिए रूस पर बहुत निर्भर है. अपने से ताक़तवर चीन के साथ लगातार बने हुए सैन्य तनाव, अपनी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने में संसाधनों की कमी और रूस के पास ऊर्जा के भरपूर स्रोत होने को अगर हम दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रूप से भरोसेमंद रिश्ते होने से जोड़ कर देखें, तो इसका मतलब ये है कि भारत ये संबंध ख़राब करने का जोख़िम नहीं मोल ले सकता है.

जब तक भारत आत्मनिर्भर नहीं हो जाता, या वो कम से कम व्यापार (ख़ास तौर से हथियारों) के दूसरे विकल्प विकसित नहीं कर लेता है, तब तक फ़ौरी तौर पर कुछ भी नहीं बदलने वाला है. भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की हिफ़ाज़त करनी ही होगी. ऐसे में, पश्चिमी देश चाहे जितना दबाव बनाएं, इस बात की संभावना बहुत कम है कि भारत, यूक्रेन के मसले पर अपनी संतुलित नीति से पीछे हटने वाला है.

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